रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 22 अप्रैल 2012

रंगमंच में तकनीक का आसरा अर्थात प्रेरणा की कमी : अमितेश कुमार


इंडियन थियेटर फ़ोरम द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार  ‘स्पेसेस आफ़ थियेटर एंड स्पेसेस फ़ार थियेटर’ पर अमितेश कुमार की रिपोर्ट |

१४ मार्च की सुबह नीनासम का परिसर भारत भर से आये हुए प्रतिनिधियों का स्वागत करता हुआ लग रहा था. नीनासम  कर्नाटक के शिमोगा जिले में स्थित गांव हेग्गुड़ु में कार्यरत एक सांस्कृतिक संस्था है. जो रंगमंच का प्रशिक्षण भी देती है और एक त्रिगटा नाम से एक रंगमंडल का संचालन भी करती है जो कर्नाटक में घूम घूम कर नाटक करता है. के.वी. सुबन्ना इसके संस्थापक सदस्य थे. हम वहां इंडियन थियेटर फ़ोरम और नीनासम द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में शिरकत करने पहूंचे थे जिसका शीर्षक था ‘स्पेसेस आफ़ थियेटर एंड स्पेसेस फ़ार थियेटर’. फ़ोरम के वेबसाईट पर यह लिखा गया था कि इस सेमिनार में स्पेस की अवधारणा की व्यापक चर्चा होगी. स्पेस थियेटर की एक मुख्य अवधारणा है. इसका संबंध उस स्पेस से भी है जहां नाटक मंचित होता है और उस स्पेस से भी है जो मंचन के दौरान रंग प्रयोक्ता स्पेस के भीतर प्रस्तुति में निर्मित करते हैं. पीटर ब्रुक के अनुसार स्पेस तो रिक्त (empty) में निर्मित होता है. मंचन के लिये एक भौतिक स्पेस अनिवार्य है और यह कुछ भी हो सकता है. अरस्तु ने नाटक के लिये संकलन त्रयी में स्पेस को भी रखा था, क्रिया और समय दो अन्य थे. संकलन त्रय की अन्विति पाश्चात्य नाटक के लिये अनिवार्य थी जबकि भारतीय नाटक में ऐसा नहीं था. यहां स्पेस, समय और क्रिया की अन्विति नहीं थी. यहां एक ही नाटक में क्रिया कई जगहों पर, कई समयों में होती थी. और ऐसा निर्मित करने के लिये अभिनेता यथार्थावादी दृश्य विधान का नहीं बल्कि अपने अभिनय और दर्शक की कल्पनाशीलता का सहारा लेता था. कालीदास अपने नाटकों में पात्रों के संवाद से ही स्पेस निर्मित कर देते थे. शुद्रक की ‘मिट्टी की गाड़ी’ में जुआरी जो पैसे हार गया है उसको सड़क पर पकड़ने के लिये दौड़ाया जा रहा है और वो भाग कर गणिका वसंतसेना के घर में चला जाता है. बाहर और भीतर के स्पेस में पात्र और दर्शक आसानी से यात्रा कर लेता है.(हबीब तनवीर इसका जिक्र की बार करते हैं) भौतिक स्पेस के रूप में रंगमंच ने कई रूप देखे हैं. संस्कृत के विकृष्ट नाट्यमंडप, ग्रीक का विशाल एम्फ़ी थियेटर, ग्लोब थियेटर, ग्रामीण खुला रंगमंच, मंदिर, प्रोसेनियम, इत्यादि जैसे कई मंचों पर नाटक होता रहा है. भारतीय आधुनिक रंगमंच के सामने कई चुनौतियां रहीं हैं जिसमें स्पेस भी रहा है. स्पेस (रंगस्थल/ प्रेक्षागृह) के निर्माण ने जहां कलकत्ता और बंबई में आधुनिक रंगमंच को गति दी तो इसके अभाव ने हिन्दी प्रदेश में आधुनिक रंगमंच के विकास को शिथिल भी किया. वैसे पारंपरिक रंगमंच हमेशा से खुले और घुमंतु स्पेस में होता रहा. लेकिन व्यापक रंगकर्म के लिये स्पेस की अनिवार्यता बनी रही. जब स्पेस बने तब बहुत से रंगकर्म के लिये अनुपयोगी हो गये और आज जो उपयोगी हैं वह रंगकर्मियों की जेब की सीमा के बाहर हैं. कई रंगकर्मियों ने तो अपने प्रयासों से स्पेस बनाया लेकिन भारत जैसे विशाल देश में ऐसे प्रयास नगण्य ही गिने जायेंगे, वैसे उनका अपना महत्त्व है. स्पेस की जटिल अवधारणा की विशद व्याख्या की उम्मीद में वहां हम जुटे थे लेकिन अगले पांच दिनों में वहां स्पेस की एकरस चर्चा होती रही . स्पेस कैसे बना यह अनुभव वक्ताओं ने बताया लेकिन उस स्पेस के भीतर स्पेस कैसे बनता है यह चर्चा कुछ ही वक्ताओं ने की.  स्पेस के नाम पर प्लेस और लोकेशन (प्लेस और लोकेशन का अभिप्राय उस स्थान से है जहां पर प्रस्तुति होती है) की चर्चा हुई, जिसका उल्लेख अंत के कुछ वक्ताओं ने भी किया. वस्तुतः इस सेमिनार ने एक अतृप्ति को जन्म दिया.
