रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

‘बाकी इतिहास’ ने पटना के रंगमंच को बदल कर रख दिया

♦ सतीश आनंद

ब से सुना है कि बादल सरकार नहीं रहे, एक गहरा रंग-आघात लगा है। गहरी उदासी सी छा गयी है। एक गहरी सोच में डूब गया हूं। बादल सरकार के नाटक ने मेरे व्‍यक्तिगत रंग जीवन में एक आमूल गुणात्‍मक परिवर्तन लाने का काम किया। दूसरी ओर बिहार के आधुनिक रंगकर्म में भी बादल सरकार के नाटकों का उतना ही महत्‍वपूर्ण योगदान है। कला संगम की ओर से बादल सरकार के बाकी इतिहास, पगला घोड़ा, जुलूस, बल्‍लभपुर की रूप कथा नाटकों का मंचन किया था। यादों के पंख मुझे उड़ा कर 1968 की ओर ले आये हैं।

कला संगम द्वारा देवर-भाभी नाटक के कई सफल प्रदर्शन के बाद एक नये नाटक की तलाश थी। भगवान बाबू (स्‍व भगवान प्रसाद) ने मना कर दिया था कि वह कला संगम के लिए नये नाटक का निर्देशन नहीं कर सकेंगे, क्‍योंकि उन्‍हें दरभंगा में अपनी संस्‍था के साथ टूर करना है। अब निर्देशक की भी तलाश शुरू हुई। प्‍यारे बाबू (स्‍व प्‍यारे मोहन सहाय) भी देवर भाभी का मंचन देखने आये थे, काफी प्रभावित थे कला संगम की प्रस्‍तुति से और प्रभावशाली अभिनय से। आकाशवाणी में एक रेडियो नाटक के दौरान मैंने उनके सामने नाटक के निर्देशन का प्रस्‍ताव रखा। पहले तो मना कर दिया। बोले पिछले छह-सात वर्षों से मैं रंगमंच से पूरी तरह कटा हुआ हूं, पारिवारिक और निजी व्‍यस्‍तताओं के चलते मंच पर नहीं आया हूं। लेकिन मेरे कई दिन तक लगातार अनुरोध करने पर वह मान गये।

संयोग से बादल सरकार का नया नाटक बाकी इतिहास छप चुका था। हिंदी में उसका अनुवाद प्रकाशित हुआ था। नटरंग में नाटक के बारे में पढ़ चुका था। राजकमल प्रकाशन से साढ़े तीन रुपये में एक प्रति खरीदी और एक बार में ही पढ़ गया। नये आलेख और बिल्‍कुल नये नाट्य-शिल्‍प की वजह से नाटक पूरी तरह से चर्चा में था। ऐसा भी कह सकते हैं कि भारतीय रंगमंच में नाट्यालेखन में एब्‍सर्ड थिएटर की दिशा का रास्‍ता बाकी इतिहास ने खोला। कलकत्ता में घटित आत्‍महत्‍या की एक सच्‍ची घटना को आधार बना कर मध्‍य वर्ग में फैलता हुआ असुरक्षा का भाव, एक अनजाना भय, अकेला होता आदमी, घुटन, निराशा, एक दूसरे के प्रति संदेह, अविश्‍वास का भाव, जिसने आपसी पारिवारिक रिश्‍तों में दरार पैदा की, आत्‍मघाती प्रवृत्ति का जन्‍म आदि, को लेकर एक बड़े फलक पर जाकर पूरे मानव इतिहास में मानव और मानवता से जुड़े प्रश्‍नों को खड़ा किया।

नाटक चुनौतियों से भरा था। निर्देशक से लेकर एक्‍टर्स तक के लिए इसका मंचन चुनौतियों से भरा था। कलकत्ता में शंभु मित्र के निर्देशन में बाकी इतिहास के सफल मंचन हो चुके थे। जिसकी काफी चर्चा थी।

सिर्फ दो महिला पात्र थीं। इतना तो प्रबंध हो ही जाएगा। हरि शरण, प्रेम दत्ता और सुमन कुमार से बात की। हम सभी नाटक पढ़ कर अति उत्‍साहित थे। प्‍यारे बाबू के पास नाटक लेकर पहुंचा। उनसे बात की। नाटक की विषय-वस्‍तु को लेकर मैंने बात की। मुझे नाटक में जो समझ आया था, उसकी भी चर्चा की। प्‍यारे बाबू ने नाटक पढ़ने के लिए रख लिया और मुझे दो दिनों बाद आने के लिए कहा। प्‍यारे बाबू तैयार हो गये। अब तलाश दो अभिनेत्रियों की शुरू हुई। 1968-69 में पटना में कहां ऐसी परिपक्‍व अभिनेत्रियां मिलेंगी? सबने बहुत तलाश की। जहां कहीं भी पता चलता, जाते, उससे मिलते। निराशा ही हाथ लगती। कई बार सभी कहते, कोई दूसरा नाटक ढूंढा जाए, जिसमें एक भी स्‍त्री पात्र न हो। लेकिन मैं अपने अंदर दृढ़ निश्‍चय कर चुका था कि अगला नाटक बाकी इतिहास ही करूंगा।

उन दिनों आकाशवाणी पटना में शीला दैसों स्‍टाफ आर्टिस्‍ट हुआ करती थीं। रेडिया की बहुत ही अच्‍छी कलाकार थीं। वर्सेटाइल ड्रामा आर्टिस्‍ट। बहुत अनुरोध के बाद वह तैयार हुईं। लेकिन मुश्किल यह थी कि उनकी ड्यूटी रेडियो में रात साढ़े सात तक होती थी।
मंजूश्री चक्रबर्ती बहुत अच्‍छी गायिका थीं। काफी नाम था उनका। उनकी छोटी बहन श्‍यामली चक्रबर्ती एक अच्‍छी डांसर थी। अभिनय उसने कभी किया नहीं था। उसके घर अभिनय करने का प्रस्‍ताव ले कर गया। मंजूश्री मुझे जानती थीं। कला संगम के सभी नाटक देखने आती थीं। वेल-विशर थीं। किसी तरह उन्‍हें मनाया गया। डांसर है, कभी अभिनय किया नहीं, कैसे करेगी आदि-आदि शंकाएं थीं उनकी। रिहर्सल में कैसे जाएगी? वापिस आने का क्‍या प्रबंध होगा? वगैरह-वगैरह। मैंने सभी तरह के आश्‍वासन दिये। अंत में वह मान गयीं।

अब समस्‍या थी कि रिहर्सल कहां करेंगे? एक प्रश्‍न आ खड़ा हुआ, अगर शीला दैसों को कास्‍ट करना है तो रिहर्सल रात आठ बजे से करनी होगी। रात में रिहर्सल का कमरा कहां मिलेगा और कौन देगा? एक बार फिर सब परेशान।

डॉ पीएन सिन्‍हा कला संगम के प्रेसीडेंट थे उन दिनों। उनके पास समस्‍या लेकर गया। पहले उन्‍होंने भी सलाह दी कि नाटक बदल डालो। कोई दूसरा नाटक करो। जब मैंने बाकी इतिहास का थीम बताया तो बहुत प्रभावित हुए। फिर कुछ सोच कर बोले, तुम्‍हारी भाभी (डॉ साहब की वाइफ) मायके जा रही हैं। लगभग दो महीने के लिए। मेरे यहां ड्राइंग रूम में रिहर्सल कर सकते हो। मैं बड़ा कृतज्ञ हुआ, खुश हुआ और दूसरे दिन यह खबर सब को बतायी कि रिहर्सल की जगह मिल गयी है। डॉ पीएन सिन्‍हा के राजेंद्र नगर स्थित मकान में।

बाकी इतिहास की रिहर्सल रोज रात आठ, साढ़े आठ से लेकर रात डेढ़-दो बजे तक होती थी। मैं इसमें सीता नाथ की भूमिका कर रहा था। अरुण कुमार सिन्‍हा (आकाशवाणी पटना के अनाउंसर) इसमें शरद की भूमिका कर रहे थे। सुमन कुमार, हरि शरण, महावीर सिंह आजाद, दिलीप सिन्‍हा, बीके प्रसाद के साथ नाटक की रिहर्सल शुरू हुई। ज्‍यों-ज्‍यों नाटक की रिहर्सल होती गयी, मेरी समझ और दृष्टि में एक परिवर्तन आने लगा। सीता नाथ के चरित्र का विश्‍लेषण करते-करते मेरे अंदर एक गंभीरता ने जन्‍म ले लिया। मैं एक बहुत अच्‍छा अभिनेता हूं, लोग या दर्शक तो मानते ही थे लेकिन पहले के पात्रों का अभिनय करते समय मैं भीतर से जैसा महसूस किया करता था, वैसा इस बार नहीं था बल्कि एक नया एहसास, चरित्र के साथ एक गहरा संबंध महसूस करने लगा। स्‍थूल भावनाओं के स्‍थान पर चरित्र की सूक्ष्‍म चारित्रिक विशेषताओं की ओर ध्‍यान रखने लगा। सामाजिक संबंधों और आपसी रिश्‍तों की बारीकियों को भी समझने का अवसर मिला। सिर्फ समझने का ही नहीं, उसे जीवंत मंच पर अभिनीत करने का चैलेंज था। नाटक के दो प्रदर्शन रवींद्र भवन में हुए। दर्शकों और समीक्षकों ने मुक्‍त कंठ से मंचन की प्रशंसा की।

बाकी इतिहास की सफलता ने मुझे एक नयी दृष्टि दी नाटक को समझने की। अभिनय का अर्थ केवल तालियां बटोरना और वाहवाही लूटना नहीं बल्कि एक गहरी सूक्ष्‍म दृष्टि की भी आवश्‍यकता है। नाटक का जब भी चुनाव किया जाए, तो स्‍थूल मेलोड्रामाटिक कथ्‍य ही न हो, बल्कि सामाजिक सरोकार से जुड़े प्रश्‍नों को खड़ा करती विषय-वस्‍तु हो। बाकी इतिहास के बाद सन 2000 तक कला संगम ने जितने नाटक किये, उनके पीछे यही दृष्टि काम करती रही है और समय के अंतराल में यह दृष्टि और भी परिपक्‍व होती गयी।

बाकी इतिहास के बाद पटना के रंगमंच पर एक गंभीर रंगकर्म शुरू हुआ। बाकी इतिहास का एक प्रदर्शन कला संगम ने 1970 में भी किया था, आईएमए हॉल में। श्री नेमिचंद जैन मुख्‍य अतिथि थे। नेमि जी ने नाटक का हिंदी में अनुवाद किया था। उनकी उपस्थिति से कला संगम के सभी कलाकार उत्‍साहित थे। उनकी राय जानने के लिए मैं उत्‍सुक था कि हम नाटक के कथ्‍य और पात्रों का अभिनय करते हुए कितना न्‍याय कर पाये। नेमि जी को मंचन बहुत पसंद आया। मुक्‍त कंठ से उन्‍होंने प्रशंसा की। पटना जैसे छोटे शहर की संस्‍था बादल सरकार के नाटक को खेलने का साहस कर पायी है और अपने इस प्रयास में सफल हुई है। यह पटना के रंगमंच के लिए शुभ लक्षण हैं।

अगले दिन नेमि जी के सम्‍मान में डॉ पीएन सिन्‍हा के निवास पर एक सभा गोष्‍ठी की गयी, जिसमें प्‍यारे बाबू, कला संगम के सभी कलाकार, सदस्‍य और पटना के अन्‍य रंगकर्मी उपस्थित थे। उसी गोष्‍ठी में नेमि जी ने हिंदी रंगमंच की दशा और दिशा पर बोलते हुए मुझे इंगित करते हुए कहा कि ‘सतीश एक कुशल और प्रतिभावान अभिनेता है, मैं उसके अभिनय से प्रभावित हुआ हूं। मैं चाहूंगा कि सतीश अपने अभिनय को और अधिक निखारने के लिए एनएसडी में प्रशिक्षण लें। इससे केवल उनका व्‍यक्तिगत विकास नहीं बल्कि उन्‍हें एक बड़ा कैनवास भी मिलेगा, जिसका बिहार के रंगमंच और रंगकर्म को लाभ होगा।’ नेमि जी के इन आशीर्वचनों ने मुझे पर गहरा प्रभाव डाला और मैंने निश्‍चय कर लिया कि मैं राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय अवश्‍य ही जाऊंगा। और मैंने 1971 में एनएसडी में दाखिला ले लिया।

बाकी इतिहास की सफलता ने प्‍यारे बाबू को पटना रंगमंच पर पुन: सक्रिय कर दिया। प्‍यारे बाबू ने अपनी संस्‍था को रिवाइव किया और नाटकों का मंचन करने लगे। मैं इन सारी रंग गतिविधियों का श्रेय बाकी इतिहास और बादल सरकार को देता हूं।

उस महान नाटककार को मेरा शत-शत नमन!

(सतीश आनंद। आधुनिक भारतीय रंगमंच के अगुआ। कला संगम की गतिविधियों के जरिये साठ और सत्तर के दशक में बिहार के रंगमंच को एक व्‍य‍वस्थित रंग-रूप दिया। कई राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिले। बिहार संगीत नाटक अकादमी के उपाध्‍यक्ष भी रहे। फिलहाल एएएफटी (एशियन एकेडमी ऑफ फिल्‍म एंड टीवी) के एक्टिंग डिपार्टमेंट में डीन हैं।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें