जन्म - सन 1929, निधन - 28 सितम्बर 2011
हमारे समाज की यह कठोर, दुखद और त्रासदपूर्ण सच्चाई है कि
जिन्हें हमारा आदर्श होना था उनकी स्थिति अधिकांशतः या तो दयनीय है, या हास्यास्पद
या फिर उपेक्षित ! सदियों से वर्गों-वर्णों में विभाजित, रोटी-कपड़ा-मकान की
जद्दोजहद में पिसता, पूंजी से संचालित होता तथा जीवन की
मूलभूत आवश्यकताओं की तरफ़ ललचाई दृष्टि से देखता अर्ध-सामंती और अर्ध-उपनिवेशिक
मानसिकता वाले भारतीय समाज में दोष किसका कितना है, ये बताने की आवश्यता नहीं।
जहाँ तक सवाल मनुष्य की संवेदना का है तो वो हुकमरानों की
साजिश का शिकार होकर क्षणिक सुख के चक्कर में यांत्रिकता की ओर अग्रसर है। आज लगभग
हर गतिविधि बस एक खबर है। ख़बरों के इस मायाजाल में सिनेमा के किसी नायक के मुकाबले
जीवन के नायक की छवि धुंधली हो चुकी है या कर दी गई है। तमाम नैतिकताएं सिक्के की
खनक की गुलामी में कैद की जा रहीं हैं। समाज का अधिकतर तंत्र तमाम जनपक्षीय आदर्श
और सोचने-समझने के खिलाफ़ साजिश में लगा है। इन तमाम नैतिक पतनों के बीच कुछ नाम
ऐसे भी हैं जिनमें समाज की बनी-बनाई सफलता के मापदंडों की धारा के विपरीत अपना
रास्ता तय करने का माद्दा, जूनून और जज्बा होता है। जो समाज से जितना लेतें हैं
उससे कहीं ज़्यादा समाज को वापस करतें हैं। ये समाज पर अपनी विद्वता और ज्ञान का
आतंक नहीं फैलाते बल्कि समाज से सीखते हुए सिखाने और सिखाते हुए सीखने की एक
खूबसूरत प्रकिया का पथ चुनते हैं। ऐसे ही कुछ दुर्लभ नामों में से एक नाम थे गुरुशरण
सिंह।
कला को राजनीति से दूर रखो। जबकि आज की कठोर सच्चाई ये है कि
मानव से जुड़ा कोई भी पहलू राजनीति से अलग हो ही नहीं सकता। क्या यह भी एक राजनीति
नहीं है कि राजनीति से कला और कला से राजनीति का कोई सरोकार नहीं ? ऐसा मानने वाले
लोग क्या यथास्थिवाद के पोषक नहीं होते ? मुखर रूप से न भी हों पर मौन रूप से होते
ही हैं। ज्ञातब्य हो कि राजनीति का अर्थ केवल बुराई ही नहीं होती। वहीं अपने को
क्रांतिकारी कहनेवाली जमात नाटक, गीत, नृत्य आदि को राजनीति से जुड़ा कार्य तो
मानती है पर दोयम दर्ज़े का काम ही मानते हुए। ये पार्टी सर्कुलर में भले ही
सांस्कृतिक क्रांति की बात पुरजोर तरीके से उठाते हों परन्तु व्यावहारिक धरातल पर
मामला दयनीय ही है। कारण साफ़ है कि इन दलों के कार्यकर्त्ता भी इसी समाज से ही आतें
हैं और जब तक उनका सांस्कृतिक विकास नहीं होता, तब तक बुनियादी तौर पर कुछ खास
नहीं बदलने वाला। नाटक या सांस्कृतिक कर्म के दौरान पार्टी का झंडा लहराने से
चीज़ें क्रांतिकारी नहीं होती, कोई भी कला अपने विचार की वजह से क्रांतिकारी होतीं
हैं प्रतीकों के वजह से नहीं।
मार्क्स, भगत सिंह के विचारों को अपना आदर्श मानने वाले और
तमाम सीमाओं और उतार चढावों के वावजूद वाम राजनीति में सक्रिय जुड़ाव रखनेवाले गुरुशरण
सिंह ये माननेवालों में से थे कि अगर कोई कला समाज के ज्वलंत सवालों से रू-ब-रू और जन संघर्षों के साथ कलात्मक और वैचारिक रूप
से खड़ी नहीं होती तो वो निरर्थक है, विलासिता है। कला की सार्थकता भव्यता, वैभव