पहले सत्र में प्रतिनिधि
बहरहाल, सेमिनार में पंजीकरण के बाद परिचय सत्र हुआ जिसमें उपस्थित डेलीगेट्स को आपस में परिचित कराने के लिये एक खेल का सहारा लिया गया. हर एक के हाथ में एक पर्चा था जिसमें पांच सवाल थे जिसके जवाब उसे अन्य पांच अलग-अलग लोगों से पूछने थे. इस खेल के पीछे क्या योजना थी और इसका क्या निष्कर्ष निकला यह मेरी समझ में नहीं आया क्योंकि इससे परिचय भी नहीं हो सका. शांता गोखले ने मेरे एक और मैंने उनके एक सवाल का जवाब दिया लेकिन अगले पांच दिन मैं उनसे बात करने का संयोग नहीं जुटा पाया. इसके बाद इंडियन थियेटर फ़ोरम के बारे में उसके गतिविधियों और उसके उद्देश्यों के बारे में बताया गया. साथ में अगले दिनों ने सेमिनार का संचालन कैसे होना था और इसमें क्या नयापन था और कैसे इसको और जीवंत बनाया जाये, इसे भी आयोजकों ने स्पष्ट किया. सवाल भी आमंत्रित किये गये और आमंत्रण मिलते ही रूस्तम भरूचा ने अपने सवालों से फ़ोरम को बैकफ़ुट पर धकेल दिया. उन्होंने भाषा, प्रबंधन, प्रतिनिधित्व और उद्देश्य और संचालन के तरिको पर प्रश्न खड़ा कर दिया. उन्होंने कहा कि प्रबंधन की भाषा में सत्र संचालित किया जा रहा है और रंगकर्मियों के एक बड़े वर्ग की उपस्थिति नहीं है. अतः जो यहां नहीं आ सकते जैसे पारंपरिक रंगकर्मी उन्हें लाकर सेमिनार को और समावेशी बनाना चाहिये था. या भारतीय रंगमंच का बड़ा हिस्सा शौकिया रंगकर्मियों का है जिन्हे स्पेस की जटिलताओं का अधिक सामना करना पड़ता है उनके लिये भी रास्ता सुझाया जाना चाहिये. उनके सवालों ने प्रतिनिधियों को आश्वस्त कर दिया कि सेमिनार में होने वाले वक्ताओं को इस शख्स से सावधान रहना पड़ेगा।  
अगले सत्र में नीनासम के अक्षरा केवी ने उपस्थित प्रतिनिधियों का औपचारिक स्वागत किया और सुधन्वा देशपांडे ने सेमिनार के उद्देश्यों, योजनाओं और विषय पर विस्तार से चर्चा कर, एक खाका स्पष्ट कर दिया जिस पर आगे चर्चा होनी थी।  भारतीय रंगमंच में स्पेस की अवधारणा इसके सभी रूपों, मंचन के लिये आवश्यक स्पेस की उपलब्धता, उपलब्ध स्पेस की दिक्कतें, रिहर्सल स्पेस की समस्या, नये स्पेस तलाशने और बनाने का रास्ता, स्पेस से संबंध इत्यादि मुख्य बिंदुओं की सोदाहरण चर्चा हुई. और स्पष्ट भी किया गया कि यह जरूरी नहीं कि इसमें स्पेस के सभी बिंदुओं पर चर्चा हो ही जाये या सभी रंगमंचीय गतिविधियों को चर्चा में समेट लिया जाए अर्थात उम्मीद के साथ सीमा को भी स्पष्ट कर दिया गया. छूटे हुए विषयों पर चर्चा के लिये ओपन स्पेस का रास्ता खोल दिया गया जिसमें चर्चा करने कराने को इच्छुक प्रतिनिधि विषय से संबंधित गोष्ठी आयोजित कर सकते थे।
चाय के बाद औपचारिक व्याख्यानों का पहला सत्र हुआ. विषय था ‘बाडी इन स्पेस’। अध्यक्षता सदानंद मेनन कर रहे थे और वक्ता थीं वीणापाणी चावला, शंकर वेंकटेश्वरन और प्रीति अत्रेय मेनन.  प्रीति ने केलुचरण महापात्र और एक पाश्चात्य नृत्यांगना का क्लिप दिखाकर स्पेस के प्रयोग की विविधता को स्पष्ट किया. प्रीति ने बताया कि शरीर को स्पेस में ही अनुभव किया जाता है. प्रदर्शनकर्ता का शरीर प्राथमिक स्पेस है और भौतिक स्पेस ब्रह्मांड का सूक्ष्म प्रतिनिधि है जिससे शरीर संबंध बनाता है. गतिशील शरीर स्पेस का दृश्य रूप होता है और प्रदर्शन के दौरान अलग अलग रूप लेता है. प्रदर्शनकर्ता को अपने शरीर और जिसका प्रदर्शन किया जा रहा है उसके शरीर के साथ तालमेल बनाना होता है. रंगमंच पर न्युट्रल शरीर नहीं होता. पुरुष और स्त्री शरीर के अलग अलग स्पेस की भी चर्चा की और बताया कि जिसको दिखाया जा रहा है और जो दिखा रहा है वह कैसे एक ही शरीर में वास करता है.  अगले वक्ता शंकर ने चिदाम्बरम मंदिर के स्थापत्य और शरीर की तुलना करके स्पेस को सामने रखा. उन्होंने अंतः प्रातिनिधिकता(inner representataion) और बाह्य प्रातिनिधिकता(external representaion) के संबंधों की चर्चा की और बताया कि ‘स्व – अभिनेता – चरित्र’ की रेखा का अनुसरण किया जाता है. चरित्र को अभिनेता प्रतीकात्मक रूप से शारीरिक गतिविधियों के जरिये निरूपित करता है. अभिनेता को लेखक की कल्पना, चरित्र की कल्पना, दर्शक की कल्पना और अपनी कल्पना के बीच तालमेल स्थापित करना होता है. अभिनेता को रंगमंचीय स्पेस को बदलना होता है और दर्शकों को उस बदले हुए स्पेस तक मानसिक रूप से ले जाना होता है’. वीणापाणि चावला ने अंतः स्पेस और बाह्य स्पेस के बीच की तरलता और वस्तुनिष्ठ यथार्थ और विषयनिष्ठ यथार्थ की चर्चा की और कहा कि एक मंचन में एक साथ कई स्पेस उपस्थित होते हैं जिनके बीच आवाजाही होती रहती है. पारंपरिक रंगमंच मनोवौग्यानिक स्पेस, बाह्य स्पेस और दर्शक के साथ मिलकर कास्मिक स्पेस बनाता है.  स्पेस की बहुआयामी चेतना अभिनेता के मन में होती है जिसे वह नित्य अभ्यास के जरिये साधता है. कुट्टियाटटम के उदाहरण से उन्होंने बताया कि अभिनेता स्पेस को कैसे साधता है. एक दीये की जलती लौ के आगे वह अपनी आंख को लाता है फ़िर अभिनय के जरिये स्पेस निर्मित करता है और अपने शरीर को उसमें स्थापित करता है. प्रकाश, संगीत इत्यादि घटक तत्व अभिनेता के क्रिया को विस्तृत करते हैं. सदानंद मेनन ने इस चर्चा में राजनीतिक स्पेस की भी चर्चा की. मंदिरो में बरते जाने वाले भेद भाव और स्त्री पुरूष शरीर के भेदभाव पर भी चर्चा हुई कि कैसे कुछ खास शरीर ही कुछ खास स्पेस तक पहूंच सकते हैं. जैसे बहुत से मंदिरो में आज भी शुद्रो या अन्य धर्म के अनुयायियों का प्रवेश वर्जित है या औरतें मस्जिद को अभी भी उस तरह हासील नहीं कर सकी हैं जिस तरह पुरुषों ने.   इस पूरे सत्र में स्पेस की अवधारणा को दार्शनिक पदावली में स्पष्ट करने की कोशिश की गई, मंच पर सामान्य नजर आनेवाली क्रिया की दुरुहता को भी साफ़ किया गया लेकिन श्रोताओं के सवालों के कारण सत्र रंगमंच से उछलकर ‘मेटाफिजिक्स’ नामक पद पर अटक गया और अटका ही रहा. 
आयोजकों ने हर शाम एक प्रस्तुति का आयोजन किया था. इस शृंखला में इस शाम शंकर वेंकटेश्वरन के निर्देशन में नीनासम की छात्र प्रस्तुति हुई ‘सीगल’ (एंतोन चेखव). निर्देशक ने इस नाटक के हर अंक में स्पेस परिवर्तन किया था. पहले खुले रंगमंच के दर्शक के बैठने की जगह पर मंचन हुआ और मंच पर दर्शक बैठे. यह बहुत प्रभावी था. मंच के पीछे की बड़ी खुली जगह और जंगल से घिरा वातावरण प्रस्तुति को एक गहराई दे रहा था. इस स्पेस में पात्रों के प्रवेश और प्रस्थान की गति को बेहतर संयोजित किया गया था. दूसरे अंक में प्रस्तुति मंच पर हुई, तीसरे अंक में अंतरंग थियेटर में ले जाया गया और अंतिम अंक में दर्शकों के स्थान की अदला बदली हुई. यह चौथा परिवर्तन एक अभ्यास बन कर रह गया और पहले के तीन परिवर्तनों में कुछ जोड़ नहीं पाया. कन्नड नहीं समझ पाने के कारण प्रस्तुति का रसास्वादन बेहतर ना हो सका लेकिन अभिनय और नाटक की गति ने अरूचि नहीं होने दी.
रोमी खोसला
अगले दिन पहले सत्र में वास्तुकार (architect) रोमी खोसला ने अपनी प्रस्तुति की. शीर्षक था ‘बिल्डिंग फ़ार पीपल’. अपनी प्रस्तुति में उन्होंने वास्तु के कार्य की व्याख्या करते हुए बताया कि वास्तु का काम एक रिक्त स्थान में स्पेस निर्मित करना होता है. स्पेस दो तरह के होते हैं मुर्त (Tangible) और अमुर्त (Intangible). मुर्त स्पेस भौतिक वस्तुओं से निर्मित होता है और अमुर्त स्पेस उपकरणॊं, क्रिया और मेटाफिजिक्स से. यथार्थ को स्मृति और अन्य चीजों के जरिये अनुभव किया जाता है. स्पेस वस्तुओं के बीच के संबंध के बीच उपस्थित होता है. वस्तुओं और सतह के साथ के साथ खेलकर ऐसा स्पेस बनाना जिसमें उपयोगकर्ता प्रवेश करे, ही वास्तुकार का काम होता है. वस्तुओं के बीच तीन तरह का स्पेस होता है अस्थायी, गतिशील और स्थायी. रंगमंच में दर्शक और प्रदर्शक के बीच स्पेस बनता है.  प्रदर्शक वस्तुओं से संबंध स्थापित करके प्रदर्शन में और प्रदर्शन के जरिये स्पेस बनाते हैं. इसलिये रंगमंच को जरूरत है विभिन्न माध्यमों के बीच सहभागिता की जिसमें वास्तु भी शामिल है.
