बहस की श्रृंखला के रूप में मैंने सोशल मिडिया पर लिखा “मैं रंगमंच में वैसे निर्देशकों, नाट्यदलों और आयोजकों का कायल हूँ जो अपने नाटकों में बिना टिकट कटाए अपने करीबी से करीबी रिश्तेदारों, दोस्तों और रंगकर्मियों तक को सभागार में घुसने नहीं देते। इसके बावजूद उनके नाटकों में दर्शकों की कोई कमी नहीं होती।
रंगमंच से पास या कार्ड सिस्टम खत्म होकर, टिकट सिस्टम लागू होना चाहिए साथ ही नाटकों का प्रोडक्शन रेट तय हो। फ़ोकट में एक दूसरे की वाह वाह और हाय हाय करने से दरिद्रता का ही साम्राज्य बना रहेगा और रंगकर्मी इस या उस ग्रांट/डोनेशन/चंदा के चक्कर में अपनी ऐसी-तैसी कराता रहेगा।
किसी भी कला को अगर स्वाबलंबी बनना है तो उसे हर क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़ा होना ही होगा। तभी आप निडर होकर काम कर सकते हैं।
भाई, पास न मिलने पर मुंह फुलाना बंद करो। नाटक किसी का भी हो, यदि देखना है तो टिकट कटाओ।
खूब मेहनत से नाटक बनाओ। नाटक से कमाओ - नाटक में लगाओ, टिकटवाले दर्शक बनाओ और जो बचे उसे बांटकर खाओ।”
जो कुछ प्रतिक्रियाएं मिलीं वह निम्न हैं। - माडरेटर मंडली
उमेश आदित्य - बात आपकी है 100% सही श्रीमान, लेकिन छोटे शहरों में कैसे चले काम? चंदा जहाँ उठा लेते हैं नेताओं के गुर्गे सारे, दस बीस हज़ार जुटाने में भी फटती है प्यारे, नेताओं के पिछलग्गू उठाते, लाखों -लाख की राशि, सही काम करने वाले करते फाकाकसी, पर बात आपकी सचमुच अच्छी लगती है, रंगमंच के दिन ऐसे ही सुधरेंगे, जब लोग हमारे टिकट ले नाटक देखेंगे।
पुंज प्रकाश - छोटे शहरों और गाँव में लोग फ़िल्म के लिए पैसे निकालते हैं, dth के लिए पैसे निकालते हैं, मोबाईल में बैलेंस और नेट पैक के लिए भी अब पैसे निकाल रहे हैं तो नाटक के लिए क्यों नहीं निकालेगें। प्रयास तो किया जाय, मुश्किल है लेकिन असंभव तो बिलकुल भी नहीं।
दिनेश चौधरी - अब जरा इसके दूसरे पहलू को देखें। अपने पड़ोस में जिला मुख्यालय राजनांदगांव है। मुक्तिबोध का शहर। कई सालों से नाटकों से वंचित। यहाँ नाटक करने जाएँ तो टिकिट सेल नहीं होगी। आयोजक डूब जायेगा। डोंगरगढ़ में हो सकता है। तो इसका मतलब ये हुआ कि टिकिट वाले रंगमंच की जमीन शौकिया थिएटर को ही तैयार करनी है। फिर हमारा अनुभव जुदा है। जो हजार रूपये का चन्दा देते हैं वो नाटक देखने नहीं आते। 500 वाले आते हैं। इन सबकी संख्या 40-50 के आसपास है, जिनसे 50-60 हजार निकल आते हैं। इतने टिकिट बेच पाना असम्भव है। सनद रहे कि यह बात छोटे कस्बे के संदर्भ में कही जा रही है, तो यह मसला शहर से जुदा हो सकता है। हाँ, अगर हम टिकिट बेचकर रंगकर्म करते हैं तो हम दर्शक के प्रति जवाबदेह हो जाते है और नाटक की गुणवत्ता में सुधार आ सकता है। कम से कम शिल्प में। बाकी कंटेंट तो जाहिर है की अंततः कंज्यूमर ही तय करेगा!
