भिखारी ठाकुर बीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक महानायकों में एक थे। उन्होंने अपनी कविताई और खेल तमाशा से बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश की जनता तथा बंगाल और असम के हिन्दीभाषी प्रवासियों की सांस्कृतिक भूख को तृप्त किया। वह हमारी लोक जिजीविषा के निश्छल प्रतीक हैं। कलात्मकता जिस सूक्ष्मता की मांग करती है उसका निर्वाह करते हुए उन्होंने जो भी कहा दिखाया; वह सांच की आंच में तपा हुआ था। उन्होंने अपने गंवई संस्कार, ईश्वर की प्रीति, कुल, पेट का नरक, पुत्र की कामना, यश की लालसा आदि किसी बात पर परदा नहीं डाला। उनके रचे हुए का वाह्यजगत आकर्षक और सुगम है ताकि हर कोई प्रवेश कर सके। किंतु प्रवेश के बाद निकलना बहुत कठिन है। अंतर्जगत में धूल-धक्कड़ भरी आंधी है; और है – दहला देनेवाला आर्तनाद, टीसनेवाला करुण विलाप, छील देनेवाला व्यंग्य तथा गहन संकटकाल में मर्म को सहलानेवाला नेह-छोह। उनकी निश्छलता में शक्ति और सतर्कता दोनों विन्यस्त हैं। वह अपने को दीन-हीन कहते रहे पर अपने शब्दों और नाट्य की भंगिमाओं से ज़ख़्मों को चीरते रहे। मानवीय प्रपंचों के बीच राह बनाते हुए आगे निकल जाना और उन प्रपंचों की बखिया उधेड़ना उनकी अदा थी। तनी हुई रस्सी पर एक कुशल नट की तरह चलने की तरह था यह काम। उनके माथे पर थी लोक की भाव-संपदा की गठरी और ढोल-नगाड़ों की आवाज़ की जगह कानों में गूंजती थी धरती से उठती हा-हा ध्वनियां। यह अद्भुत संतुलन था। इसी संतुलन से उन्होंने अपने लिए रचनात्मक अनुशासन अर्जित किया और सामंती समाज की तमाम धारणाओं को पराजित करते हुए संस्कृति की दुनिया के महानायक बने।
भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, विधवा-विलाप, कलयुग-प्रेम, राधेश्याम बहार, गंगा-स्नान, पुत्र-वध, गबरघिचोर, बिरहा-बहार, नकलभांड के नेटुआ, और ननद-भउजाई आदि नाटकों की रचना की। भजन-कीर्तन और गीत-कविता आदि की लगभग इतनी ही पुस्तकें प्रकाशित हुईं। लोक प्रचलित धुनों में रचे गये गीतों और मर्मस्पर्शी कथानक वाले नाटक बिदेसिया ने भोजपुरीभाषी जनजीवन की चिंताओं को अभिव्यक्ति दी। जीविका की तलाश में दूरस्थ नगरों की ओर गये लोगों की गांव में छूट गयी स्त्रियों की विविध छवियों को उन्होंने रंगछवियों में रूपांतरित किया। अपनी लोकोपयोगिता के चलते बिदेसिया भिखारी ठाकुर के समूचे सृजन का पर्याय बन गया। बेटी-वियोग में स्त्री-पीड़ा का एक और रूप सामने था। पशु की तरह किसी भी खूंटे से बांध दिये जाने का दुख और वस्तु की तरह बेच कर धन-संग्रह के लालच की निकृष्टता को उन्होंने अपने इस नाटक का कथ्य बनाया और ऐसी रंगभाषा रची जिसकी अर्थदीप्ति से गह्वरों में छिपीं नृशंसताएं उजागर हो उठीं। यह अतिशयोक्ति नहीं है और जनश्रुतियों में दर्ज है कि बेटी-वियोग के प्रदर्शन से भोजपुरीभाषी जीवन में भूचाल आ गया था। भिखारी ठाकुर को विरोध का सामना करना पड़ा। पर यह विरोध सांच की आंच के सामने टिक न सका। उनकी आवाज़ और अपेक्षाकृत टांसदार हो उठी। इतनी टांसदार कि आज़ादी के बाद भी स्त्री-पीड़ा का नाद बन हिंदी कविता तक पहुंची। बेटी-वियोग का नाम उन दिनों ही गुम हो गया और जनता ने इसे नया नाम दिया – बेटी-बेचवा। गबरघिचोर नाटक में भिखारी ठाकुर विस्मित करते हैं। उनकी पृष्ठभूमि ऐसी नहीं थी कि उन्होंने खड़िया का घेरा पढ़ा या देखा हो। कोख पर स्त्री के अधिकार के बुनियादी प्रश्न को वह जिस कौशल के साथ रचते हैं, वह लोकजीवन के गहरे यथार्थ में धंसे बिना सम्भव नहीं।
भिखारी ठाकुर पर यह आरोप लगता रहा कि वह स्वतंत्रता संग्राम के उथल-पुथल भरे समय में निरपेक्ष होकर नाचते-गाते रहे। यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच भिखारी ठाकुर के नाच का आज़ादी से कोई रिश्ता था। उनके नाच का आज़ादी से बड़ा सघन रिश्ता था। अंग्रेज़ों से देश की मुक्ति के कोलाहल के बीच उनका नाच आधी आबादी के मुक्ति-संघर्ष की ज़मीन रच रहा था। भिखारी ठाकुर की आवाज़ अधरतिया की आवाज़ थी। अंधेरे में रोती-कलपती और छाती पर मुक्के मारकर विलाप करती स्त्रियों का आवाज़। यह आवाज़ आज भी भटक रही है। राष्ट्रगान से टकरा रही है। (आलोचना पत्रिका में पूर्व प्रकाशित लेख का संपादित अंश)
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