चाय के बाद दूसरे सत्र का विषय था ‘द परफ़ार्मेंस स्पेस’. वक्ता थे जयचंद्रन पलाझी, ज़ुलेखा चौधरी, अतुल कुमार. अध्यक्षता कर रहे थे अभिलाष पिल्लई. इस सत्र में पलाझी और ज़ुलेखा ने अपने प्रयोगों को लेकर ही बात की. पलाझी ने अपने वक्तव्य के प्रारंभ में रुडोल्फ़ नुर्वे को उद्धृत किया कि ‘तकनीक वह है जिस का आसरा आप तब लेते हैं जब आप में प्रेरणा की कमी होती है.’ उन्होंने कहा कि शरीर के विभिन्न अंग और क्रिया स्पेस से कैसे अपना संबंध बनाते हैं. अट्टकल्लरी के उदाहरण से बताया कि इसमें कैसे इसमें सूक्ष्म ब्रह्मांड निर्मित हो जाता है. जीवन उर्जा नाभीमूल में संचित होती है. शरीर की गति उर्जा के प्रसारित होने  का परिणाम होती है. कल्लरी में प्रयुक्त होने वाले हथियार शरीर के पद्धतिबद्ध और सख्त विस्तार होते हैं. शरीर भौतिक आकृतियों के परे निर्मित स्पेस में होता है. शरीर की गति आपको बहुत से रास्ते और बहुत से स्पेस प्रदान करती है. शरीर एक यंत्र की तरह प्रतिरोधों को हटा देती है. अपनी प्रस्तुति ‘मेईध्वनि’ और विभिन्न कलात्मक, धार्मिक, राजनीतिक प्रदर्शनों के चित्र दिखाकर उन्होंने स्पेस की बहुआयामी रूप के बारे में बताया. ज़ुलेखा चौधरी ने अपनी प्रस्तुतियों के लिये किये गये प्रयोग और विभिन्न स्थानों पर किये जाने वाले उनके प्रदर्शनों के दौरान किये जाने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया में स्पेस को अनुकूलित करने की प्रक्रिया का जिक्र किया, ग्यात हो कि वे ट्युबलाईट्स की विभिन्न सरंचानाओं को लेकर प्रयोग कर रही हैं. उन्होंने अपने प्रयोग प्रक्रिया को ऊबाउ विस्तार में बताया. अतुल कुमार ने चर्चा की शुरुआत हबीब तनवीर के नाटक  ‘जिस लाहौर नई देख्या..’ के उदाहरण से की, जिसे उन्होंने हैदराबाद में देखा था. कैसे हबीब साहब  देर से शुरू हुई प्रस्तुति में शुरुआती कुछ असावधानियों के बावजुद दर्शकों को अपने साथ बहा ले गये और दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर नाटक देखते रहे. अतुल कुमार ने अभिनेता के इसी ताकत को रेखांकित किया जिसमें वह दर्शक को मनचाहे स्पेस तक ले जाता है.  रंगमंच के लिये उपयुक्त स्पेस की अनुपलब्धता और उनके मंहगाई पर भी ध्यान खींच कर बहस को मेटाफिजिक्स और व्यक्तिगत प्रयोग से यथार्थ के धरातल पर लाने की कोशिश भी की. और स्पेस की उपलब्धि की जटिलताओं के बारे में बताया. वैसे उन्होंने कहा कि वे सवाल जवाब में संवाद करेंगे लेकिन अचानक लगा कि उन्होंने अपने आप को रोक लिया और अधिक नहीं बोले.
अगले सत्र में वास्तुकार इयान मैकिनटोश और वेद सेगान ने अपने विचार रखे. इयान मैकिनटोश ने कहा कि थिएटर में नृत्य, ड्रामा, संगीत, ओपेरा इत्यादि होता है. यह एक सहयोगी कला है. और हर तरह की अभिव्यक्ति के लिये अलग अलग स्पेस की जरुरत होती है.  लेकिन इतने तरह के स्पेस निर्मित नहीं किये जा सकते. इसलिये बहुउद्देश्यीय स्पेस के स्थान पर मल्टिफंक्शनल स्पेस होना चाहिये जिनमें प्रदर्शन के अनुकूल आसानी से परिवर्तन किये जा सके। अपने प्रस्तुति को उन्होंने नौ बिंदुओं में विभाजित किया था. पहले में उन्होंने थियेटर के संघटक तत्वों और उसकी जरूरतों के बारे में बताया. दुसरे बिंदु में उन्होंने विभिन्न स्पेसों और और उनकी परिवर्तनशीलता की चर्चा की. अगले कुछ बिंदुओं में उन्होंने आकार की भी चर्चा की और इस क्रम में संस्कृत रंगमंच और कुत्तम्बलम(ऐसा प्रेक्षागृह है जिसमें कुडियाट्टम का मं चन होता है, ऐसा कहा जाता है कि इसे भरत मुनि द्वारा वर्णित प्रेक्षागृह के आधार पर बनाया गया है) का जिक्र किया. दर्शकों के परिप्रेक्ष्य और दृष्टि बिंदु के नजरिये से स्पेस को कैसा होना चाहिये ये भी बताया. विभिन्न रंगमंचीय अभिव्यक्तिओं और उनकी जरूरतों के साथ साथ, उनके अनूकूल स्पेस निर्मित करने में आने वाली चुनौतियों के बारे में सोदाहरण बताया. विभिन्न प्रेक्षागृहों का हवाला देते हुए उन्होंने पृथ्वी थियेटर की सरंचना के बारे में बताया और उसकी प्रेरणा कहां से मिली इसका उल्लेख किया. अगले वक्ता वेद सेगान ने पृथ्वी थियेटर के बनने की कहानी को चित्रों और घटनाओं के वर्णन के जरिये सुनाया और कहा कि सफ़ल रंगमंच वह है जहां प्रदर्शक और दर्शक की दुनिया मिलती है जहां शब्द, संगीत, अभिनेता आदि मिलकर एक साझी दुनिया बनाते हैं.  इस सत्र की अध्यक्षता हिमांशु बुर्ते कर रहे थे वे भी एक वास्तुकार है.
 प्रस्तुतियों की शृंखला में इस शाम सुनील शानबाग निर्देशित चर्चित नाटक ‘सेक्स, मोरैलिटी और सेंसरशिप’ का प्रदर्शन हुआ. इस प्रस्तुति के दौरान तकनीकी गड़बड़ी के कारण नाटक का एक बड़ा हिस्सा कट गया लेकिन अभिनेताओं के कुशलता के कारण नाटक कमजोर नहीं पड़ा. गौरतलब है कि यह नाटक विजय तेंदुलकर के नाटक ‘सखाराम बाइंडर’ के संदर्भ में सेंसरशिप और नैतिकता के प्रतिमानों की एतिहासिक आलोचना करता है. राज्य के साथ साथ यह समाज की भी नैतिकता के मानदंडों की भी पड़ताल करता है और गिरते हुए सहिष्णुता के स्तर के प्रति चिंतित होता है. अभिनय इस प्रस्तुति का उल्लेखनीय पक्ष है साथ ही यह नाटक स्पेस के बीच परिवर्तन की तरलता का भी सटीक उदाहरण है जो विभिन्न स्थानों और विभिन्न कला खंड की यात्रा करता है.  
