प्रख्यात निर्देशक प्रसन्ना उन चन्द निर्देशकों में से है जिन्होंने महानगरों की चमक से दूर अपनी कला को अपने समुदाय औरग्रामीण अंचल में निखारा है. रंगमंच के लिये सार्वजनिक मंचो सेनिरंतर आवाज उठाने वाले सबसे मुखर निर्देशक प्रसन्ना एक छोटे सेगांव हेग्गुडु (कर्नाटक) में औरतों के साथ एक चरखा केंद्र चलाते हैं.यह एक सहयोगी संगठन है और ग्राम रोजगार का एक अनुठा माडलहै. देश भर में नाटक करने के साथ वे चरखा केंद्र के कार्यकर्ताओं केसाथ भी नाटक करते हैं. रा.ना.वि. के स्नातक प्रसन्ना कन्नड भाषा केनाटककार और कवि भी हैं.
तुगलक, लाल घास पर नीले घोड़े, आचार्यतारतुफ़, उत्तररामचरित, सीमापार इत्यादि इनके द्वारा निर्देशितप्रमुख प्रस्तुतियां हैं. हेग्गुडु यात्रा के क्रम में इनके निवास पर, जोअमटेकोप्पा गांव में है, मुलाकात हुई. रंगमंच और जीवन दोनों मेंसादगी बरतने और जीने में यकीन रखने वाले प्रसन्ना से हुए वार्ता कायह अंश जो ‘स्पेस’ से संबंधित है. यह आलेख नटरंग में प्रकाशित है . अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में हालिये दिये गये उनके व्याख्यान को सुनने के बाद इस लेख की याद आई. मंडली के पाठकों के लिए यह आलेख अमितेश कुमार के ब्लॉग रंगविमर्श से साभार.
1.
आजकल स्पेस के बहुत से प्रयोग हो रहें हैं. लेकिन किस संबंध पर हो रहे हैं. ये जो प्रयोग है वह बाकी स्पेस को अधिक महत्वदेते जा रहा है. उस वज़ह से अभिनेता छोटा होता जा रहा है. अभिनेता छोटा होता जाता है, उसका इमेज जो वीडियो से पकड़कर फ़ेंका जा रहा है वह इतना बड़ा हो जाता है. तो वस्तुतः यह बहुत निर्णायक है भारतीय रंगमंच के लिये और यह अभिनेताको अपने में समाहित करता चला जा रहा है. भारतीय रंगमंच में और कहीं के रंगमंच में यह अभिनेता होता है जो महत्त्वपूर्णहोता है, सेट नहीं, स्पेस नहीं. अगर स्पेस रखना है तो वह चरित्र के भीतर होना चाहिये चरित्र के बाहर नहीं. तो मैं इन प्रयोगो सेबिलकुल सहमत नहीं हूं. फिलहाल.
2.
मैं भी अपनापन ढुंढ रहा हूं. मैं भी भारतीयता को खोज रहा हूं. उदाहरण के लिये स्पेस की जो बात चल रही है उसमें मैं स्पेस कोइतना सरल कर रहा हूं क्योंकि मुझे मालुम है कि अगर बहुत सादा नहीं करुंगा तो वह नाटक हेग्गुडु में या बिहार के किसी छोटेसे गांव में हो ही नहीं सकता. इसलिये स्पेस का लचीलापन सौंदर्यपरक और सामाजिक समस्या दोनों है. भारतीय रंगमंचलचीला क्यों है क्योंकि भारत में दर्शक हर जगह है. हम विश्व के सघन जनसंख्या वाला देश हैं. और जनसंख्या की सघनता केकारण और रंगमंच की अत्यधिक लोकप्रियता के कारण आप जहां भी जाइये आपको चार हजार पांच हजार लोग मिल जाते हैं.नाटक देखने के लिये. आप सिर्फ़ कमानी में बैठ कर नाटक करते जाओ तो कमानी में वहीं घिसे पिटे लोग आयेंगे और वह भीबहुत बोर हो जायेंगे वो भी कितना नाटक देख सकते हैं आप एक छोटे से गांव में जा कर क्यों नहीं करते जहां चार हजार लोगआपके नाटक को देखेंगे बहुत रूचि के साथ. मेरे बहुत से काम का उद्देश्य इन लोगो तक पहूंचना है. यह एक बात है और दूसरीबात यह है कि मैं यह समझना चाहता हूं कि समकालीन अभिनय में अभिनय की भारतीय शैली क्या है? भारतीय अभिनयशैली को हम केवल नाटयशास्त्र के हिसाब से देखना चाहते हैं. नहीं. आज के नट में भी ,आज के अभिनेता में भी भारतीयता है.आज का ठेठ भारतीय समकालीन अभिनेता युरोप के ठेठ समकालीन अभिनेता से भिन्न है. तो यह भिन्नता क्या है? वह क्योंअलग है? वह कैसे अलग है? वह कैसे अपने अंगो को अधिक लचिलेपन के साथ गति देता है, वह कैसे अधिक लचिलेपन केसाथ गा लेता है? तो बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिनके साथ मैं प्रयोग करने की कोशिश कर रहा हूं. मेरा विचार यह है कि मैं ऐसाभारतीय रंगमंच विकसित करना चाहता हूं जो ना केवल कालिदास और भास को बल्कि वह समान आसानी और समानभारतीयता के साथ समकालीन नाटको को भी कर सके.
मैं चिंतनशील अभिनेता, प्रग्यावान अभिनेता जैसी श्रेणियों में विश्वास ही नहीं करता. सभी अभिनेता प्रग्यावान होते हैं औरउन्हें चिंतनशील और तेज बनाने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है. अभिनेता की बौद्धिकता एक बुद्धिजीवि की बौद्धिकता कीतरह नहीं होती है अभिनेता की बुद्धिमता उसकी वह क्षमता है जिससे वह दूसरे अभिनेता के साथ संवाद करता है, अपने विचारव्यक्त करता है, उनके विचारों का साझा करता है, जहां से यह आता है. उदाहरण के लिये जैसे मैं अपने चरखा की औरतों केसाथ का काम कर रहा हूं. पिछले साल मैंने उनके साथ एक प्रस्तुति की थी. एक मात्र अंतर यह था कि मुझे उनके साथ अधिकसमय लगना पड़ा क्योंकि वह पुरे तरह से अप्रशिक्षित अभिनेता थे लेकिन अंत में यह बेहद ताजा कर देने वाला अनुभव रहा.
3.
भुमंडलीकरण, तकनीक, इत्यादि चीजों से बहुत परेशान था तब मैंने मैं अनुभव किया कि मैं अपने आप को दुखी कर रहा हूं. तोमैंने इन चीजों को अलविदा कहा और सोचा कि मैं वहीं करूंगा जो मैं करना चाहता हूं. मसलन मैंने रहने के उस तरिके को चुनाजो मेरे हिसाब से रहने का सबसे सही तरिका था. मैंने उन बहुत सारी जगहों पर अभिनेताओं के प्रशिक्षण कार्यक्रम का संचालन किया है जो जगह मैंने चुनी. छोटे शहरों में. उन लोगों के बीच जिनकी इसमें रूचि थी बजाय की नये केन्द्र स्थापितकरने के. और मैं इसमें खुश हुं. हाल ही में मैं भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ में एक कार्यशाला करके आया हूं. यह बहुत हीमजेदार अनुभव था. जैसे कर्नाटक में मैं छोटे शहरों में जाता हूं और अभिनेताओं के साथ काम करता हूं. और मैं खुश है यह बहुत ही जरूरी है. तो वैश्वीकरण से सर लड़ाने की बजाय, क्योंकि वैश्वीकरण कल जाने वाला नहीं है, लेकिन मैं तो कल चलाजाऊंगा, मेरे पास बस आज है, और मैं अपने आज को थोड़ा उपयोगी ढंग से और प्रसन्नतापुर्वक उपयोग करना चाहता हूं. तोमैंने सोचा की जीने का बेहतर तरिका है कि सकारात्मक सोच के साथ रहिये बजाय इसके कि नकारात्मक सोच के. तो नाटक करना चाहते हो तो बहुत छोटा भी हो तो कर लो, नहीं कर पाओगे तो छोड़ दो कुछ और कर लो. मसलन चरखा के साथ जोकाम हो रहा है, बहुत छोटे पैमाने पर हमने इसे सफ़लतापूर्वक बनाया है और खुशी से, बिना किसी विदेशी या फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन केफ़ंड के. वहां पर कुछ औरते काम करती हैं और अपना काम करके पैसा कमाते हैं और लाभ लेते हैं. उस पैसे से ही हम थोड़ाबहुत कुछ कर लेते है तो हम खुश हैं. मैं नहीं सोचता कि आप इसके परे जा सकते हैं.
सत्तर के दशक में हम रंगमंच में क्रांति करना बहुत जरूरी समझते थे. हम क्रांतिकारी रंगमंच की तरफ़ गये. आज, रंगमंचकरना ही क्रांतिकारी कदम है. जो भी नाटक करिये उसमें विचार और अनुभव सब आ जाता है. उत्तररामचरित में भी वह घुसकर आ जाता है. तो आज रंगमंच करना जरूरी हो गया है. इसका मतलब यह है कि अपनी मातृभाषा में रंगमंच करना जरूरीहै, अपने समुदाय में रंगमंच करना जरूरी है, और अपने समुदाय से संबंध स्थापित करना जरूरी हो गया है. आप अगर ऐसाकरें तो आप का रंगमंच क्रांतिकारी हो जायेगा तब आपको इसमें क्रांतिकारीता डालने की जरूरत नहीं रहेगी. उसी क्षण जबआप तय करते हैं कि आप बिहार के किसी छोटे से कोने में एक हिन्दी नाटक करेंगे, आप चुनौती ले चुके होते हैं.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें