रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 23 जुलाई 2012

हमारे आदर्श हबीब तनवीर और उत्पल दत्त क्यों नहीं हो सकते ? - परवेज़ अख्तर


पिछले दिनों युवा रंग-समीक्षक Amitesh Kumar ने ये सवाल पटना थियेटर ग्रुप के वाल पर रखा था किपटना में नुक्कड़ नाटकों की सशक्त परंपरा रही है. लगभग सभी रंगकर्मियों ने मंच के साथ-साथ नुक्कड़ के स्पेस की संभावनाओं का दोहन किया और उसमें हस्तक्षेप भी किया. क्या हम पटना के नुक्कड़ रंगमंच के अतीत, वर्तमान और भविष्य के संदर्भ में यहां कुछ वार्ता कर सकते हैं?
उक्त बातों पर जो भी थोड़ी बहुत वार्ता हुई वो यहाँ हम “मंडली” के शुभचिंतकों के लिए इस आशा के साथ प्रकाशित कर रहें हैं कि वो इस बातचीत के भागीदार बने, साथ ही अपनी राय भी रखें | - माडरेटर मंडली |

Parvez Akhtar कुछ मित्रों ने नुक्कड़ नाटक को, जो रंगमंच का एक 'फॉर्म' मात्र है, जन कला का पर्याय समझ लिया है और उसे ही क्रांतिकारी कला विधा मान बैठे हैं | जबकि कोई भी कला अपने 'फॉर्म' की वजह से नहीं, बल्कि 'कथ्य' से जनपक्षीय या जनविरोधी होती है | कविता, संगीत, चित्रकला (या कार्टून) जैसी कला-विधा में समसामयिक घटना या परिस्थिति पर किसी व्यक्ति विशेष की तत्काल प्रतिक्रिया संभव है | लेकिन रंगमंच के परम्परागत 'फॉर्म' में इसकी अभिव्यक्ति तत्काल संभव नहीं हो पाती | 'स्ट्रीट- प्ले' या 'नुक्कड़-नाटक', रंगमंच की तात्कालिक प्रतिक्रिया का सशक्त माध्यम है
व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचने के कारगर (और प्रभावकारी) जन-संचार माध्यम होने के कारण, प्रचार के लिए नुक्कड़-नाटक का खूब इस्तेमाल हुआ है | फिर वह चाहे राजनीतिक अथवा अन्य किसी प्रयोजन से किया गया हो | यह ग़लत भी नहीं है | इसलिए पश्चिम बंगाल में 'इसे पोस्टर-प्ले' भी कहा गया | वैसे यह बात दीगर है कि हर अच्छी कला, अच्छा प्रचार भी है |
यहाँ मैं भारतीय उप-महाद्वीप के महान नाटककार, रंगकर्मी और नाट्यशिल्पी उत्पल दत्त का उल्लेख करना चाहूँगा | रंगमंच के क्षेत्र में उनके अवदान और उनकी नाट्यकला से सभी परिचत हैं | वे हर चुनाव के समय सीपीएम के प्रचार के लिए 'पोस्टर-प्ले' किया करते थे | किन्तु जिस रंगमंच के लिए वे जाने जाते हैं; वह भिन्न था | उनका वह रंगमंच भव्य, सुन्दर और पूरी तरह से 'पेशेवर' था | बल्कि यदि यह कहा जाये कि उन्होंने 'पीपुल्स थियेटर' का नया सौन्दर्य गढ़ा, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी| हमारे आदर्श हबीब तनवीर और उत्पल दत्त क्यों नहीं हो सकते ?
Amitesh Kumar एक कलात्मक रंगमंचीय रूप के तहत नुक्कड़ किसी जड़ स्थान को कैसे उर्जान्वित करता है? जैसे आप नुक्कड़ करने किसी जगह जाते हैं, उस समय? मुझे लगता है कि नुक्कड़ करना ही एक राजनीतिक कदम है..इसमें किसी प्रत्यक्ष संदेश को जोड़ते ही यह नारेबाजी में बदल सकता है..और नारे का प्रभाव अधिक देर तक तो नहीं रहता..