पुंज प्रकाश - सर, किसी भी शहर, गाँव, क़स्बा में एक लम्बी प्रक्रिया से ही बदलाव संभव है। शौकिया रंगमंच यदि लाख - लाख रुपए चंदा कर सकता है तो किसी भी नाटक का टिकट भी आसानी से बेच सकता है। अपने यहाँ (खासकर हिंदी बेल्ट में) समस्या यह है सर कि हमने रंगमंच को फ्री में, चन्दा से, या अनुदान आदि से स्वचालित होने वाली चीज़ में परिवर्तित कर दिया है। दर्शक और उसके पॉकेट पर ज़्यादा काम हुआ ही नहीं है। शायद यही वजह है कि हम हमेशा ही अभावग्रस्त हैं। और यह काम किसी एक के चाहने से होगा भी नहीं बल्कि सबको साथ आना होगा। हाँ, यह रिश्ता माल और कन्ज्यूमर वाला नहीं होना चाहिए बल्कि कला और उसके प्रोत्साहन और प्रश्रय वाला बनाना होगा। सार्थक कला को प्रोत्साहित करने वाले लोग हैं सर और नहीं हैं या कम हैं तो उहें गढ़ने का काम भी चले।
पप्पू तरुण – ऐसे क़दम हर हाल सही है, आख़िर इस आर्थिक समाजिक ब्यवस्था में बीना अर्थ के न रंग आऐगा, न कर्म हो पाऐगा
अनिमेष जोशी - इसलिए मैंने नाटक देखना काफी कम कर दिया है। दो साल में बहुत करीब से देखा है। आपकी बात का मैं समर्थन करता हूँ।
राजेश चंद्र - सहमत। इसे अमल में लाया जाना निहायत ज़रूरी है।
राज शर्मा – कारण है नाटकों की गुणवत्ता और इन्टरटेनमेंट टेक्स।
रेखा सिंह – रंगमंच को हर तरह से समृद्ध और लोकप्रिय बनाने के लिए इस टिकट व्यवस्था को लागू करना ज़रुरी है।
डॉक्टर सत्यदेव - आपकी बातों से सहमत हूं,मगर फिर भी जुगारुलालों को तो पास चाहिए ही चाहिए।
अभय अवस्थी - सबसे बड़ी जो दिककत है, कि आजकल कोई भी नाटक कर सकता है, उसकी क्वालिटी 200 rs के टिकट की है या नहीं ये कोई डिसाइड नहीं करता।
उदाहरण के लिए : पहली बार जो नाटक देखने जा रहा है 200 रूपए का टिकट। पेट्रोल वगैरह और अपना कीमती वक्त देकर - - हम उसे दे क्या रहे हैं? अब पहली बार में मैंने 200 का टिकट खरीदकर देखा, नए लड़के थे जिन्हें हम एमोच्योर कहते हैं, वो सिखा रहे थे लेकिन मैंने तो 200 दिया ना। नाटक का स्तर ऐसा कि 10 मिनट बाद मुझे लगा कि इससे अच्छा तो किताब लेके पढ़ लेता। 50 रूपया बचता तो कुछ खाया भी जा सकता था।
अब चुकी मेरा पहला ही अनुभव ऐसा था तो यही अनुभव मैंने दस को बताया और दो टीन गलियां भी साथ में जोड़ दीं। विजय तेंदुलकर जी कहते हैं इस दुनिया का जितना नुकसान कुटिल लोगो ने नही किया उससे कहीं ज्यादा मूर्खों ने किया है। मार्केटिंग का नियम है is the product worth xyz selling price ?
पुंज प्रकाश - नाट्यकला और उस क्षेत्र में काम करनेवालों के बारे में थोड़ी जानकारी रखने से शायद ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है।
अनिल शर्मा - आपकी बात सही है ,किसी भी कला को मारना हो ,,खत्म करना हो तो उसे राजकीय सहयोग से जोड दो ,धीरे धीरे खुद खत्म हो जायेगी ,और यही हो रहा है
अनघा देशपांडे – यह सही है। पर बहुत मुश्किल है। गोवा में तो इतनी आदत हो चुकी है लोगों को - - डर लगता है टिकट रखने को भी!
