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वैसे दोनों टोलों के नाटक मंडलियों के बीच विवाद का इतिहास था जिसको समय समय पर अपने वर्चस्व के लिये कुछ नेता और गांव की भाषा में जिसे कुचड़ा टाईप लोग कहते हैं हवा देते रहते थे. अगर आप की दिलचस्पी है तो टोले के बीच इस विवाद का इतिहास मैं आपको बता सकता हूं. आप अभी तो समझ गये हैं कि कई टोलों के बावजूद गांव मुख्यतः दो टोलों के बीच बंटा हुआ है. गांव में पहले नाटक दोनों टोले के बीचो बीच हुआ करता था, जब वकील बाबा उर्फ़ जयनाथ मिश्र नाटक दल के मुखिया हुआ करते थे. गिरधारी राऊत का घर के आगे, जो गांव के ठीक बीचो बीच था, बहुत बड़ा दलान था. अच्छी खासी जगह थी. बेटों से पोतों के बीच बंटते बंटते अब उस जगह पर इतने घर बन गये है कि जगह सिमटा हुआ दिखाई देता है. लेकिन जमीन देख कर अंदाजा हो जोता है कि नाटकों के लिये कितनी अच्छी जगह रही होगी. वकील बाबा, शायद ओकिल बाबा उच्चारण ठीक होगा, हमारे गांव के आदि नटकिया हैं. उनके बारे में लिखा जाए तो अलग से एक अध्याय लिखना पड़ेगा. मुख्तसर सा परिचय ये है कि पेशे से प्राध्यापक, छोटी कद के हाजिरजवाब, स्फ़ूर्ति से भरे और पंच लाईन के व्यंग्यों के उस्ताद ओकील बाबा गांव में नाटक शुरू करने वाले आरंभिक लोगों में से एक थे. उनकी सक्रियता नाटक को लेकर आज भी बनी रहती है. उनका कहना है कि नचनिया जब नगाड़ा के ताल सुन ली त बैछौने पर काहे ना लेकिन चुतड़ डोलइबे करी. नचनिया से मतलब अभिनेता से ही रहता है. ओकील बाबा के बाद मेरे पिताजी यानी प्रोफ़ेसर साहब के नेतृत्व में नाटक होने लगा तो उन्होंने कभी कभी जगह का बदलाव भी कर दिया जैसे कि हमारे दरवाजे पर ‘जय परशुराम’ हुआ था। जिसमें परशुराम की भूमिका निभाने वाले ने इतनी शिद्दत से अभिनय किया कि आज भी लोग याद करते हैं कि ‘गोविंद जी पशुराम बनलें तो खड़ाऊं के थाप से चौकी तुड़ देले..हां त गज़ब नु रोल कईलक. यारवा!’ . मेरे पिताजी के बाद कमान अमरचंद्र मिश्र ने संभाली तो नाटक को वो अपने टोले में ले गये और अनिल काका के दरवाजे पर, जो गांव के स्कूल के पास है, नाटक होने लगा. उस टोले की टीम भी तभी दो फाड़ हुई जब भूमिका नहीं मिलने की वज़ह से एक रंगकर्मी ने दल तोड़ के कुछ लोगों को तोड़कर और कुछ नये लोगों जिन्हें मौका नहीं मिलता था को जोड़कर अपना दल बना के नाटक खेला. विवाद की तीव्रता और प्रतिद्वंदिता इतनी गहरी हो गई थी कि एक ही नाटक ‘गुनाहों का देवता’ को दोनों दलों ने एक दिन के अंतराल पर खेल दिया। लेकिन अंततः दोनों दल बिखर गया। इसका कारण यह था कि नायिका की भूमिका करने वालों का अभाव हो गया और जो भूमिका करते थे वो इस लायक नहीं रहे कि नायिका बनते। नायिका बनने के संकट का आलम यह था कि एक दफ़ा नाटक की पूर्व संध्या ही नायिका की भूमिका करने वाला