रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

पेंसिल से ब्रश तक - राजेश चन्द्र


प्रस्तुति का एक दृश्य 

एक भारतीय के तौर पर शर्मिंदा होने के लिए इतना कम नहीं कि भारत का एक ख्यात सपूत जिसे दुनिया भारत का पिकासो मानती है, उस मकबूल फिदा हुसैन को अपनी आखिरी सांसें भारत में लेने का अवसर नहीं मिला। यह उनकी आखि़री इच्छा थी। एक हिन्दू के तौर पर तो यह और भी शर्मिंदा होने की बात है कि जिस धर्म की पहचान उसकी सहिष्णुता और सामंजस्य की वजह से थी, उसके कुछ तथाकथित झंडाबरदारों ने हुसैन की चित्रकला पर धर्मविरोधी होने का फतवा जारी किया क्योंकि हुसैन कुछ अलग ढंग से सोचने वाले मुसलमान थे। हिन्दुत्व की संघी शैली कलाकारों और साहित्यकारों को किसी भी किस्म की आजादी देने के पक्ष में नहीं रही है। भारतीय जनता ने मांग रखी थी कि हुसैन का पार्थिव शरीर भारत लाया जाए और उसे दिल्ली की जामा मस्जिद के निकट दफनाया जाए, पर सरकार का कहना था कि ऐसा करना सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक होगा। भारतीय राजनीति के पाखंड और धर्मांधता के आगे आत्मसमर्पण का यह एक विरल उदाहरण है। सरकार ने एक ऐसे कलाकार को जिसे भारत रत्न कहने से ज्यादा गौरवशाली कुछ नहीं हो सकता था, महज पद्मश्री के लायक माना। पर इस कृत्य से भारत के जनमानस में शीर्ष स्थान पर प्रतिष्ठित हुसैन का अपमान किया जाना कभी संभव नहीं होगा जो उसे अपना आत्मीय और श्रेष्ठ चितेरा मानता है।
एम.एफ. हुसैन की जो छवि जनमानस में बसी है उसमें वे एक जिप्सी नजर आते हैं-साफ-शफ्फाक वस्त्रभूषा, लंबी-सी एक पारंपरिक कूंची, जिसे वे एक सोंटे की तरह उपयोग में लाते थे और नंगे पैर चलने की उनकी सनक। उनका मनमौजी और दबंग व्यक्तित्व उनके चित्रों में भी प्रतिबिम्बित होता है। उनकी आश्चर्यजनक प्रसिद्धि के पीछे उन विवादों की भी बड़ी भूमिका रही जो साये की तरह उनके साथ लगे रहे और जिनकी वजह से उन्होंने आत्मनिर्वासन तक की यात्रा की। महाराष्ट्र के पंढरपुर में 17 सितंबर 1915 को जन्मे एम.एफ. हुसैन के वालिद साहब एक एकाउंटेंट थे। हुसैन जब सिर्फ 18 महीने के थे, उनकी मां जुनैब दुनिया से रुखसत हो गईं थीं। उनकी कोई तस्वीर तक मौजूद नहीं थी और जब हुसैन बड़े हुए तो उन्हें मां का चेहरा तक याद नहीं था। यही वजह है कि हुसैन ने उम्र भर जितनी भी स्त्री छवियां गढ़ीं कभी भी उनका चेहरा नहीं उकेरा। एम.एफ. हुसैन की चित्रकला पर यूरोप के आधुनिकतावादियों का प्रभाव स्वीकार किया जाता है। उनके विषय, जो श्रृंखलाओं में अभिव्यक्त होते रहे हैं-उनमें इतनी विविधता पाई जाती है कि आश्चर्य होता है। महात्मा गांधी से लेकर मदर टेरेसा, रामायण, महाभारत, अंग्रेजी राज और भारतीय ग्रामीण तथा शहरी जीवन के चित्रणों से समृद्ध उनकी चित्रकृतियों की संख्या 60,000 से भी अधिक है।
मुम्बई के ख्यात नाट्य दल ‘एकजुट’ द्वारा विगत 13 से 22 अप्रैल के बीच दिल्ली के श्रीराम सेंटर में आयोजित ‘एकजुट नाट्य समारोह’ के अंतर्गत 13 और 14 अप्रैल को वरुण गौतम द्वारा लिखित और नादिरा ज़हीर बब्बर द्वारा निर्देशित नाटक ‘पेंसिल से ब्रश तक’ का मंचन किया गया। फिल्म और टीवी की दुनिया के कई चर्चित अभिनेताओं की उपस्थिति वाले इस नाटक में अत्यंत सुरुचिकर और प्रभावशाली तरीके से चित्रकार एम.एफ. हुसैन के जीवन का प्रस्तुतीकरण किया गया। नाटक हुसैन के उस विलक्षण कला-जीवन को समेटने का एक स्तुत्य प्रयास है, जो एक छोटे से गांव पंढरपुर से शुरू होकर दुनिया की महानतम ऊंचाइयों तक फैला हुआ है। नाटक में हुसैन के जीवन के तीन चरणों को क्रमशः अरुण गोंडारकर (बाल्यकाल), अनूप सोनी (युवावस्था) और टाम आल्टर (उत्तरकाल) जैसे समर्थ अभिनेताओं ने प्रस्तुत किया। इनके अतिरिक्त अन्य सहयोगी भूमिकाओं में जूही बब्बरसोनी और हनीफ पटनी ने भी हुसैन के विविध जीवन प्रसंगों को रूपाचित करने में अहम भूमिका निभाई।
