भारतीय नाट्य परम्परा
: नेमीचन्द्र जैन
नेमीचन्द्र जैन की
पुस्तक भारतीय नाट्य परम्परा के आधार पर बनाया
गया संछिप्त नोट ।
आदिम या पौराणिक
युगों से ही किसी न किसी तरह का रंगमूलक कार्यकलाप भारतीय जीवन का एक अनिवार्य अंग
रहा है । कई शताब्दियों तक वह सामान्य लोक जीवन में केवल अनुष्ठानमूलक, गीत-नृत्य,
कथा गायन अथवा विशेष अवसर पर निकलनेवाली झांकियों के रूप में ही मौजूद रहा, बाद
में उच्च अभिजात्य वर्गों में इसके विभिन्न रूप प्रतिष्ठित हुए । जो करीब एक-डेढ़
हज़ार वर्ष तक रहे, इसे हम संस्कृत नाटक/रंगमंच के रूप में जानते हैं ।
ईसा से पांचवीं-छठी
सदी तक भारतीय नाट्य का इतिहास मिलता है । वैदिक युग के यज्ञों से सम्बंधित
कर्मकांडों में नाट्य जैसी कई स्थितियां और क्रियाएँ मौजूद हैं । वैदिक साहित्य
में गीत, नृत्य, वाद्यों तथा नेपथ्य की सामग्रियों का प्रचुर उल्लेख मिलता है ।
ऋगवेद में यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, विश्वामित्र-नदी, अगस्त्य-लोपामुद्रा,
इंद्र-अदिति आदि सूक्तियां संवाद मूलक हैं । जो एक नाटकीय संयोजन का आभास देते हैं
।
रामायण में नर्तक,
गायक, कुश-लव की नाटकीयता की सूचना है । बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में भी नाटक का
ज़िक्र मिलता है । कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र में रंगोपजीवी पुरुषों तथा नाट्य,
नृत्य, गीत, वाद्य आदि की चर्चा है ।
नाट्यशास्त्र : नाटक और रंगमंच से
सम्बंधित ऐसा कोई पक्ष/विषय नहीं है जिसपर इसमें गंभीरतापूर्वक एवं विस्तार से तथा
सूक्ष्म अंतर्दृष्टि से विचार न किया गया हो ।
संस्कृत नाटकों की छवि :
संस्कृत नाटकों में भारतीय जीवनदृष्टि का एक बड़ा विलक्षण और प्रभावशाली रूप मिलता
है । वे दिखलाते हैं कि मनुष्य अपने स्वभाव, स्वधर्म और पुरुषार्थ के अनुसार जीवन
की विभिन्न अवस्थाओं से विभिन्न भावों, आवेगों, विकारों और स्थितियों से गुज़रता
हुआ, उनके बीच अपना निर्धारित कर्तव्य पूरा करता हुआ अंत में जिस सामंजस्य और
संतुलन की स्थिति में पहुंचता है वही जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य है और काम्य तथा
वांछनीय भी ।
संस्कृत नाटक जीवन का
कोई सतही यथार्थवादी प्रतिविम्ब नहीं प्रस्तुत करते । उनमें एक गहरे नैतिक और
सौन्दर्यमूलक विवेक से मनुष्य के कार्यों और भावों की, जीवन की विभिन्न अवस्थाओं
की, कलात्मक कल्पनाशील अनुकृति (तस्वीर) दिखाई गई है जिससे दर्शक को रसात्मक अनुभव
से मिलनेवाला आनंद के द्वारा सत्य का बोध हो ।
भारतीय जीवनदृष्टि :
यह स्वीकार नहीं करती कि आदमी किन्हीं अज्ञात रहस्यमय अंधी दैवी शक्तियों के हाथों
का खिलौना है जिनके विरुद्ध संघर्ष करने को तो वह अभिशप्त है पर उसकी नियति पूर्व
निर्धारित त्रासदी ही है ।
इसीलिए संस्कृत
नाटकों में पात्रों की वास्तविक अथवा कल्पित निजी यातना, पीड़ा या पापबोध का क्रमशः
