भारंगम के चौदहवें दिन भी स्त्री केंद्रित प्रस्तुतियों का सिलसिला जारी
रहा. इस क्रम में दो प्रस्तुति कोलकाता से ही थी. एक बांग्ला में पार्थप्रतिम देब
निर्देशित नांदिकार की प्रस्तुति ‘नाचनी’ तो दूसरी रमनजीत कौर निर्देशित
‘बावरे मन के सपने’. नाचनी इस भारंगम की
महाकाव्यात्मक प्रस्तुति रही. अधिक लंबाई के बावजूद दर्शकों को बांधे रखा.
प्रस्तुति में बांग्ला रंगमंच के स्टार अभिनेता रूद्रप्रसाद सेन गुप्ता,
स्वातिलेखा सेन गुप्ता, सोहिनी सेन गुप्ता,
देब शंकर हालदार आदि अभिन्य कर रहे थे. ‘नाचनी’ नाचने वाली स्त्रियों के बारे में है. नाचनी
की स्थिति के बारे में उम्र के ढलान पर खड़ी कुसमी बराबर कहती है कि नाचनी का कोई
मां नहीं, बाप नहीं, बंधु नहीं,
यानी उसके लिये रिश्ते नहीं है. वह केवल दर्शकों के मंनोरंजन के
लिये है. नाचनियों की स्थिति इतनी कठीन है कि मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार
भी नहीं किया जाता. लेकिन इस प्रस्तुति में कुसुमी को विस्थापित करने आई बिजुली
बाला उसका अंतिम संस्कार करने की ठानती है और सामाजिक जड़ता को चुनौती देती है.
प्रस्तुति नाचने वाली स्त्रियों के बहाने समाज की जाति व्यवस्था और पितृसत्ता और
पुरूषों कि प्रवृति की आलोचना करता है. नाचनेवाली स्त्रियां हमेशा समाज के निचली
जाती से आती हैं इसलिये वो दोहरे शोषण का शिकार हैं. उसका शरीर सबके लिये उपभोग्य
है. नाचने से इतर उसकी कोई भूमिका नहीं. मंच के पिछले हिस्से पर सांकेतिक
दृश्य की गई है. नाटक की प्रस्तुति प्रक्रिया का संकेत प्रस्तुति में ही है. नाच
की तैयारी और नाच की प्रस्तुति से आख्यान बनता और टूटता है, संगीत प्रस्तुति को जोड़ती है. पात्रों की गति और प्रवेश प्रस्थान को एक लय
दिया गया है. यह प्रस्तुति बताती है कि अनुभवी अभिनेता कभी भी अपने आप को शैली
विशेष में बांधते नहीं वे प्रस्तुति की योजना के अनुसार अपने को बदलते रहते हैं.
प्रस्तुति के दौरान आत्म विसर्जित होने को आतुर कुसमी की भूमिका मेम स्वातिलेखा जब
दर्शकों के बीच से गुजरती हैं या बिजुली बाला कुसमी के मौत पर विलाप करती है तो
रूह सिहरा देती हैं.
‘बावरे मन के सपने’ मध्यमवर्ग की
महिलाओं के शांत से दिखते जीवन में चल रहे उथल पुथल की टोह लेता है. नाटकीय
आख्यान के विकसित होने के क्रम में उन्हें उद्घाटित करते हुए चलता है. इस नाटक की
प्रस्तुति प्रक्रिया में सभी महिलाएं शामिल है, इसलिये विवरण
प्रभावी और प्रामाणिक लगते हैं यद्यपि इनमें कुछ क्लिशे बन चुके दृश्यों और घटनाओं
का भी जिक्र है. अभिनेता भी अपेक्षाकृत कम अनुभवी है . नाटक का आलेख अभिनेता
के अनुभवों और कुछ महिला लेखन को आधार बना कर विकसित किया गया है. दृश्यबंध
में महिलाओं का स्पेस बनाय अगया है. इसमें अचार बनाती, पापड़
बेलती, पेंटिंग करती, कपड़े धोती,
तकिया बनाती, गिटार बजाती और शापिंग कर के
लौटती हुई महिलांए है. इनको जोड़ने वाली केंद्रिय पात्र अम्मा है जो अपनी बेटी से
मिलने के लिये लंदन जाने की तैयारी कर रही हैं. इस तैयारी के क्रम में ही ये पात्र
अपने जीवन के कटु यथार्थ को एक दूसरे से साझा करते
हैं. प्रस्तुति इस बात उभारती है कि मध्यमवर्गीय घर की ये महिलाएं अपने छॊटे छोटे
सपनों को अक्सर दबाती आई हैं. अपनी इच्छा को स्थगित किया है लेकिन फिर भी इनसे
अतिरिक्त मांग की गई है. इनका दमन हुआ है और इनमें इसी तरह जीने का आदत डाली गई है,
इनमें से कुछ ऐसी भी है जो इस आदत से तंग आ कर इस घेरे को तोड़ देना
चाहती हैं. प्रस्तुति में कभी कभि अतिरेक लगता
है कि लेकिन अब के हालात में यह बताना आवश्यक है कि पितृसत्ता की स्वतंत्रता और
महात्वकांक्षा के भवन पर किसकी वेदना सिसक रही है. बावरा मन देखने चला एक सपना
स्थिति को पूरी तरह से अभिव्यक्त करता है. रमनजीत कौर के निर्देशन में नीलम मान
सिंह चौधरी का स्पष्ट असर है, उनकी परिकल्पनाओं में ही
उन्होंने दृश्य रचे हैं.
अमितेश कुमार का यह आलेख रंगविमर्श ब्लॉग से साभार. अमितेश से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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