पुंज प्रकाश - कोशिश तो किया ही जाना चाहिए। ठीक है कम लोग आएंगें। कोई बात नहीं। बल्कि एक ही आदमी आए लेकिन टिकट लेकर। मैं ऐसे कई ग्रुप को जानता हूँ जिसके बारे में लोग यह जान गए हैं की इनका नाटक देखना है तो टिकट लेना ही पड़ेगा।
राज शर्मा – एक बात और – इंटरटेमेंट टेक्स के बजाय इनकम टेक्स लगना चाहिए, वो भी 5%। सारे खर्चे निकालने के बाद। इससे लागत के बाद producer की हिम्मत दुबारा शो करने की पड़ेगी। एक खास बात बताऊँ – कोई भी कलाकार किसी एक नाटक में अभिनय क्या कर लेता है अगली बार खुद निर्देशक बन जाता है।
अविनाश दास - मुंबई में पिया बहुरूपिया के सारे शो एक हफ्ते पहले से बुक माइ शो पर सोल्ड आउट (हाउसफुल) थे। जबकि चार दिन तक शो थे लगातार। शनिवार और रविवार को तो दो दो शो थे। मैं स्वानंद किरकिरे से कहा, तो उन्होंने गीतांजलि कुलकर्णी के जरिये दो टिकट किसी तरह काउंटर पर रखवा दिया। आमतौर पर लोग इस व्यवस्था को पास समझने की भूल कर बैठते। लेकिन टिकट रखवाया, जिसका मूल्य चुकाने के बाद ही वह मुझे मिलता। पांच सौ रुपये के टिकट थे और मैंने हज़ार रुपये देकर दोनों टिकट ख़रीदे, तभी नाटक देख पाया।
विवेक कुमार तिवारी – मुझे लगता है कि जो नाटक सामान्य तरीके से खेले जाते हैं, वो लोकप्रिय होते हैं। जहाँ एक्सपेरीमेंट की बात आती है, दर्शक उब जाते हैं। हमने अपने नाटकों के लिए कुछ खास किस्म के दर्शक तैयार किए हैं और उन्हीं के फीडबैक में चलते हैं लेकिन आम आदमी यदि रंगमंच को एक्सेप्ट करता है तो यह समस्या कुछ खास नहीं – टिकट बिकेंगे। बस ज़मीनी हकीकत को पहचानना पड़ेगा।
पुंज प्रकाश - प्रयोग नाटक की आत्मा है, वह होते रहना चाहिए। प्रयोग से ही कोई भी कला या समाज आगे बढ़ता है। हाँ, प्रयोग सफल-असफल दोनों प्रकार के होंगें। होने भी चाहिए। प्रयोग से ही नवीनता बनी रहती है। इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है।
यह सही है कि हम जो खाते रहे हैं उसी को खाने में सहजता महसूस करते हैं लेकिन अलग अलग प्रकार के बेहतरीन टेस्ट और भी हैं दुनियां में, उसे भी आजमाने में कोई बुराई नहीं।
विवेक कुमार तिवारी – मैंने दर्शकों के नज़रिए से कहा, आप मेरी बातों को समझें। देखिए, लोक नाटकों में बिदेसिया या हबीब साहेब के नाटकों पर बात करें तो आसानी से स्वीकार किया जाता है, वो सहजता से नाटक करते हैं।
पुंज प्रकाश - विवेक भाई, दर्शकों के पसंद में बहुत विविधता है। हम दावे से यह कह ही नहीं सकते कि ऐसे नाटक ही लोगों को पसंद आते हैं। और फिर हबीब साहेब के काम और बिदेसिया में बहुत प्रयोग है, वो प्रयोग सफल हो गए इसलिए हम उसका नाम लेते हैं। और फिर यह ज़रूरी नहीं कि हर रंगकर्मी लोकशैली का ही नाटक करे। नाटक की कई अन्य शैलियाँ भी हैं, उसपर भी काम होगा ही। नई शैली विकसिक करने का प्रयास और प्रयोग भी होगा ही।
दरअसल, हम किसी भी नए प्रयोग से घबराने वाले लोग हैं और उसे तबतक स्वीकार नहीं करते जबतक वो सफल नहीं हो जाता।