अभिनेता फ़रार हो गया तो उसके जगह मुश्किल से किसी को तैयार किया गया। नायिका के विकल्प के तौर पर एक साल बिना नायिका की भूमिका वाला नाटक भी हुआ ‘अरावली का शेर’। इसके बाद नाट्य मंचन की निरंतरता टूटी जिसको फिर बहाल किया हमारे टोले के प्रेम यादव, और जादुगर जाहिर जैसे लोगों ने। अपने प्रयासों से प्रेम ने अपने दरवाजे पर ‘कच्चे धागे’ खेला। ज़ाहिर के प्रयास से ‘जंगल का दादा’ हुआ। ये सिलसिला भी इन्हीं दो नाटकों तक कायम रहा। कुछ वर्षो के अंतराल के बाद त्रिविक्रम झा ने दो तीन साल अपनी सक्रियता से नाटक निर्देशित किया लेकिन उसमें भी निरंतर नहीं रही।
वैसे दोनों टोलों के नाटक मंडलियों के बीच विवाद का इतिहास था जिसको समय समय पर अपने वर्चस्व के लिये कुछ नेता और गांव की भाषा में जिसे कुचड़ा टाईप लोग कहते हैं हवा देते रहते थे. अगर आप की दिलचस्पी है तो टोले के बीच इस विवाद का इतिहास मैं आपको बता सकता हूं. आप अभी तो समझ गये हैं कि कई टोलों के बावजूद गांव मुख्यतः दो टोलों के बीच बंटा हुआ है. गांव में पहले नाटक दोनों टोले के बीचो बीच हुआ करता था, जब वकील बाबा उर्फ़ जयनाथ मिश्र नाटक दल के मुखिया हुआ करते थे. गिरधारी राऊत का घर के आगे, जो गांव के ठीक बीचो बीच था, बहुत बड़ा दलान था. अच्छी खासी जगह थी. बेटों से पोतों के बीच बंटते बंटते अब उस जगह पर इतने घर बन गये है कि जगह सिमटा हुआ दिखाई देता है. लेकिन जमीन देख कर अंदाजा हो जोता है कि नाटकों के लिये कितनी अच्छी जगह रही होगी. वकील बाबा, शायद ओकिल बाबा उच्चारण ठीक होगा, हमारे गांव के आदि नटकिया हैं. उनके बारे में लिखा जाए तो अलग से एक अध्याय लिखना पड़ेगा. मुख्तसर सा परिचय ये है कि पेशे से प्राध्यापक, छोटी कद के हाजिरजवाब, स्फ़ूर्ति से भरे और पंच लाईन के व्यंग्यों के उस्ताद ओकील बाबा गांव में नाटक शुरू करने वाले आरंभिक लोगों में से एक थे. उनकी सक्रियता नाटक को लेकर आज भी बनी रहती है. उनका कहना है कि नचनिया जब नगाड़ा के ताल सुन ली त बैछौने पर काहे ना लेकिन चुतड़ डोलइबे करी. नचनिया से मतलब अभिनेता से ही रहता है. ओकील बाबा के बाद मेरे पिताजी यानी प्रोफ़ेसर साहब के नेतृत्व में नाटक होने लगा तो उन्होंने कभी कभी जगह का बदलाव भी कर दिया जैसे कि हमारे दरवाजे पर ‘जय परशुराम’ हुआ था। जिसमें परशुराम की भूमिका निभाने वाले ने इतनी शिद्दत से अभिनय किया कि आज भी लोग याद करते हैं कि ‘गोविंद जी पशुराम बनलें तो खड़ाऊं के थाप से चौकी तुड़ देले..हां त गज़ब नु रोल कईलक. यारवा!’ . मेरे पिताजी के बाद कमान अमरचंद्र मिश्र ने संभाली तो नाटक को वो अपने टोले में ले गये और अनिल काका के दरवाजे पर, जो गांव के स्कूल के पास है, नाटक होने लगा. उस टोले की टीम भी तभी दो फाड़ हुई जब भूमिका नहीं मिलने की वज़ह से एक रंगकर्मी ने दल तोड़ के कुछ लोगों को तोड़कर और कुछ नये लोगों जिन्हें मौका नहीं मिलता था को जोड़कर अपना दल बना के नाटक खेला. विवाद की तीव्रता और प्रतिद्वंदिता इतनी गहरी हो गई थी कि एक ही नाटक ‘गुनाहों का देवता’ को दोनों दलों ने एक दिन के अंतराल पर खेल दिया। लेकिन अंततः दोनों दल बिखर गया। इसका कारण यह था कि नायिका की भूमिका करने वालों का अभाव हो गया और जो भूमिका करते थे वो इस लायक नहीं रहे कि नायिका बनते। नायिका बनने के संकट का आलम यह था कि एक दफ़ा नाटक की पूर्व संध्या ही नायिका की भूमिका करने वाला अभिनेता फ़रार हो गया तो उसके जगह मुश्किल से किसी को तैयार किया गया। नायिका के विकल्प के तौर पर एक साल बिना नायिका की भूमिका वाला नाटक भी हुआ ‘अरावली का शेर’। इसके बाद नाट्य मंचन की निरंतरता टूटी जिसको फिर बहाल किया हमारे टोले के प्रेम यादव, और जादुगर जाहिर जैसे लोगों ने। अपने प्रयासों से प्रेम ने अपने दरवाजे पर ‘कच्चे धागे’ खेला। ज़ाहिर के प्रयास से ‘जंगल का दादा’ हुआ। ये सिलसिला भी इन्हीं दो नाटकों तक कायम रहा। कुछ वर्षो के अंतराल के बाद त्रिविक्रम झा ने दो तीन साल अपनी सक्रियता से नाटक निर्देशित किया लेकिन उसमें भी निरंतर नहीं रही।
निरंतरता के अभाव में नाटक मंडलियों के पास सामग्री का अभाव हो गया। और नाटक मंडलियां केवल गांव में नहीं बिखर रही थी अगल बगल के
जिन गांवों में नाटक होता था, जहां से नाटक के लिये सामग्री
आती थी वहां भी खस्ताहाल हो रहा था। बिहार में यही दौर था जब बेरोजगारी की समस्या विकराल
रूप में थी और बड़ी संख्या में आबादी पलायन करने को मजबूर हो गई। गांव में इन सांस्कृतिक
कार्यक्रमों के संचालन का जिम्मा जिन युवकों का था वो रोजगार कि तलाश में लग गये। सरकारी
नौकरी दुर्लभ हो गई जो बहुत परिश्रम से मिलती थी और जिसमें अभिभावक के धन का निवेश
भी चाहिये था. जिनके पास यह नहीं था वह निजी नौकरियों की खोज में निकल गये।
ऐसे में नाटक का बंद होना ही था।फिर नाटक तब शुरू हुआ जब कुछ युवकों का जुटान हुआ।
एक उम्र के लोग मिले और नाटक हुआ। कुछ वर्षों के अंतराल पर नाटक हुआ ‘प्रतिशोध’। मंडली का नाम रखा गया ‘नवरंग नवयुवक नाट्य परिषद’। अब इतने सारे युवकों का अटान
एक ही मंडली में था नहीं इसलिये कुछ युवक निकल कर दूसरा दल गठित कर लिया। पहले वाले
दल में सवर्ण युवकों का वर्चस्व था तो दूसरे दल में पिछड़ी जाति के युवकों का। एक ही
टोले में जातिगत आधार पर दो दल हो गया। तल्खियाम इतनी बढ़ी कि दोनों दल अपने नाटक को
दूसरे से बेहतर बनाने के लिये प्रयासरत रहने लगे। पिछड़ी जातियों के वर्चस्व वाले दल
का बौद्धिक नेतृत्व भी वैसे एक सवर्ण के हाथ में ही था।
नाटक करने के लिये मुख्य समस्या होता है धन। गांव में नाटक करने का मतलब होता है
एक दिन के लिये कुंआं खोदना, पानी पीना-पिलाना और
भर देना। मंच, प्रकाश, मेक-अप, साऊंड, नाच सबके लिये पैसा चाहिये। पैसे का मुख्य स्रोत था ग्रामीणों
से लिया जाने वाला चंदा। सवर्ण युवक कुछ अच्छे घरों से थे इसलिये उनके अपने पास से
भी अच्छा योगदान करते थे। गांव में चंदा देने वाले मुख्यतः सवर्ण है इसलिये निःसंदेह
सवर्ण दल को चंदा अधिक मिलता था। पिछड़ी जाति के युवकों के पास समस्या थी कि उनके अभिभावक
इस नाच नौटंकी को फालतू समझते थे और लगता था कि खेत में या दरवाजे पर गाय अगोरने की
जगह नाटक करना एकदम बेकार है। इसलिये अभिभावकों से पैसे की उम्मीद नहीं थी। उनके अपने
पास पैसा कहां से आता, रोजगार था नहीं और घर में से कुछ निकालना कड़ी निगरानी में संभव
नहीं था। इन जातियों में पैसे वाले लोग भी इन्हें चंदा देने को तैयार नहीं थे। आमतौर
पर ये व्यवसायी थे और गांव के किसी भी सार्वजनिक काम में इनकी जेब से पैसा निकलाना
टेढ़ी खीर था। इनके भी चंदा का स्रोत भी लगभग वही था जो पहले दल का था। दर असल गांव
में कुछ लोग थे जिसमें से अधिकतर भूतपूर्व नटकिये थे। इन्हें चिह्नित कर लिया गया था. दोनों दल चंदे के लिये इन्हीं के पास जाते थे। और गांव के दुकानदारों से चंदा ले
लिया जाता था। मंहगाई नहीं थी और तामझाम भी नहीं रखना था तो कम पैसे में हो जाता था।
नाच अगल बगल के गांव में मौजूद था जो सस्ते में आ जाता था। नाटक घींच घांच के हो जाता
था। लेकिन दिक्कत तब होने लगी जब कुछ युवकों ने चंदे के पैसे में से खाना शुरू कर दिया।
यह बीमार पहले वाले दल को अधिक लगी थी। साइकिल की जगह मोटर साइकिल से चलने लगे। नाटक
के काम से जाने पर पेट्रोल का पैसा दल के चंदे में से लिया जाने लगा। चंदे के पैसे
से ही भूजा और ताश , मीट-भात का भोज होने लगा। खामियाजा
उसको भुगतना पड़ा जिसके नाम से साटा था।
हुआ युं कि नाचा का साटा बहुत ही रिस्क वाला काम होता था एक जमाने में. जिस के नाम से साटा होता था भुगतान नहीं होने कि स्थिति में नाच दल उसके दरवाजे
पर जूट जाती वहीं खाना भी खाती और पैसा लेकर ही घर जाती थी। पंचायत बुलाने की भी नौबत
आ जाती थी। यहीं हुआ, पैसे की कमी हो गी नाच दल दरवाजे पर बैठ गई और दल के नेता को
पैसा घर से देना पड़ा। गांव में फ़ज़ीहत और पिता जी की फटकार मुफ़्त में मिली. पता नहीं तीसरी खाई या चौथी लेकिन कसम खाई कि आज के बाद नाटक नहीं करेंगे। अगले
साल पैसे और नायक का विवाद हुआ मंडली बिखर गई । दूसरी मंडली की भी हालत यहीं थी. उसमें पैसा खाने वाले लोग नहीं थे तो पैसा मिलाने वाले भी लोग नहीं थे. तुर्रा यह कि उस दल में एक निर्देशक नाम का शख्सियत भी था, जो दो रूपये की मदद नहीं करता था और खर्चा दुनिया भर का करवाता था. नतीजतन वहां भी दल के नेता को जब अपने घर से देना पड़ा उसने भी तौबा कर लिया। दोनों
दल ने एक साथ नाटक करना बंद कर दिया.
हमारे टोले में नाटक को जबरदस्त सफ़लता मिली थी. जबकि इस दल में से दो चार को छोड़कर सभी पहलौंठे नटकिया थे. दूसरे टोले के लड़कों को फिर जोश आया और उन्होंने नाटक ठाना. जिस टोले में तल्खी में दो दल बंटा गया था और जिनमें मेल की संभावना एकदम नहीं
थी, अब मिल गये थे. इससे उन दोनों ही दलों के कुछ
पुराने लोग अलग हो गये और उनकी सहानुभूति हमारे तरफ़ हो गई। विवाद फिर गहरा गया। अबकि
यह दो टोलों में था. विवाद का कारण यह था कि गांव में छठ के अवसर पर नाटक होता रहा
है और नहाय खाय के दिन को सबसे मुफ़िद माना जाता है. खरना करके पवित्र हुई औरतों केलिये फुर्सत का दिन पारण के रोज ही आता है. ये नाटक की मुख्य दर्शक होती हैं. पारण के दिन अधिकांश लोग गांव
स एचले जाते हैं इसलिये नहाय खाय के दिन नाटक होता है, नहाय खाय के दिन नाटक खेलने के लिये विवाद हो गया. हमने घोषित किया कि हमरा नाटक पहले तय हुआ है और हमने नाच बाजा सब उसी दिन का बांधा
है इसलिये हम पीछे नहीं हटेंगे. दूसरे दल ने शुरुआती जिद के
बाद एक दिन पहले नाटक खेल दिया. इसमें भी उनका तर्क यह था कि
जिसका नाटक पहले होगा वह सफल होगा, दो रात जाग के लोग नाटक देख
नहीं सकते इसलिये दूसरा नाटक फ्लाप होगा. संयोग से हमारा नाटक उनके नाटक
पर बीस पड़ा. विवाद ने रंग पकड़ा छठ घाट पर मार-पीट की नौबत
आ गई. हमारे नाटक की सफ़लता का श्रेय दृश्य के बीच में नाचने वाली लड़की
को दे दिया गया. सिलसिला शुरू हो गया था. हर साल नहाय खाय के दिन के
लिये विवाद होता था. ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक होने देने के लिये हमारे
टोले के बुजुर्ग उस टोले के लोगों को मनाने गये. समझौत इस बात पर हुआ कि अगले साल नहाय खाय का दिन उनका होगा. गांव का मुखिया अपने वोट को नहीं खोना चाहता था, और इस मनावन दल में वह था. उसके वादे की वज़ह से भी हमने
अगले साल नाटक नहीं खेला. इस साल ‘भीष्म प्रतिग्या’ होते होते रह गई. दूसरे टोले का नाटक बुरी तरह फेल हुआ. गांव की बदनामी हुई. ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ के मंचन से हमारे दल ने जो प्रतिष्ठा कमाई थी वह धूमिल हो गई. गांव के लोगो को यह बात अखर गई. उस दल में फिर, पैसा, नायक और नायिका की भूमिका को लेकर आपसी विवाद हो गया. अगले साल से उसने नाटक खेलना बंद कर दिया इसका एक और कारण था कि उस दल के नेता
को अब चुनाव लड़ना था और वह कोई विवाद कर अपना वोट नहीं खोना चाहता था. ‘नहाय खाय’ का दिन पूरी तरह हमारा हो चुका था. अगले साल फिर भव्य तरीके से ‘कर्ण’ की प्रस्तुति हुई.
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