उत्तरोत्तर सघन उद्घाटन करने की बजाय, विभिन्न वैयक्तिक और सामाजिक स्थितियों में
मनुष्य के सुख-दुःख, सफलता-असफलता, प्रेम-करुणा, मिलन-वियोग, हंसी-रुदन को उसके
सहज मानवीय आचरण को प्रस्तुत किया गया है ।
संस्कृत नाटकों का
वर्गीकरण त्रासदी और कामदी नहीं बल्कि प्रमुख पात्रों की सामाजिक और मानसिक
स्थितियां तथा उसके अनुकूल होनेवाले कार्यकलापों के आधार पर है ।
संस्कृत नाटकों में :
स्वतंत्र और सम्पूर्ण नाट्यशिल्प तथा विशिष्ट सौंदर्य-दृष्टि उभरती है । उनका
संघटन और वस्तुविन्यास लचीला और काल्पनिक है । नाट्य रचनाओं में विन्यास की
अलग-अलग पद्धति है । कार्य व्यापार की निरंतरता पर बल दिया गया है । कथा सूत्र
स्पष्ट हैं । विभिन्न पात्रों द्वारा समय-समय पर अलग-अलग होनेवाले या हो चुके
घटनाप्रसंगों और स्थान/समय परिवर्तन की जानकारी/सूचना दी जाती है । यह अभिनेता
केंद्रित रंगमंच है । उपकरणों का न के बराबर प्रयोग होता है । गद्य, पाठ्य पद्य,
काव्यात्मक पद्य और गेय छंद सभी का प्रयोग होता है । प्राकृत, रोचक युक्तियाँ,
स्वागत, नेपथ्य से पात्रों का कथन एवं आकाशवाणी, संगीत, नृत्य का भी प्रयोग होता
है । चरित्रों में अलग-अलग भावों की प्रधानता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है ।
अभिनय का उद्देश्य :
किसी पात्र के विभिन्न भावों के उद्घाटन से दर्शक के मन में रस की श्रृष्टि द्वारा
आनंद की अनुभूति पैदा करना होता है । दर्शक रसानुभूति द्वारा आनंद की प्राप्ति
करते हैं । अभिनय के लिए अभिनेताओं से समग्र अभिनेता का आग्रह यानि अभिनेता को
नृत्य, गायन, भाषा, छंद, लय, काव्य की गहरी जानकारी व अभ्यास की प्रमुखता अनिवार्य
मानी गई है । अभिनेता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के हिसाब से वेशभूषा, रूपसज्जा,
व्यवहार में आनेवाले उपकरणों को आहार्य के रूप में शामिल किया जाता है । अभिनय
परम्परा में यथार्थ के अनुरूप नहीं बल्कि यथार्थ को दिखाने, उसे व्यंजित करने का
प्रयास किया जाता है । सहृदय दशकों के लिए नाट्यप्रदर्शन किया जाता था ।
सूत्रधार/नट-नटी, विदूषक के माध्यम से नाट्य प्रयोग को दर्शकों से जोड़ने की कोशिश
की जाती थी । विदूषक हास्य विनोद का संवाहक है । कक्षा विभाग व रंगपट्टी
(प्रवेश-प्रस्थान हेतू) का प्रयोग किया जाता है ।
संस्कृत नाटकों के विघटन के कारण : एक सैद्धांतिक और व्यावहारिक बुनियाद पर
प्रतिष्ठित होने के बावजूद भी संस्कृत नाटक का दसवीं शताब्दी तक विघटन हो गया ।
इसके कुछ प्रमुख कारण विदेशी आक्रमणों और आंतरिक विग्रह से पैदा होनेवाली
राजनैतिक-सामाजिक अस्थिरता, संस्कृत भाषा के क्रमशः अभिजात वर्ग तक सीमित होते
जाने से उसमें सृजनात्मक उर्जा की क्षीणता, नाट्य रचना के स्तर पर प्रतिभा कई कमी,
सामान्य दर्शकों के लिए उनकी लोकप्रियता में कमी आदि हैं ।
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