नाटक ‘पेंसिल से ब्रश तक’ हुसैन के पंढरपुर गांव वाले पुश्तैनी घर से प्रारंभ होता है जहां मातृहीन बालक मकबूल अपने बाबा के आत्मीयता और वात्सल्य के गर्माहट भरे संरक्षण में पलते हुए कला और स्वाभिमानी जीवन का प्रारंभिक पाठ पढ़ता है। अपने वालिद की दूसरी शादी और नई मां के आगमन से असहज स्थिति जीते हुए मकबूल के कोमल और एकाकी मन पर तब एक और वज्रपात होता है जब उसके एकमात्र भावनात्मक संबल बाबा भी उसे छोड़ जाते हैं। इस आघात के अवसाद से मकबूल अभी मुक्त भी नहीं होता कि उसके वालिद उसे बोर्डिंग स्कूल भेजने का फैसला सुना देते हैं। इस नाटकीय घटनाक्रम में निर्णायक मोड़ तब उपस्थित होता है जब 19 वर्ष की उम्र में संभावनाओं की एक नई ज़मीन तलाशने मकबूल सपनों के शहर मुंबई चले आते हैं। मुंबई के बीहड़ फुटपाथों पर रात गुज़ारते हुए हुसैन सिनेमा के होर्डिंग बनाने का काम शुरू करते हैं और उनकी गुमनामी के दिन तब समाप्त होते हैं जब वे 1947 में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप में शामिल होते हैं। फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के नेतृत्व में चला यह आंदोलन भारतीय कला जगत में इसलिए एक खास मुकाम रखता है क्योंकि इसने न सिर्फ भारतीय चित्रकला को पारंपरिक और रूढ़ बंगाली शैली से मुक्ति दिलाई बल्कि उसे एक आधुनिक पश्चिमी शैली से अनुप्राणित भी किया। हुसैन ने इसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और 1952 में ज्यूरिख़ की एकल चित्र प्रदर्शनी ने विश्व स्तर पर एक महानतम चित्रकार के तौर पर उनकी विलक्षण यात्रा को नित नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने की पटकथा रच दी।
एम.एफ. हुसैन उन गिने-चुने व्यक्तियों में आते हैं जो आजीवन भारतीय सभ्यता की बहुधार्मिक, समन्वित संस्कृति और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति समर्पित रहे। अपनी हरेक सांस में वे आधुनिकता, प्रगति और सहिष्णुता जीते रहे। उनके निर्वासन का संपूर्ण कथासार हमारी प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था की असफलता को उजागर करता है जिसने उनकी सुरक्षित वतन वापसी को असंभव बना दिया। यह पूरी कथा अभिव्यक्ति की आज़ादी, सृजनात्मकता और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की पराजय-कथा है। यह संघी हिन्दुत्व के उस फासीवादी एजेन्डे की एक ज्वलंत प्रस्तावना है जो प्रजातांत्रिक मूल्यों को कुचल कर एक धर्मांध राष्ट्र के निर्माण के लिए संकल्पित है। प्रस्तुति में हुसैन के जीवन संघर्ष के इस अनिवार्य पक्ष पर जिस तरह की खामोशी है वह स्तब्ध करती है।

राजेश चन्द्र 
राजेश चन्द्र रंगकर्मी, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, अनुवादक एवं पत्रकार | पटना रंगमंच से लंबे समय तक जुडाव | विगत दो दशकों से रंग-आन्दोलनों, कविता, संपादन और पत्रकारिता में सक्रिय | हिंदी की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख तथा समीक्षाएँ प्रकाशित | वर्तमान में दिल्ली में निवास | दैनिक समाचार पत्र "दैनिक भास्कर" के दिल्ली संस्करण के लिए रंगमंच विषय पर नियमित लेखन | उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है |२१ अप्रैल २०१२ को दैनिक भास्कर में प्रकाशित.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें