अमितेश कुमार का यह आलेख रंगविमर्श ब्लॉग से साभार. अमितेश से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
जन संहार के अस्त्रों की वैश्विक होड़, वर्चस्व की आकांक्षा, जंगलों की सफाई, जंगल बनते शहर, जान, ये सब ऐसे प्रश्न है जो दिन प्रति दिन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहे हैं. अधिकांश जीवन इनसे गाफ़िल हो कर क्षण को पकड़ने में व्यस्त है. बांग्ला प्रस्तुति ‘हे मानुष’ मनुष्यों द्वारा व्यापक संहार के हथियारों के निर्माण और उससे होने वाले विनाश को अपनी विषयवस्तु बनाता है. इसे प्रदर्शित कतने का संदर्भ बिंदू महाभारत और दूसरा विश्व युद्ध है. महाभारत का संदर्भ ‘अंधा युग’ से लिया गया है जिसे दूसरे विश्व युद्ध के साये में मनुष्य के अस्तित्व पर आये संकट और मनुष्यता को बचाने की चिंता के साथ लिख अगया था. प्रस्तुति भी ‘अंधा युग’ में वर्णित भविष्य के आसन्न संकट और दूसरे विश्व युद्ध में हुए हिरोशिमा और नागासाकी विस्फोट की विभिषिका को चित्रित करते हुए मनुष्य की निजता की खोज का संदेश देती है. लेकिन प्रस्तुति में अभिनय और दृश्य सरंचना कमजोर है.
गौरी रामानारायण की प्रस्तुति ‘नाईट्स एंड’ में रंगमंचीय भाषा की खोज और कथ्य की गंभीरता का संतुलन है. इस प्रस्तुति में त्वरा है तो ठहराव भी है. नाटक में दो चरित्र हैं जिनके अधिकतर संवाद एकालाप में है जो इनकी अंदर और बाहर की यात्रा और उस परिवेश के बारे में बताता है जिनसे ये घिरे हैं. प्रस्तुति शहरों के उस लालच को दिखाता है जिसका संक्रमण वह गांव और शहर तक भी पहूंचाता है. शहर इस लालच को छिपा कर सभ्य बना रहता है जबकि गांव और इसकी आबादी अपराधी सिद्ध हो जाती है. कथकली नर्तक कृष्णन अपने गांव से भाग कर दूर राजस्थान में जंगल का रक्षक बन गया है. अपने एकांत में नृत्य, प्रकृति और उसके जीव उसे शांति देते हैं. कबीले की लड़की चांदनी है जो छूपकर उसका ध्यान रखती है. कृष्णन के माध्यम से प्रस्तुति कलाकार की कला के बाहर जिम्मेदारी क्या है? क्या समाज में भी कोई सक्रिय भूमिका है? इत्यादि सवालों से जूझती है. तो चांदनी के जरिये हाशिये के कुछ समुदायों की विपन्न स्थिति से जुड़े प्रश्न पूछती है, जो अभी भी अपराधी जाति में चिह्नित हैं. इनकी जीवन शैली भी अब बचा पायेगी? उनकी बेदखली को कैसे रोका जा सकता है? सवाल पूछने से आगे यह समाधान में भी जाती है. कृष्णन अपराधी माने जानी वाली मोगिया जनजाति, जो पहले शिकारियों को मदद करती थी, की मदद से बाघों के सरंक्षण में लग जाता है. प्रस्तुति में कुछ मार्मिक स्थल हैं जब कृष्णन अपने अतीत की वेदनाओं को कथकली के अभिनयों से जोड़ता है. अभिनय पक्ष उम्दा है. ऐसी ठहराव वाली प्रस्तुति आधुनिक रंगमंच पर दुर्लभ है जो उद्वेलित भी करती है और शांत भी.
‘उन्हें पूरे शहर एक’ जंगल बनते हुए शहर और उसमें पनपते मानवीय संबंधों की कोलाजनुमा प्रस्तुति है. तेजी से पसरते हुए महानगर में जीवन कई छॊरों पर है जिसके विरोधी रंगों से शहर बनता है. ये आपस में मिलते भी हैं लेकिन अधिकांशतः अनजान रहते हैं. इस शहर में एक सिरे पर लोग इतने अधिक विपन्न हैं कि वो हिंसात्मक हो रहे हैं. दूसरी तरफ़ अर्थ इतना अधिक है कि उसे घोड़ों की रेस में गंवाया जा रहा है. एक तरफ़ जिंदगी गलीज मोहल्लों और गलियों में है एक आलीशान अपार्टमेंट और कोठियों में. एक सिरे पर कौन बनेगा करोड़पति बनने के सपने देखते हुए निरंतर छले जा रहे हैं दूसरी तरफ़ वे भी है जो उन्हें छल रहे हैं. ये अलग रंग परस्पर मिलते भी है, अपार्टमेंट का जीवन इन झुग्गियों में रहने वालों के बिना रूक जाता है, शहर की इमारते गांवों के श्रम पर निर्भर हैं. हर तरफ़ मूल्य छीज रहे हैं विपन्नता में भी और संपन्नता में भी. झूठ अब आदत बन चुका है. लालच हावी है और हर चीज की कीमत है. शहर का जीवन इन्हीं विरोधी रंगो के मेल और उनके अलगाव से बनता है. गिरिश कर्नाड के नाटक को निर्देशक मोहित ताकलकर एक राजनीतिक दृष्टि से व्याखयायित किया है. जनसंख्या के दबाव में फैलते शहर, उसमें बनती सड़को, कटते पेड़ों और बढ़ते यातायात इत्यादि अनेक कोण प्रस्तुति में उभरते हैं. के दृश्यों को शहर में पाये जाने वाले शोर , कौन बनेगा करोड़पति के धून की पार्शध्वनि के साथ जोड़ा गया है मराठी रंगमंच के दिग्गज अभिनेत इस प्रस्तुति में है जो चरित्र को उसकी निजता और समूह में भी चित्रित करते हैं. मोहित इस बार उम्मीद पर खरे हैं.
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