अमितेश कुमार का यह आलेख उनके ब्लॉग रंगविमर्श से साभार. अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
इस बार भारंगम में ऐसी प्रस्तुतियां अच्छी संख्या में है जिनमें स्त्री की सामाजिक स्थिति को विश्लेषित किया गया है और अपनी सम्मानपूर्ण स्थिति को पुख्ता करने के लिये उनके द्वारा किये गये प्रयासों से पितृसत्तात्मक समाज में हलचल मची है और इसका प्रभाव स्त्रियों की ही झेलना पड़ा है इसको रेखांकित किया गया है. भारंगम के छठे दिन दो ऐसी प्रस्तुतियां हुई जिनमें स्त्री समस्याओं को अपना विषय बनाया और उन पर समकालीन घटनाओं की छवि भी अंकित थी. रसिका अगाशे निर्देशित कृत ‘म्यूजियम आफ स्पिशिज इन डेन्जर’ महिला निर्देशक और महिला अभिनेता के द्वारा विकसित की गई प्रस्तुति है. सोलह दिसम्बर की घटनाओं का इस प्रस्तुति पर प्रभाव है. नीलम नाम सिंह चौधरी की प्रस्तुति ‘द लाइसेंस’ स्त्री की दशा को दिखाता है लेकिन इसके लिये आलेख की प्रेरणा मंटो की कहानी ‘लाईसेंस’ और ब्रेख्त की कहानी ‘ द जाब’ से ली गई है. दोनों कहानियों की नायिका महिलाऎं हैं जो अपने पति की मृत्त्यु के बाद जीवन यापन के लिये पति का पेशा ही अपनाती हैं. ‘द जाब’ की नायिका को जहां इसके लिये अपने स्त्री पहचान को छुपाना पड़ता है वहीं ‘द लाइसेंस’ की नायिका बिना स्त्री पहचान को छुपाए टांगा चलाने का पेशा अपना लेती है. टांगा चलाना और चौकीदारी करना ऐसा पेशा है जिसे स्त्रियों के लिये मुफ़िद नहीं माना जाता. सामाज्जिक मान्यताओं में छुपे इस जेंडरीकरण को नीलम मान सिंह की प्रस्तुति विशेष तौर पर उभारती है. यह उनकी शैली का सिग्नेचर मार्क है. ऐसा वो संभव करती है उन सभी गतिविधियों को दिखाकर जिसे आमतौर पर महिलाओं द्वारा की जाने वाली माना जाता है. नीलम मान सिंह की रंगभाषा की एक रूढ शैली बन चुकी है जिसमें अभिनेता अभिनय के साथ ही रोजमर्रा के जीवन की चीजे भी करते हुए दिखाई देते हैं साथ ही अभिनय के दौरान यौनिक संकेतों से भी वह देह पर घटित होने वाली यातना को भी उभारती है. प्रस्तुति के दौरान यह अनुभव होता है कि कथ्य को शैली में जबरन फिट किया गया है. मंच के एक हिस्से पर उनकी संगीत मंडली बैठी है और बाकी हिस्सों में नाटकीय घटनाऎं घटती है. मुख्य चरित्र को दो हिस्सों में विभाजित कर संप्रेषणियता और उपपाठ को उभारने का भी तरीका वही है. प्रश्न यह है कि क्या यह शैली सभी कथ्यों के लिये जायज है? प्रस्तुति में अभिनय और गायन हमेशा की तरह उम्दा है. नक्काल प्रस्तुति आख्यानके बाहरी हिस्से की तरह है. प्रस्तुति में कुछ असहज करने वाले नाट्य संकेत भी है.
भारंगम में आज दो प्रस्तुतियां ऐसी भी हुई जिनमे से एक का आकर्षण सिनेमा अभिनेता था और दूसरे का आकर्षण सिनेमा पर आधारित कथ्य था. यशपाल शर्मा अभिनित रामजी बाली निर्देशित ‘कोई बात चले’ लोकप्रियता के फार्मूलों पर आधारित नाट्य प्रस्तुति है जो दर्शकों का मनोरंजन तो करती है लेकिन नाट्यानुभूति के धरातल पर कुछ नया नहीं जोड़ती. निर्देशक के लिये यह संभव नहीं हो पाया है कि वह विवाह करने की बेचैनी लिये दो व्यस्कों के विवाह करने को लेकर संघर्ष और इच्छा के द्वंद्व को एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य की व्यापकता दे सके. हरियाणा के समाज में ऐसे व्यापक संदर्भ है जहां लैंगिक विषमता बढ़ती जा रही है. यशपाल शर्मा अभिनेता जोरदार है और इस नाटक में वे इंप्रोवाइजेशन करते हुए पंचलाइन के जरिये दर्शकों को हंसाते खूब है लेकिन हास्य के अलावा भी नाटक में दर्शक कुछ चाहते हैं वह मिसिंग हैं. ब्रत्या वसु निर्देशित प्रस्तुति ‘सिनेमार मोटो’ बांग्ला सिनेमा के इतिहास को खंगालने वाली प्रस्तुति है. यह सिनेमा में आए पीढ़िगत बदलाव जिसने शैली, सोच और दर्स्कों को भी बदल दिया पर बहस करती है उन्हेम पहचानती है. बांग्ला सिनेमा को भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में यह ट्रिब्युट है. यह प्रस्तुति समांतर सिनेमा, मुख्यधारा के सिनेमा और इन दोनों के बीच रास्ते की तलाश कर रहे वर्तमान बांग्ला सिनेमा के द्वंद्व और बदलाव के संदर्भों को पकड़ता है. सिनेमा के साथ साथ यह टेलिविजन के इतिहास में भी जाता है. नाटक की शैली यथार्थवादी है और दृश्यों को जोड़ने के लिये सिनेमा के दृश्यों का सहारा लिया गया है. प्रस्तुति की लंबाई भी अपेक्षाकृत अधिक है.
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