सुब्रो भट्टाचार्या - मुझे लगता है एक सेंसर कमीटी जैसी चीज़ भी होनी चाहिए जो ये तय करें की ये नाटक प्रस्तुति के लायक है या नहीं।अन्यथा कई बार पैसा देकर देखने वाला ही हमारा दुष्प्रचारक बन बैठेगा। स्तर के आधार पर टिकट लगाने में कोई बुराई नही है।
प्रभात सौरव – नाटक का ग्रेड तय करने के लिए कमिटी हो, पर उस कमिटी में कौन हों? पटना रंगमंच में सहमति की तरह हर तरह की स्थिति है।
रंगमंच से पास या कार्ड सिस्टम खत्म होकर, टिकट सिस्टम लागू होना चाहिए साथ ही नाटकों का प्रोडक्शन रेट तय हो। फ़ोकट में एक दूसरे की वाह वाह और हाय हाय करने से दरिद्रता का ही साम्राज्य बना रहेगा और रंगकर्मी इस या उस ग्रांट/डोनेशन/चंदा के चक्कर में अपनी ऐसी-तैसी कराता रहेगा।
किसी भी कला को अगर स्वाबलंबी बनना है तो उसे हर क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़ा होना ही होगा। तभी आप निडर होकर काम कर सकते हैं।
भाई, पास न मिलने पर मुंह फुलाना बंद करो। नाटक किसी का भी हो, यदि देखना है तो टिकट कटाओ।
खूब मेहनत से नाटक बनाओ। नाटक से कमाओ - नाटक में लगाओ, टिकटवाले दर्शक बनाओ और जो बचे उसे बांटकर खाओ।”
जो कुछ प्रतिक्रियाएं मिलीं वह निम्न हैं। - माडरेटर मंडली
उमेश आदित्य - बात आपकी है 100% सही श्रीमान, लेकिन छोटे शहरों में कैसे चले काम? चंदा जहाँ उठा लेते हैं नेताओं के गुर्गे सारे, दस बीस हज़ार जुटाने में भी फटती है प्यारे, नेताओं के पिछलग्गू उठाते, लाखों -लाख की राशि, सही काम करने वाले करते फाकाकसी, पर बात आपकी सचमुच अच्छी लगती है, रंगमंच के दिन ऐसे ही सुधरेंगे, जब लोग हमारे टिकट ले नाटक देखेंगे।
पुंज प्रकाश - छोटे शहरों और गाँव में लोग फ़िल्म के लिए पैसे निकालते हैं, dth के लिए पैसे निकालते हैं, मोबाईल में बैलेंस और नेट पैक के लिए भी अब पैसे निकाल रहे हैं तो नाटक के लिए क्यों नहीं निकालेगें। प्रयास तो किया जाय, मुश्किल है लेकिन असंभव तो बिलकुल भी नहीं।
दिनेश चौधरी - अब जरा इसके दूसरे पहलू को देखें। अपने पड़ोस में जिला मुख्यालय राजनांदगांव है। मुक्तिबोध का शहर। कई सालों से नाटकों से वंचित। यहाँ नाटक करने जाएँ तो टिकिट सेल नहीं होगी। आयोजक डूब जायेगा। डोंगरगढ़ में हो सकता है। तो इसका मतलब ये हुआ कि टिकिट वाले रंगमंच की जमीन शौकिया थिएटर को ही तैयार करनी है। फिर हमारा अनुभव जुदा है। जो हजार रूपये का चन्दा देते हैं वो नाटक देखने नहीं आते। 500 वाले आते हैं। इन सबकी संख्या 40-50 के आसपास है, जिनसे 50-60 हजार निकल आते हैं। इतने टिकिट बेच पाना असम्भव है। सनद रहे कि यह बात छोटे कस्बे के संदर्भ में कही जा रही है, तो यह मसला शहर से जुदा हो सकता है। हाँ, अगर हम टिकिट बेचकर रंगकर्म करते हैं तो हम दर्शक के प्रति जवाबदेह हो जाते है और नाटक की गुणवत्ता में सुधार आ सकता है। कम से कम शिल्प में। बाकी कंटेंट तो जाहिर है की अंततः कंज्यूमर ही तय करेगा!