 अगले दिन की शुरुआत ज्यां गाय लसेट की प्रस्तुति से हुई ज्यां, पीटर ब्रुक के सहयोगी रहे और उनके लिये उन्होंने अनेक नाटकों की मंच परिकल्पना की और इस क्रम में उन्होंने बहुत सारे स्थान पर प्रस्तुतियां की. खुले में और बंद प्रेक्षागृहों में. और इन दोनों ही जगहों पर स्थान की सरंचना में परिवर्तन करके स्पेस को अनुकूल किया. उन्होंने कहा कि नाटक कहीं भी खेला जा सकता है लेकिन बेहतर है प्रेक्षागृह में खेलना. थियेटर में तानाशाही की जगह नहीं होती ना निर्देशक की और ना डिजाईनर की. उन्होंने कहा कि परिदृश्यात्मक दृष्टि से ही ड्रामा निर्मित होत है, जिसका निर्वाह अनुपात में होना चाहिये. दर्शक ठीक से सुन सके और ठीक से देख सके और ये कैसे किया जाये? किसी भी स्पेस को परिकल्पक नाटक के अनुकूल बना सकता है और नाटक कर सकता है. सादगी थियेटर और वास्तु दोनो को शालीन बनाती है लेकिन इसे बरतना आसान नहीं है. ज्यां गे ने बहुत सारे चित्रों के जरिये दिखाया कि किस तरह उन्होंने स्पेसों को परिवर्तित कर नाटयानुकूल बनाया. लेकिन यहां यह ध्यान देना आवश्यक है कि क्या भारत में स्पेस के ऐसे खर्चीले परिवर्तन संभव है? क्योंकि पीटर ब्रुक के भारत से अत्यंत लगाव के बावजुद महाभारत का प्रदर्शन भारत में नहीं हुआ था इसके मंहगेपन के कारण. 
 अगले सत्र में भी ज्यां गाय लेसेट, सदानंद मेनन और शंकर वेंकटेश्वरन थे. यहां ध्यान दें की ये तीनों वक्ता एक बार बोल चुके थे. वैसे वक्ता चुनना आयोजकों की अपनी मर्जी है लेकिन दुहराव से बचना चाहिये था. अध्यक्षता सुनील शानबाग ने की. सदानंद मेनन ने अपने वक्तव्य में कहा कि हर एक बिल्डिंग में एक अदृश्य केन्द्र होता है, समूह इस केन्द्र को खोज नहीं पाते हैं और उन्हें इस केन्द्र को स्थापित करने में मेहनत करनी पड़्ती है. इस केन्द्र को खोज लेने से डिजाईन की बहुत सारी समस्या हल हो जाती है. ज्यां ने कहा कि वो एक कलाकार हैं और समाज को कलाकार की जरूरत होती है ताकि वह अपनी आंखे खुली रह सके. दृश्य परिकल्पक रंगमंच का अनिवार्य अंग है और वह उस संवाद का हिस्सा है जो दर्शक के साथ होता है. शंकर ने कहा कि नाटक में मनुष्य द्वारा निर्मित आवेग एक शृखंला में बद्ध होते हैं. अपने नाटकों के चित्र दिखाकर बताया कि कैसे अपनी प्रस्तुतियों ‘एलिफ़ेंट प्रोजेक्ट’ और ‘वाटर स्टेशन’ के लिये उसने डिजाईन किया और स्पेस को अपने प्रस्तुति के अनुकूल ढाला. दुहारव के कारण तीनों ही वक्ता अपने पूर्व के वक्तव्य का विस्तार करते ही दिखें और कुछ नया नहीं बोले. भोजनावकाश के बाद के सत्र का एक मुख्य हिस्सा छूट गया और जहां से शामिल हुआ वहां से कैम्प (CAMP) अपनी प्रस्तुति दिखा रहा था जिसमें शहर के बीचो बीच लगे बिजली के बल्ब की लड़ियों से स्पेस में हस्तक्षेप किया गया था तथा वीडियो कान्फ़्रेंसिंग के जरिये विभिन्न समुदायो की बातचीत कराई गई थी. 
शाम में दो प्रस्तुति थी एक प्रलयन निर्देशित नुक्कड़ नाटक.  कालेजों की अधिकतर बोरिंग और फ़ार्मूलाबद्ध नुक्कड़ नाटकों से अलग कलात्मकता से संपन्न नुक्कड़ नाटक देखना अच्छा था. तमिल में होने के बावजूद जिस तरिके से इसने दर्शको को इन्वाल्व किया वह सराहनीय था. बाद की प्रस्तुति आदिशक्ति की तैयार हो रही   प्रस्तुति ‘रामायण’ का हिस्सा थी. पहली प्रस्तुति निम्मी रफेल ने की जिसमें लक्ष्मण और कुंभकर्ण के साम्यता और विरोध को उभारा गया. संकेतो, मुद्राओं, गति और आवेगो से युक्त इस अभिनय ने शुरूआत में ध्यान खींचा लेकिन अनुपात में गड़बड़ी की वज़ह से ऊबाउ होने लगा. बाद की सुरेश कालिय द्वारा प्रस्तुत ‘हनुमान’ की प्रस्तुति में उन्होंने  अभिनय के चारों तत्वों समेत आवेगों का भी का बेहतर संतुलन किया था.  इससे यह प्रस्तुति प्रभाव में पिछले से अधिक थी. आदिशक्ति की इन प्रस्तुतियों को इन अभिनेताओं ने ही वीणापाणी चावला के मार्गदर्शन में तैयार किया था.
 अगले दिन सत्र की शुरुआत ब्राजील के सेस्की (SESC) संस्था के प्रतिनिधि की प्रस्तुति से हूई जिसमें ब्राजील में चल रहे बहुउद्देश्यीय सांस्कृतिक संस्था के क्रियाविधि के बारे में बताया गया जो कार्पोरेट और सरकार के समर्थन से चलती है तथा जिसका काम नई पीढी का मनोरंजन करना और समाज सेवा करना है. जिसमें कार्पोरेट को इन संस्थाओं के सरंक्षण निश्चित करने के लिये सरकार ने प्रावधान बनाये है और संस्था  ब्राजील में विविध सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बनी है. वीडियो और चित्रों के जरिये इस संस्था की विस्तार से जानकारी दी गई. यह प्रेरक तो था लेकिन भारत जैसे देश में जहां कल्याणकारी योजनाये भी बेमन से लागु की जाती है इन संस्थाओं का भविष्य नहीं दिखता. 
अगला सत्र सांस्थानिक स्पेस के बारे में था. इसमें तीन संस्थाओं के प्रतिनिधि थे. सतीश आलेकर (ललित कला केन्द्र, पूणे विशवविद्यालय) संजना कपूर (पृथ्वी थियेटर) और के.वी. अक्षरा( नीनासम). माडरेटर थीं मिलेना द्रागजिसेविच. देश की बड़ी संस्था रा.नावि. के प्रतिनिधि की अनुपस्थिति में यह पैनल अधूरा ही लग रहा था. सतीश आलेकर ने कहा कि रंगमंच महाराष्ट्र की प्रतिनिधि और लोकप्रिय कला है जिसमें विविध शैलियां है. मराठी रंगमंच बहुत अधिक नाटककार केन्द्रित है. नब्बे के दशक के बाद रंगमंच पर बहुत दबाव पड़ा टेलीविजन के आने के बाद और प्रशिक्षण संस्थाओं की जरूरत महसूस हुई. उन्हें पूणे विश्वविद्यालय में संगीत, नाटक विभाग खोलने के लिये बुलाया गया. इस विभाग मे उन्होंने विविध कलाओं को शामिल किया और गुरू शिष्य परंपरा में छात्रों का प्रशिक्षण शुरु किया. आलेकर ने विस्तार से इस विभाग के कार्यप्रणाली की बात की जो साफ़ भाषा में बहुत रोचक थी.   अक्षरा केवी ने नीनासम की कार्यप्रणाली उसके उद्देश्यों के चर्चा की.  के.वी. सुब्बना ने नीनासम की परिकल्पना की. फ़िल्म समाज से होते हुए  प्रेक्षागृह बना फ़िर प्रशिक्षण संस्थान और फ़िर उसी में एक रंगमंडल जो यक्षगान की मंडलियों की शैली में काम करता है और वर्ष भर कर्नाटक के राज्यों में घूम घूम कर शो करता है. वस्तुतः नीनासम ने कर्नाटक के रंगमंच संस्कृति में महति योगदान दिया है. संजना कपूर ने पृथ्वी उसकी स्थापना और उसके संचालन के उद्देश्यों के बारे में बात की. इस सत्र की खासियत रही की मिलेना ने पहले तीनों वक्ताओं को आरंभिक वक्तव्य देने के लिये कहा बाद में उनसे सवाल किया. इससे बातचीत अनुशासित ढंग से हुई और संस्थान को चलाने और उसको गतिशील बनाये रखने में जो समस्या आती है है उस पर विस्तार से चर्चा संभव हो सकी. अगले सत्र का विषय था ‘नरचरिंग स्पेस’. इस सत्र सिर्फ़ नाम ही अलग था. इस सत्र में भी विभिन्न वक्ताओं ने कैसे अपने स्पेस निर्मित किये हैं इसकी ही चर्चा की. विक्रम आयंगार, शुक्राचार्य राभा और एंड्रेस लुबर्स इसके वक्ता थे प्रकाश बेलवाड़ी इसके माडरेटर थे. चारों ने अपने स्पेस बनाये थे. लुबर्स का स्पेस जर्मनी में था जो उन्होंने समुद्र तट पर खाली पड़े भवनों में बनाये थे. इन सभी ने पावर प्वाइंट प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने स्पेस की क्रिया को समझाया. तीनो वक्ताओं में बस शुक्राचार्य राभा ने स्पेस निर्मित करने उसके उद्देश्य और उस स्पेस में कैसे प्रयोग हुए इस बारे में बात की. उनका प्रयास इसलिये भी सराहनीय है कि क्योंकि वह सुविधा संपन्नता से दूर ग्रामीण क्षेत्र में में ग्रामीण दर्शकों के लिये हो रहा है. राभा ने निश्चय किया कि गांव में गांव के लोगो के लिये थियेटर करना है और अपनी जमीन पर रंगमंच करना शुरू किया जिसने धीर धीरे दर्शकों को खींचा और उन्हें अनुशासित भी किया. उसने इस बात पर बल दिया कि स्पेस में अभिनेता के साथ साथ दर्शकों के साथ भी संबंध बनाना चाहिये.
इस दिन शाम में ‘तालमद्द्ले’ की प्रस्तुति थी, यह यक्षगान की वेशभूषा रहित बैठक शैली में प्रस्तुति थी जिसमें दो पात्र आपस में संवाद कर रहे थे. इस प्रस्तुति में बाली और राम के बीच बालीवध के उपरांत होने वाले संवाद को पेश किया गया. इस संवाद ने रामायण के पाठ की विविधता को सहजता से सामने लाया. दोनो वक्ता राम और बाली के चरित्र की प्रस्तुति के लिये रामायण के विविध पाठों का सहारा ले रहे थे. बाली अनेक तरिके से राम को कठघड़े में खड़ा कर रहा था और राम संयत हो कर उसके तर्कों को निस्तेज कर रहे थे. संवाद के साथ स्थितियों की व्याख्या हो रही थी जिससे समकालीन संदर्भ जुड़ रहे थे. अंग्रेजी भाषा में हो रही प्रस्तुति ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया और इस माध्यम की शक्ति से अवगत कराया.