तथा सजावट के आडम्बरों से नहीं विचारों से होती हैं, उससे पैदा होने वाले सवालों
से होती है। ऐसा कहते हुए उन्होंने रंगमंच के कलात्मक पक्ष को कभी नकारा नहीं। अगर
ऐसा होता तो वो पंजाब में इप्टा के संस्थापकों में से न होते। न नाट्य आंदोलन को
संगठित व संस्थागत रूप देने के लिए उन्होंने 1964 में अमृतसर नाटक कला
केन्द्र का गठन किया होता। न ही कलाकारों को शिक्षित, प्रशिक्षित तथा शौकिया
कलाकार से पूर्णकालिक कलाकार में बदलने तथा उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए
उनके पलायन को रोकने के दिशा में ही कार्यरत हुए होते।
अपने समय और परिवेश से सीधा साक्षात्कार करती गुरुशरण सिंह के
नाटकों और गीतों में राजनीति कूट-कूट कर भरी है। कई बार तो अतिरेक की हद तक, पर
उनके राजनीति लकीर के फकीर वाली नहीं है। उनकी राजनीति को उनके नाटकों के माध्यम
से अगर समझा जाय तो स्थिति कुछ यूँ बनेगी। उनका एक बहुचर्चित नुक्कड़ नाटक है “गड्ढा”।
उसमें एक साधारण व्यक्ति गड्ढे में गिर जाता है। वो बिना किसी के सहायता के वहाँ
से निकल नहीं सकता। एक पत्रकार उससे सवाल करता है – “ आप किसे अपना मानते हैं ?”
गड्ढे में गिरा आदमी जवाब देता है – “जो मुझे इस गड्ढे से बाहर निकल दे।” कहने का
अर्थ साफ़ है जो आम जन के साथ कदम दर कदम मिला के चले सच्ची कला और सच्चा राजनीति और
सच्चा विचार वही है।
अपने करीबी साथियों के बीच 'गुरुशरण भ्राजी' नाम से
चर्चित पंजाब के नाटककार, संस्कृतिकर्मी और सामाजिक कार्यकर्त्ता गुरुशरण
सिंह का जन्म सन 1929 में मुल्तान में हुआ था।
अपने छात्र जीवन में ही वे कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये। विज्ञान के विद्यार्थी
गुरुशरण सिंह का नाटक के क्षेत्र में आना भी एक मुहिम के तहत ही था। सीमेन्ट टेक्नोलाजी
से एम.एस.सी. करने के पश्चात् पंजाब में भाखड़ा नांगल बाँध बनने के दौरान वे इसकी
प्रयोगशाला में बतौर अधिकारी कार्यरत थे। कुछ गिने चुने दिन ही वहाँ छुट्टी दी
जाती थी। लोहड़ी ( पंजाब का एक प्रमुख पर्व ) का त्योहार आया। मजदूरों ने छुट्टी मांगी,
नहीं मिलने पर हड़ताल का रास्ता अख्तियार किया। गुरुशरण सिंह भी इन मजदूरों के साथ थे, इन्होने इन मजदूरों की
भावनाओं को आधार बनाकर एक नाटक तैयार किया, खेला जिससे मजदूरों की भावनाओं का
प्रचार के साथ ही साथ संघर्ष को भी बल मिला। अंततः मजदूरों की जीत हुई। इस पूरी
प्रकिया में गुरुशरण सिंह एक कार्यकर्त्ता और संस्कृतिकर्मी के तौर पर जुड़े थे।
पहली बार नाटक लिखा, निर्देशित किया, अभिनय किया और शायद पहली बार ही नाटक की ताकत
के सक्रिय परिचय से भी रू-ब-रू हुए ।
मंच
और नुक्कड़ नाटकों की विभाजन रेखा को पाटने का काम समय-समय पर रंगकर्मी करते रहें
हैं। इनके लिए दर्शक पैसा कमाने और हॉउसफुल के बोर्ड लगाकर निर्देशक का कॉलर खड़ा
करने अर्थात अहम् की तुष्टि का साधन नहीं बल्कि सोचने-समझने और चिंतन करनेवाला
विवेकशील प्राणी होता है। वो अवाम की ताकत, जो खुद पर आ जाए तो बड़े से बड़े तख़्त को पलट कर रख दे, पर
पुरज़ोर भरोसा रखतें हैं। यहाँ नाटक आत्ममुग्धता या दिखावे का साधन नहीं बल्कि
विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम होता है। इन्हीं चंद लोगों में गुरुशरण सिंह का
नाम भी शामिल है। इन्होनें गीत लिखे, उसकी धुन बनाई, उसे अपने दल के साथियों के
साथ गाया। सादगीपूर्ण तरीके से गीतों के एलबम भी निकाले, जिसे पुरे भारत के
संघर्षशील आवाम ने पुरे शिद्दत से सुना और गया। इनके लिखे व मंचित किये गए लगभग
पचास नाटकों में ‘जंगीराम की हवेली’, ‘हवाई गोले’, ‘हर एक
को जीने का हक चाहिए’, ‘इक्कीसवीं सदी’, ‘तमाशा’, ‘गड्ढ़ा’, ‘इंकलाब
जिंदाबाद’ हैं , जिन्हें लोगों ने खूब पसंद किया और इन
नाटकों ने देश के विभिन्न जनांदोलनों को एक कलात्मक सहयोग भी प्रदान किया। शायद
यही वो वजह थी कि ये नाटक पूरे देश में विभिन्न इंसाफ पसंद, प्रगतिशील सांस्कृतिक
समूहों द्वारा खूब मंचित किये गए और आज भी किये जा रहें हैं।
अस्सी
के दशक में भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन का
गहरा असर देश के अन्य कई राज्यों की तरह पंजाब में भी था। उन्हीं दिनों गुरुनानक
देव का 500 वाँ जन्म दिन आया। इस
मौके पर गुरुशरण सिंह ने नानक के प्रगतिशील विचारों को आधार बनाकर गुरुदयाल सिंह
सोढ़ी लिखित नाटक ‘जिन सच्च पल्ले होय’ को समसामयिक परिवेश से
जोड़ते हुए, मंचित किया। नाटक इतना लोकप्रिय
हुआ कि पंजाब के करीब 1600 गाँवों में इसका मंचन हुआ। पंजाब और भारत के रंग-इतिहास में इस नाटक का
अपना ही एक अनूठा इतिहास है।
इमरजेंसी काल के दौरान इन्होनें अपने नाटक ‘मशाल’ के द्वारा तानाशाही का
विरोध किया। इस कारण इन्हें दो बार गिरफ्तार भी किया गया। अस्सी के
दशक में जब पुलिस ने एक बार फिर उन्हें गिरफ्तार किया तो उन्होंने अपनी नौकरी से
त्यागपत्र दे दिया और एक पूर्णकालिक रंगकर्मी बनने का निर्णय लिया। इसी दशक में पंजाब जब दहक रहा
था तो गुरुशरण सिंह को भी धमकियाँ मिल रही थी पर वे इन धमकियों से बेपरवाह हो काम
करते रहे और मासिक पत्रिका ‘समता’ में आतंकवाद के विरोध में लगातार लिखते रहे। उन्हीं दिनों आतंकवाद के
विरोध में उनका चर्चित नाटक ‘बाबा बोलता है’ लिखा। उन्होंने न सिर्फ
इसके सैकड़ों मंचन किये बल्कि भगत सिंह के शहादत दिवस 23 मार्च पर आतंकवाद के
विरोध में भगत सिंह के जन्म स्थान खटकन कलां से 160 किलोमीटर दूर हुसैनीकलां
तक सांस्कृतिक यात्रा निकाली जिसके अन्तर्गत जगह-जगह उनकी टीम ने नाटक व गीत पेश
किये। यह साहस व दृढता जनता से गहरे लगाव, उस पर भरोसे तथा अपने
उद्देश्य के प्रति समर्पण से ही संभव है।
गुरुशरण सिंह का कार्यक्षेत्र भले ही पंजाब रहा पर समय – समय पर तमाम
जनवादी ताकतों के आह्वान पर जन-संघर्षों पर तमाम प्रकार के दमन के खिलाफ अपनी आवाज़
पंजाब के बाहर भी बुलंद करते रहे। भारतीय आवाम को जब भी ज़रूरत पड़ी गुरुशरण सिंह
उनके साथ खड़े मिले। गुरुशरण सिंह की मूल उर्जा भारत की शोषित-पीड़ित जनता और देश की
प्रगतिशील आवाम थी। वो इसी से अपनी उर्जा प्राप्त करते और इसे ही वापस अपने नाटकों
और गीतों के माध्यम से उर्जान्वित और तमाम प्रकार के शोषण-दमन के खिलाफ आवाज़ बुलंद