Parvez Akhtar हमने पटना में नुक्कड़ नाटक के मंचन के लिए एक औपचारिक 'थियेटर-स्पेस' का निर्धारण किया था और उस स्थल का नाम ''भिखारी ठाकुर रंगभूमि' रखा था | इसमें अभिनय-स्थल, नेपथ्य, अभिनेता और दर्शक सब व्याख्यायित रहते थे | दर्शक, नाट्यास्वादन के उद्देश्य से रंगभूमि में; तैयार होकर आता था | इस पूरी क़वाएद को नुक्कड़ रंगमंच के व्याकरण या नए सौंदर्यशास्त्र के अन्वेषण के प्रयास के रूप में भी देखा जा सकता है | इस तरह की प्रक्रिया में प्रदर्शन-स्थल को ऊर्जान्वित करने के लिए किसी अतिरिक्त-प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है | नाटक के मंचन के दौरान, नाट्य-दल द्वारा सृजित नाटकीय प्रभाव से जड़-स्थान 'चार्ज' होता जाता है | लेकिन दुभाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि अधिकांश नुक्कड़ नाटक का स्वरुप अनौपचारिक होता है और दर्शकों की भागीदारी भी नितांत आकस्मिक ही होती है | आधी-अधूरी तैयारी और प्रभावहीन अभिमंचन से किसी भी प्रकार की ऊर्जा के सृजन की कल्पना कैसे की जा सकती है ?
Amitesh Kumar लेकिन स्थल निर्धारित कर देने से वह क्या नुक्कड़ रंगमंच रह गया ? या वह प्रदर्शन के लिये एक नये स्थल की खोज और उसमें एक सौन्दर्यशास्त्रीय प्रदर्शन करने की तत्परता मे बदल गया?
Punj Prakash त्वरित प्रतिक्रिया बने बनाये स्पेस से बाहर निकलना नुक्कड़ नाटक की खसियत है | यह एक ऐसी विधा है जिसमें नाटक करनेवाला दर्शक के पास जाता है | इसके दर्शक का अस्थाई होना इसकी खूबी है | इसे फिक्स करना एक तरह से प्रोसेनियम के तरीके को इस विधा पर थोपने जैसा ही कुछ है | ये तब शुरू हुआ जब नुक्कड़ नाटक केवल जन्मदिन-मरणदिन का उत्सव बनके रह गया और दशकों पहले लिखे नाटकों को लगातार नुक्कडों पर मंचित किया जाने लगा | माना कि समाज की मूलभूत समस्याएं आज भी वहीं हैं पर तरीका बदला है | ये बदलाव नुक्कड़ नाटकों के शिल्प और प्रस्तुतिकरण में नहीं दिखता | ज़्यादातर लोग सफ़दर और सरकार से आगे सोचने को तैयार ही नहीं |..... जहाँ तक नुक्कड़ नाटकों के जनकला मान लेने की बात है तो इसके पीछे का एक तर्क ये भी हो सकता है कि भारतीय सन्दर्भ में इस विधा को पूरी सिद्दत से अपनाने वाले लोग दरअसल बामपंथी थे जो अपने को जनता से ज़्यादा जुड़ा हुआ मानतें थे | वो जनता के बीच जाकर नाटक करने में विश्वास करते थे | उन्होंने ही ये बात कहनी (पटना के सन्दर्भ में ) शुरू की नुक्कड़ नाटक जनता का रंगमंच है और सभागारों में किया जा रहा नाटक जनता के पैसे का दुरूपयोग | इस बात में थोड़ी सच्चाई भी है | अब देश गुजरात के दंगे में जल रहा हो और आप "आषाढ़ का एक दिन" दिखा रहें हो तो कोफ़्त तो होगी ही | देखिये, समय बदला है | चीज़ें भी बड़ी तेज़ी से बदलीं हैं | अब कोई भी समाचार चंद मिनटों में पूरी दुनियां में प्रसारित हो जाता है और जबतक लोग उस पर पका-पकाया नाटक खेलने की "हिम्मत" दिखातें हैं तब तक वो हमारे जेहन से वाशआउट हो चुका होता है | आज रंगमंच को भी त्वरित प्रतिक्रिया करने की हिम्मत करनी होगी | केवल इतिहास के पन्ने पलटने से कुछ खास हासिल नहीं होने वाला | समसमियिक विषयों पर रंगमंच के माध्यम से त्वरित और दमदार प्रतिक्रिया दी जा सकती है |दी गई है | खुद भारत में कई ऐसे शानदार नाटक देखने को मिल जातें हैं जो समसामयिक विषयों को लेकर तैयार किया गया है | इतिहास में भी ऐसे नाटक हैं | स्वं पटना में ही कई ऐसी मंच पर परस्तुतियाँ खेली और सराही गई जो एकदम करेंट इशु पर बेस्ड थी | ( मैं यहाँ ये कहना चाहता हूँ कि इतिहास के मार्फ़त वर्तमान की बात करना और वर्तमान से सीधा साक्षात्कार करने में फर्क है |) सिनेमा कई सालों से ये जोखिम उठा रहा तो हम क्यों नहीं ? हम उन खास लोगों को समझाने के लिए कब तक नाटक करतें रहेंगें जो पहले से ही मान कर बैठे हैं की  समाज को सिखाने का भार उनपर हैं समाज से सीखने का नहीं | हम कम्फाटेबल जोन में बैठकर समाज की बात करेगें तो मज़ा नहीं आएगा |
Jitendra Jha Jitu  बेबाक टिपण्णी .