 अगले दिन के सुबह के शुरुआती सत्र में रोमिला थापर के भेजे हुए आलेख को रोमी खोसला ने पढ़ा. रोमिला थापर ने इस आलेख में शहरों के निर्माण की इतिहास का लेखा जोखा पेश किया था. उन्होंने इस जिग्यासा के साथ पत्र का आरंभ किया था कि क्या शहर हमेशा से थे या उनकी शुरुआत हुई, इसके बाद उन्होंने नदी घाटियों में बसे शहरों उनकी सरंचनाओं, शहर में स्थित विभिन्न निर्मितियों और उनमें होने वाले बदलावों कि एतिहासिकता का जिक्र किया. दूसरे सत्र का विषय था ‘स्पेसेस आफ़ द फ़्युचर’ अध्यक्षता जार्ज जोस कर रहे थे. वक्ता थे रोमी खोसला, सतीश आलेकर और सुंदर सरूकाई. वक्ताओं में फिर दुहराव था. लेकिन इस बार रोमी खोसला ने नयापन कायम रखा, और शहरों में हो रहे बदलाव, निरंतर शहरों पर बढते दबाव से पर्यावरण का असंतुलन, शहरीकरण पर जोर से इकोलाजी में होने वाले प्रभावों से भविष्य में उत्पन्न होने वाले खतरों की तरफ़ ध्यान खींचा. और साथ में एक ऐसे शहर की सरंचना का स्वप्न दिया जिसमें पर्यावरण का ध्यान रखा गया हो. सतीश आलेकर ने कहा कि भविष्य को पहचान कर किया जाने वाला रंगमंचीय विकास कैसा होगा? आज की पीढी राजनीति से प्रेरित पीढ़ी नहीं है. पैसे का बोलबाला है और आसानी से पैसे तक लोगो की पहूंच बढ़ रही है. सिनेमा और टेलीविजन माध्यम इतना हावी हो गया है कि हमारे कल्पना करने के तरिके सिनेमाई हो गये हैं. इसलिये रंगमंच के अभिनेता भी सिनेमा से प्रभावित होने लगे हैं. इसलिये प्रशिक्षण संस्थानों के सामने नई प्रशिक्षण तकनीकों को इजाद करने की चुनौतियां हैं. सुंदर सरूकाई ने अब तक हूई चर्चा से गायब कुछ मूलभूत बातों की चर्चा की और स्पेस की अवधारणा के आधार बिंदुओं को अपने वक्तव्य में शामिल किया. उन्होंने बताया कि रंगमंच व्यक्तिगत नहीं बल्कि समाजिक प्रक्रिया है. बड़ी समस्या है ऐसे लोगों को बड़ी संख्या में तैयार करने की जिनकी कला के प्रति समझ विकसित हो. नीनासम ने इस दिशा में गंभीर प्रयास किया है. स्पेस इस समाज का ही हिस्सा है. भौतिक स्पेस, मानसिक स्पेस, राजनीतिक स्पेस इत्यादि जैसे स्पेस के अनेक प्रकार है. स्पेस का इस्तेमाल रूपकात्मक ढंग से किया जाना चाहिये. भारतीय नाट्यभाषा में स्पेस में प्रवेश करने और उसे निर्मित करने की पद्धति बिलकुल अलग है. सुंदर ने इसके बाद स्पेस की अवधारणा को विस्तार से बताया और जोर दे कर कहा कि अब तक चर्चा ‘प्लेस’ की हो रही थी जहां प्रदर्शन होता है उस ‘स्पेस’ की नहीं जो प्रदर्शन के दौरान निर्मित होता है. वस्तुतः भारतीय परिप्रेक्ष्यमें स्पेस एक आंतरिक प्रक्रिया है जिसमें बाह्य स्पेस उतना महत्त्व नहीं रखता लेकिन पाश्चात्य रंगमंच में बाह्य स्पेस को भी महत्त्व दिया गया है जिसके साथ तालमेल कर अभिनेता स्पेस बनाता है. भारतीय अभिनय में किसी भी प्लेस में कोई भी स्पेस निर्मित कर लिया जाता है.
अमितेश कुमार -आवाज़ एवं रंगविमर्श
के ब्‍लॉगर। पठन - पाठन
में विशेष रूचि के साथ ही
साथ रंगमंच व सिनेमा के सजग
दर्शक सह-युवा समीक्षक.
रंगमंच पर नियमित लेखन.
संपर्क - 
 amitesh0@gmail.com.
उपसंहार सत्र से पहले का एक सत्र खुली चर्चा का सत्र था. इस सत्र को केवल अरोड़ा ने संचालित किया. उन्होंने सेमिनार में अब तक हुई चर्चा पर संक्षेप में अपनी टिप्पणि की और स्पेस की चर्चा में प्लेस की हो रही चर्चा को लोकेशन की चर्चा कहा. उन्होंने कई जिग्यासा भी सामने रखी लेकिन उसके उत्तरदाता सेमिनार में नहीं थे. उन्होंने कहा कि महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि हम इस सेमिनार से क्या ले कर जा रहें हैं महत्त्वपूर्ण यह है कि यहां से जाने के बाद रोमांटीसिज्म कितना कायम रहता है. अपनी टिप्पणि के बाद उन्होंने चर्चा को सभी के लिये खोल दिया और आग्रह किया कि वे बोलें जो अब तक चुप थे. इसका प्रभाव पड़ा और बहुत से लोगों ने अपना मौन तोड़ा. इस सत्र के बाद आईटीएफ़ की योजनाओं और उसके बारे में बात हुई. निष्कर्ष सत्र में वक्ता थे रूस्तम भरूचा और शांता गोखले. अध्यक्षता कर रहे थे अक्षरा केवी सेमिनार के दौरान रुस्तम ने अपने सवालों से कई वक्ताओं को घेरा था.  उन्होंने सेमिनार की पुरी कार्यवाही पर प्रतिक्रिया की और चुक गये मौकों का उल्लेख भी किया. उन्होंने कहा कि स्पेस को जीवंत और प्राणवान होना चाहिये. रंगमंच के बहुत सारे स्पेस पवित्र रहें हैं, इसलिये नहीं कि वह धार्मिक है इसलिये कि वह पवित्रता से आवेशित हैं यह रंगमंच की खासियत है. उन्होंने चिन्ता व्यक्त की जब समाज के सभी प्रतिष्ठानों पर हमला किया जा रहा है तब थियेटर को क्युं बचना चाहिये? फ़िलस्तिन और रामल्ला को तबाह किया जा रहा है तब रंगमंच को ही क्युं बचना चाहिये?  थियेटर मूल रूप से सरक्षित संस्था रही है. और यह संघर्षों को समेटे रहती है. स्पेस की यात्रा अपरिभाषित स्पेस से लेकर वर्णित स्पेस की रही है जिसका उल्लेख नाट्यशास्त्र में भी है. उन्होंने नाट्यशास्त्र के उद्भव की कहानी को बताया कि कैसे हिंसा और द्वंद्व तब भी था और यह कितना रोचक है कि दो विरोधी जातियां सुर और असुर एक साथ रंगमंच देख रहीं हैं जिसमें एक को लांक्षित किया जा रहा है इससे हिंसा हुई और हस्तक्षेप हुआ. इस हस्तक्षेप को रोकने के लिये प्रेक्षागृह का निर्माण हुआ. लेकिन आर्थिक सीमायें विकसित प्रेक्षागृह के मार्ग में बाधा है और अधिक सभ्य होने में भी हिंसा छिपी है, विश्व का उदाहरण हमारे सामने है. भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में दर्शक बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसकी कल्पनाशीलता पर भरोसा किया जाना चाहिये और नाट्य के घटक तत्वों के बीच कोई पदक्रम नहीं है . ऐसे स्पेस का मिलना कठिन है जहां वर्चस्व और हस्तक्षेप नहीं हो. वृहत लोक संस्कृति हमारी असली धन है. अभिनेता को स्मृति चाहिये और स्मृति एक बोझ भी है. शब्द से अर्थ निकालने के लिये शब्द से घात करना ही पड़ता है. पारंपरिक रंगमंच में ग्रामीण कीमत पर शहरी अभिव्यक्तियां हुई. हबीब तनवीर का काम सबसे अलग था जिसमें ग्रामीण अभिनेता काम करते थे. पारंपरिक रंगमंच भी समकालीन हो सकता है. इस शैली में भी आधुनिक बात कही जा सकती है. इसलिये रंगमंचिय अभिव्यक्ति को डाइवर्स बनना होगा. उन्होंने सेमिनार की भाषा को एक ही भाषा अंग्रेजी में रखने की आलोचना की और कहा इस बात के बचाव के लिये कोई तर्क नहीं दिया जा सकता कि इस बहुभाषी देश में आप एक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. बैकेट को उद्धृत करते उन्होंने कहा कि असफ़ल होने का सबसे खराब तरिका है सफ़ल होकर असफ़ल होना. इसलिये तब तक असफ़ल होइये जब तक सफ़ल ना हो जाये. इसलिये असफ़ल होने से ना डरे. उनके बाद शांता गोखले ने दो कहानियों के माध्यम से अपनी बात रखी. अक्षरा ने धन्यवाद ग्यापन के साथ सभा का समापन किया वैसे औपचारिक धन्यवाद ग्यापन संजना कपूर ने किया.
 इस सत्र के साथ ही पांच दिनों का सेमिनार संपन्न हुआ. इन मुख्य सत्रों के अलावा वार्ता सत्र जहां दो वक्ताओं ने आपस में बातचीत की और कुछ ओपेन सेशन भी हुए जो श्रोताओं नें ही आयोजित और संयोजित किये थे. सेमिनार में कुछ व्याख्यान बड़े प्रेरक रहे जैसे कि ज्यां गे लेसेट के और शुक्राचार्य राभा जिन्होंने बताया कि कल्पनाशीलता से स्पेस निर्मित किया जा सकता है. सेमिनार का एक  रोचक हिस्सा वह रहा जो भोजन और चाय के अवकाश सत्र के बीच के खुले संवादों में हुआ. कई टोलियों में बंटकर प्रतिनिधि रंगमंच पर उत्तेजक चर्चा करते थे जो व्यापक था.  नीनासम जैसी जगह पर सेमिनार के आयोजन से रंगमंच के एक बड़े समुदाय की प्रातिनिधिकता नहीं हो पाई तो एक खास तबके की अधिकता भी रही. रंगमंच पर इस आयोजन का महत्त्व है. इसने एक साथ इतने लोगों को रंगमंच पर चर्चा करने के लिये एकत्रित किया.  स्पेस की अवधारणा पर बहस भले ही अधूरी रही लेकिन स्पेस कैसे बनाया जाए यह रास्ता दिखाया. कुछ बातें खटकी जैसे की यक्षगान की समृद्ध परंपरा से किसी को बुलाने की जरूरत क्युं नहीं समझी गई थी और नीनासम के बगल में रह रहे प्रसन्ना जैसे निर्देशक भी इस सेमिनार से बाहर थे.  यह सेमिनार नेटवर्किंग में सक्षम चमकदार व प्रदर्शनी रंगमंच वाले, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वालों का मिलन स्थली अधिक बन कर रह गया. बहरहाल, स्पेस तो कल्पना और प्रेरणा से बनता है जिसे अभिनेता अपने अन्य सहयोगियों की मदद जीवंत करता है अन्यथा उसे प्लेस और लोकेशन में तब्दील होते देर नहीं लगती. 

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