पुंज प्रकाश - सर, किसी भी शहर, गाँव, क़स्बा में एक लम्बी प्रक्रिया से ही बदलाव संभव है। शौकिया रंगमंच यदि लाख - लाख रुपए चंदा कर सकता है तो किसी भी नाटक का टिकट भी आसानी से बेच सकता है। अपने यहाँ (खासकर हिंदी बेल्ट में) समस्या यह है सर कि हमने रंगमंच को फ्री में, चन्दा से, या अनुदान आदि से स्वचालित होने वाली चीज़ में परिवर्तित कर दिया है। दर्शक और उसके पॉकेट पर ज़्यादा काम हुआ ही नहीं है। शायद यही वजह है कि हम हमेशा ही अभावग्रस्त हैं। और यह काम किसी एक के चाहने से होगा भी नहीं बल्कि सबको साथ आना होगा। हाँ, यह रिश्ता माल और कन्ज्यूमर वाला नहीं होना चाहिए बल्कि कला और उसके प्रोत्साहन और प्रश्रय वाला बनाना होगा। सार्थक कला को प्रोत्साहित करने वाले लोग हैं सर और नहीं हैं या कम हैं तो उहें गढ़ने का काम भी चले।
पप्पू तरुण – ऐसे क़दम हर हाल सही है, आख़िर इस आर्थिक समाजिक ब्यवस्था में बीना अर्थ के न रंग आऐगा, न कर्म हो पाऐगा
अनिमेष जोशी - इसलिए मैंने नाटक देखना काफी कम कर दिया है। दो साल में बहुत करीब से देखा है। आपकी बात का मैं समर्थन करता हूँ।
राजेश चंद्र - सहमत। इसे अमल में लाया जाना निहायत ज़रूरी है।
राज शर्मा – कारण है नाटकों की गुणवत्ता और इन्टरटेनमेंट टेक्स।
रेखा सिंह – रंगमंच को हर तरह से समृद्ध और लोकप्रिय बनाने के लिए इस टिकट व्यवस्था को लागू करना ज़रुरी है।
डॉक्टर सत्यदेव - आपकी बातों से सहमत हूं,मगर फिर भी जुगारुलालों को तो पास चाहिए ही चाहिए।
अभय अवस्थी - सबसे बड़ी जो दिककत है, कि आजकल कोई भी नाटक कर सकता है, उसकी क्वालिटी 200 rs के टिकट की है या नहीं ये कोई डिसाइड नहीं करता।
उदाहरण के लिए : पहली बार जो नाटक देखने जा रहा है 200 रूपए का टिकट। पेट्रोल वगैरह और अपना कीमती वक्त देकर - - हम उसे दे क्या रहे हैं? अब पहली बार में मैंने 200 का टिकट खरीदकर देखा, नए लड़के थे जिन्हें हम एमोच्योर कहते हैं, वो सिखा रहे थे लेकिन मैंने तो 200 दिया ना। नाटक का स्तर ऐसा कि 10 मिनट बाद मुझे लगा कि इससे अच्छा तो किताब लेके पढ़ लेता। 50 रूपया बचता तो कुछ खाया भी जा सकता था।
अब चुकी मेरा पहला ही अनुभव ऐसा था तो यही अनुभव मैंने दस को बताया और दो टीन गलियां भी साथ में जोड़ दीं। विजय तेंदुलकर जी कहते हैं इस दुनिया का जितना नुकसान कुटिल लोगो ने नही किया उससे कहीं ज्यादा मूर्खों ने किया है। मार्केटिंग का नियम है is the product worth xyz selling price ?
पुंज प्रकाश - नाट्यकला और उस क्षेत्र में काम करनेवालों के बारे में थोड़ी जानकारी रखने से शायद ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है।
अनिल शर्मा - आपकी बात सही है ,किसी भी कला को मारना हो ,,खत्म करना हो तो उसे राजकीय सहयोग से जोड दो ,धीरे धीरे खुद खत्म हो जायेगी ,और यही हो रहा है
अनघा देशपांडे – यह सही है। पर बहुत मुश्किल है। गोवा में तो इतनी आदत हो चुकी है लोगों को - - डर लगता है टिकट रखने को भी!
पुंज प्रकाश - कोशिश तो किया ही जाना चाहिए। ठीक है कम लोग आएंगें। कोई बात नहीं। बल्कि एक ही आदमी आए लेकिन टिकट लेकर। मैं ऐसे कई ग्रुप को जानता हूँ जिसके बारे में लोग यह जान गए हैं की इनका नाटक देखना है तो टिकट लेना ही पड़ेगा।
राज शर्मा – एक बात और – इंटरटेमेंट टेक्स के बजाय इनकम टेक्स लगना चाहिए, वो भी 5%। सारे खर्चे निकालने के बाद। इससे लागत के बाद producer की हिम्मत दुबारा शो करने की पड़ेगी। एक खास बात बताऊँ – कोई भी कलाकार किसी एक नाटक में अभिनय क्या कर लेता है अगली बार खुद निर्देशक बन जाता है।
अविनाश दास - मुंबई में पिया बहुरूपिया के सारे शो एक हफ्ते पहले से बुक माइ शो पर सोल्ड आउट (हाउसफुल) थे। जबकि चार दिन तक शो थे लगातार। शनिवार और रविवार को तो दो दो शो थे। मैं स्वानंद किरकिरे से कहा, तो उन्होंने गीतांजलि कुलकर्णी के जरिये दो टिकट किसी तरह काउंटर पर रखवा दिया। आमतौर पर लोग इस व्यवस्था को पास समझने की भूल कर बैठते। लेकिन टिकट रखवाया, जिसका मूल्य चुकाने के बाद ही वह मुझे मिलता। पांच सौ रुपये के टिकट थे और मैंने हज़ार रुपये देकर दोनों टिकट ख़रीदे, तभी नाटक देख पाया।
विवेक कुमार तिवारी – मुझे लगता है कि जो नाटक सामान्य तरीके से खेले जाते हैं, वो लोकप्रिय होते हैं। जहाँ एक्सपेरीमेंट की बात आती है, दर्शक उब जाते हैं। हमने अपने नाटकों के लिए कुछ खास किस्म के दर्शक तैयार किए हैं और उन्हीं के फीडबैक में चलते हैं लेकिन आम आदमी यदि रंगमंच को एक्सेप्ट करता है तो यह समस्या कुछ खास नहीं – टिकट बिकेंगे। बस ज़मीनी हकीकत को पहचानना पड़ेगा।
पुंज प्रकाश - प्रयोग नाटक की आत्मा है, वह होते रहना चाहिए। प्रयोग से ही कोई भी कला या समाज आगे बढ़ता है। हाँ, प्रयोग सफल-असफल दोनों प्रकार के होंगें। होने भी चाहिए। प्रयोग से ही नवीनता बनी रहती है। इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है।
यह सही है कि हम जो खाते रहे हैं उसी को खाने में सहजता महसूस करते हैं लेकिन अलग अलग प्रकार के बेहतरीन टेस्ट और भी हैं दुनियां में, उसे भी आजमाने में कोई बुराई नहीं।
विवेक कुमार तिवारी – मैंने दर्शकों के नज़रिए से कहा, आप मेरी बातों को समझें। देखिए, लोक नाटकों में बिदेसिया या हबीब साहेब के नाटकों पर बात करें तो आसानी से स्वीकार किया जाता है, वो सहजता से नाटक करते हैं।
पुंज प्रकाश - विवेक भाई, दर्शकों के पसंद में बहुत विविधता है। हम दावे से यह कह ही नहीं सकते कि ऐसे नाटक ही लोगों को पसंद आते हैं। और फिर हबीब साहेब के काम और बिदेसिया में बहुत प्रयोग है, वो प्रयोग सफल हो गए इसलिए हम उसका नाम लेते हैं। और फिर यह ज़रूरी नहीं कि हर रंगकर्मी लोकशैली का ही नाटक करे। नाटक की कई अन्य शैलियाँ भी हैं, उसपर भी काम होगा ही। नई शैली विकसिक करने का प्रयास और प्रयोग भी होगा ही।
दरअसल, हम किसी भी नए प्रयोग से घबराने वाले लोग हैं और उसे तबतक स्वीकार नहीं करते जबतक वो सफल नहीं हो जाता।
सुब्रो भट्टाचार्या - मुझे लगता है एक सेंसर कमीटी जैसी चीज़ भी होनी चाहिए जो ये तय करें की ये नाटक प्रस्तुति के लायक है या नहीं।अन्यथा कई बार पैसा देकर देखने वाला ही हमारा दुष्प्रचारक बन बैठेगा। स्तर के आधार पर टिकट लगाने में कोई बुराई नही है।
प्रभात सौरव – नाटक का ग्रेड तय करने के लिए कमिटी हो, पर उस कमिटी में कौन हों? पटना रंगमंच में सहमति की तरह हर तरह की स्थिति है।
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