Amitesh Kumar लेकिन क्या समाजिक परिघटनाओं पर हम उस तरह की प्रतिक्रिया रंगमंच के माध्यम से कर सकते हैं ,जैसे ट्विटर या फेसबुक पर करते हैं! ऐसी जल्दीबाजी मे क्या हम कला के साथ न्याय कर पायेंगे और दूसरा रंगमंच का काम उन समस्याओं को दिखाने से अधिक उसके कार्य और कारण संबंध को दिखाने से है..क्या हो रहा है से अधिक क्यों हो रहा है को दिखाने से है..तभी वह एक सामाजिक चेतना दर्शकों को दे पायेगा. अस्थायी दर्शक को प्रस्तुति के दरम्यान रोके रखने की ताकत कहां से आयेगी?
Punj Prakash रंगमंच में मैं भी जल्दवादी का पक्षधर नहीं पर दादा की बात पोते से करना भी उचित नहीं | माना की कुछ कथावस्तु काल और समय से परे होती हैं, पर इस चक्कर में क्या समकालीन परिघटनाओं पर हस्तक्षेप नहीं हो सकता ? आज़ादी के बाद के कितने समकालीन पात्र या घटनाएँ हमारे नाटकों के विषयवस्तु के दायरे में आयें हैं ? एक कमाल का उदाहरण हबीब साहेब के नाटक | वहाँ भले ही हम एक इतिहास से रु रु हो रहें होतें हैं पर उनके पात्रों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि आप एतिहासिक पात्र देख रहें हो| मंच पर अधिकतर बार खेले गए ( जिसे पता नहीं कैसे सफलतम नाटक माना जाता है ) नाटकों के पात्र और घटनाएँ एतिहासिक हैं | वहीं सतीप्रथा, वर्ण या वर्ग नामक संस्था पर आजतक कोई बेहतरीन ( कम से कम हिंदी में ) नाटक नहीं हैं | किसानों की आत्महत्या पर क्या कोई नाटक हैं ? क्या अब तक हमें इनके कार्य और कारण के सम्बन्ध नहीं समझ में आए हैं ? ये सब केवल एक उदाहरण हैं | ज़रा इस ओर भी चिन्तन करने की आवश्यकता है रंगकर्मियों को अपनी "कला" दिखने के लिए कितनी सदियाँ चाहिए ? क्या सच में कोई ऐसे मुद्दों को अपने नाटक का विषय वस्तु भी बनाना चाहता है ? त्वरित प्रतिक्रिया से मेरा तात्पर्य फरमान सुनाने से बिलकुल नहीं था और सच पूछिए तो ये रंगमंच का काम भी नहीं | मेरी चिंता है कि समकालीन विषयों को समझाना और उसे प्रस्तुति का हिस्सा बनाना क्या इतना कठिन हैं ? यदि इसका जबाब हाँ है तो कहना पड़ेगा कि बहुत ही पिछाडा है हमारा रंगमंच | हमें ग्रीक त्रासदी को अपनाने और उसको मंच पर प्रस्तुत करने में कोई समस्या नहीं, उलटे गर्व होता है, अच्छी बात है पर अगर गुजरात त्रासदी पर नाटक खेलना हो तो बहुत सारे किन्तु, परन्तु, लेकिन क्यों लग जाता है ? ये कौन सा डर है जो रंगमंच पर पसरा है  ..... उम्मीद है आप समझ रहें होगें मैं क्या कहना चाह रहा हूँ |
पुनश्च - समाजवादी मृणाल गोरे के देहांत पर फेसबुक पर भी कम जगह है अन्य मिडिया का हाल तो और भी बुरा है, सारी जगह काका ने घेर लिया है भावुकतापूर्ण रोमांस की घुट्टी पिलाकर |
Amitesh Kumar तात्पर्य यह कि रंगमंच ने समाज के बड़े समकालीन प्रश्नों से टकराने की प्रवृति कम है..इसके पीछे क्या रंगमंच की संभावनायें जिम्मेवार हैं..या र्रंगमंच पर पड़ने वाले बाहरी दबाव. क्योंकि इसी रंगमंच पर जब मि. जिन्ना का प्रदर्शन रोका जाता है या हबीब तनवीर पर हमला होता है जमदारिन करने के लिये..तो इन घटनाओं की प्रतिक्रिया रंग समाज कैसे करता है? निर्भिकता की प्रवृति रंगमंच का मुख्य गुण रही है लेकिन रंगकर्मियों की भी?

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