करने के लिए आंदोलित करते।
समय के साथ-साथ शरीर भले ही कमज़ोर पड़ा पर लगन नहीं। आवाज़ की
बुलंदी और बुराई के खिलाफ़ लड़ने की उनकी ताकत कभी कमज़ोर न हुई। तमाम प्रगतिशील
ताकतों को एक मंच पर आने की अपील और कोशिश उन्होंने ता-उम्र जारी रखी। कला के
क्षणिक और भौतिक सुख – सुविधा से इतर उन्होंने जनता के साथ का रास्ता चुना। हाल के
दिनों में झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न प्रकार के अभियानों
के नाम पर हुए जन विरोधी कार्यवाईयों के खिलाफ़ उनका साफ़ आह्वान था कि अगर सरकार जन
विरोधी अभियान चला सकती है तो जनता को भी चाहिए कि वो सरकार के खिलाफ़ जन-युद्ध छेड
दे।
वे पंजाब इप्टा के संथापक सदस्यों
में से एक थे। जन संस्कृति मंच के गठन में भी इनका प्रमुख योगदान रहा। जसम के पहले
राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुने गये। साथ ही समय-समय पर विभिन्न प्रकार के जनवादी
सांस्कृतिक संगठनों से जुड़ते रहे। जन संघर्षो के साथ अक्सर खड़े रहने का
जज्बा दिल में समेटे इस जन संस्कृतिकर्मी का निधन 28 सितम्बर 2011 को 82 साल की
अवस्था में हुआ। वो बीमार चल रहे थे। गुरशरण सिंह पूरी जिंदगी कम्युनिस्ट बने रहे। इंकलाब ही उनके
जीवन का उद्देश्य था।
दुखद और शर्मनाक स्थिति ये है कि हमारे देश में जितने भी
नाट्य विद्यालय चल रहें हैं उनमें से किसी में भी गुरुशरण सिंह जैसे लोगों के बारे
में लगभग कुछ नहीं पढ़ाया या बताया जाता है। गुरुशरण सिंह ही क्यों जन सरोकार से
जुड़े किसी भी देसी आदमी की बात नहीं की जाती। ये स्कूल्स केवल तकनीक पढाने को ही
अपना उद्येश्य मान बैठे हैं। ऐसा नहीं कि ये सब अनजाने में हो रहा है बल्कि ये उदासीनता
जानबूझ पैदा की गयी है, की जा रही है। इसके पीछे कौन सा उद्येश्य काम करता है ये
समझना कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं।
हर समाज अपना नायक खुद गढ़ता है। आज हमारे समाज में जो नायक-महानायक
थोपे या गढे जा रहें है या जो नायकत्व का चोला धारण किये कुटिल मुस्कान बिखेर रहें
हैं, क्या वे सच में नायक बनने के लायक हैं या आम जन को तसल्ली देकर धोखा देने के
वास्ते, सूचना और संचार क्रांति के इस तथाकथित उत्तर-आधुनिक युग ने नायक, खलनायक,
विदूषक को मिलाकर कुछ नया मसाला तैयार कर लिया है ? जन नायक और माल बेचने के लिए पैदा
किये जा रहे नायकों में आसमान-जमीन का फर्क हैं और सरकारी ग्रांट के भरोसे आत्म-मुग्धता
का ज़्यादा और जनता का संस्कृतिकर्म कम ही होता है।
गुरुशरण सिंह ता-उम्र अपने विश्वास पर अडिग रहे और अपने
नाटकों के द्वारा जनता की आवाज़ को बुलंद करते रहे। भले ही इन्हें संगीत नाटक
अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया हो पर इनके लिए सबसे बड़ा सम्मान जनता की
कराहों और मजबूरियों को ताकत और एकता में बदलकर क्रांति की आवाज़ को सच्चे संघर्ष
में बदलना है। गुरुशरण सिंह के सपनों का भारत अभी भी सपना ही है पर हर हकीकत पहले
सपना ही तो होती है।
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