यह महत्वपूर्ण निबंध जगदीश चन्द्र माथुर ने सन 1950 ई. में पटना कालेज साहित्य परिषद् के लिए लिखा था। आज़ादी या
सत्ता परिवर्तन/हस्तांतरण के बाद का यह काल भारतीय इतिहास में पुनर्निर्माण का काल
के रूप में विख्यात है। अपने इस निबंध में माथुर जी ने जिन आशंकाओं से आगाह करना
चाह था आज वो हमारे सम्मुख मुंह खोले बड़ी शान से खड़ी हैं। माथुर जी की आशंकाओं
पर अगर वक्त रहते ध्यान दिया गया होता तो आज हमारे मुल्क की कला, संस्कृति और रंगमंच की शायद ये
दुर्दशा ना हुई होती - माडरेटर मंडली .
भारतीय रंगमंच और
नाटक के पारस्परिक सम्बन्ध और विकास की चर्चा करते हुए मैंने पहले भी यह मत प्रकट
किया था कि सिनेमा के प्रचंड वैभव के बावजूद हमारे रंगमंच का पुनरुथान अवश्यम्भावी
है, क्योंकि सिनेमा मनोरंजन की चाहत को पूरा करता है, परन्तु संस्कारों के भार से
दबी और भूली-सी अभिनयात्मक आदिम प्रवृति को पूरा-पूरा मौका नहीं देता है और न
दर्शकों को अभिनेताओं के मायावी लोक में अपनी हस्ती खो देने का निमंत्रण देता है।
सिनेमा का पर्दे पर चलती-फिरती और जादूगरी से बोलनेवाली मुर्तियों से प्रदर्शन के
समय रागात्मक सम्बन्ध स्थापित होना उतना ही दूभर है, जितना किसी स्वप्न-सुंदरी से
नाता जुडना।
किन्तु कौन सा वह
रंगमंच होगा और कैसी वह नाट्यशैली, जो आधुनिक मनोरंजन के अपूर्व साधनों से लोहा
लिए बिना फिर से हमारे समाज में उपयुक्त स्थान पा सकें।
यदि हिंदी में
राष्ट्रीय रंगमंच के उदय से तात्पर्य है अभिनय के नियम, रंगशाला की बनावट,
प्रदर्शन की विधि, इन सभी के लिए एक सर्वस्वीकृत परम्परा और शैली की अवतारणा होना,
तो ऐसे रंगमंच का अस्त भी शीघ्र ही होगा। राष्ट्रीय रंगमंच की धारणा के पीछे
राजनितिक ऐक्य के लक्ष का आग्रह है। गुलामी के बादलों में से उगते हुए समाज की
प्रत्येक चेष्टा में राजनितिक विचारों का प्रभाव हो, यह स्वाभाविक ही है। दुनियां
में जहाँ कहीं राष्ट्र निर्माण की ओर मानव-समाज झुका वहीं निर्माण के प्रत्येक
क्षेत्र पर राजनितिक विचारधारा ने आसान जा फैलाया। एक भाषा, एक राष्ट्र, एक
शिक्षा-प्रणाली और एक संस्कृति का नारा विभिन्न देशों और विभिन्न युगों में उठाया
जा चुका है और आज भारत में भी इसकी गूंज है; किन्तु और क्षेत्रों में इसका जो भी
फल हो, सांस्कृतिक विकास के लिए यह सौदा प्रायः महंगा ही बैठता है। अठारहवीं सदी
के अंत में जर्मनी, जो उस समय तक विश्रृंखल रियासतों का समूह मात्र थी, अपने
आधुनिक राष्ट्रीय एकता के आदर्श की ओर तीब्र गति से अग्रसर हो रही थी। तभी एक
जर्मन संस्कृति के नाम पर जर्मन राष्ट्रीय रंगमंच के निर्माण में तत्कालीन जर्मन
नेताओं ने उग्र कट्टरता के साथ हाथ लगाया। परिणामतः रंगमंच की एकांगी उन्नति तो
हुई, किन्तु साथ ही जर्मन का पुरातन दरबारी रंगमंच, जिसकी समृद्दि में विभिन्न
वर्गों के पारस्परिक संबंधों की छटा प्रफुटित हुई थी, मटियामेट हो गई। उससे भी
अधिक हानी हुई घुमती-फिरती नाटक-मंडलीयों के ह्रास के कारण। इन घुमंतू अभिनेताओं
के माध्यम से जर्मनी की साधारण जनता बोलती थी। उसके स्थान पर राष्ट्रीय एकता से
अभिप्रेरित, एक विशिष्ट शैली के रंगमंच की स्थापना हुई और वही शैली जर्मन के
विभिन्न नगरों में प्रचलित होती गई।
मुझे आशंका है की
कहीं वैसी ही भूल हम लोग भी अपनी आज़ादी के उषा:काल में न कर बैठे। स्वाधीन भारत को
राजनीतिक एकता की ज़रूरत है किन्तु भारतीय संस्कृति के लिए विविधता अपेक्षणीय है।
जो एक के लिए अमृत है दूसरे के लिए विष। जिन बादलों को बरसकर धरती को अन्न देना
है, वे एक रंग के हों, इसी में कल्याण है, पर जो सूर्य की किरणों से ज्योतित हो हमारी
सौंदर्याभिलाशिणी आत्मा को तृप्त करें, ऐसे बादलों को तो सतरंगी ही होना है।
अतः राजनीतिक
दृष्टिकोण से राष्ट्रीय रंगमंच की रूप-रेखा निश्चित नहीं की जा सकती, नहीं की जानी
चाहिये। यह कहा जा सकता है कि अठारहवीं सदी के जर्मन में रंगमंच की विविध जीवित
परम्पराएं थीं, किन्तु हमारे यहाँ तो साफ मैदान है, जैसी चाहें इमारत तैयार कर
लें, कुछ नष्ट करने का डर नहीं। किन्तु यह भूल है। इसी भूल के कारण भारतीय समाज और
साहित्य की वर्तमान शुष्क बलुकाराशि के नीचे जो अन्तः सलिला धारा बहती रही है,
उसमें डूबकी लगाये बगैर ही पिछले पच्चीस-तीस बरसों के हिंदी-नाटककार, प्रतिभा और
प्रयास के होते हुए भी, जीवंत नाट्य-साहित्य तैयार नहीं कर सके। एक शौकीनी (एमेचार)
रंगमंच की स्थापना अवश्य हुई, सो भी प्रसादोतर काल में। यह रंगमंच गतिशील है,
स्वास्थ्य है और समाज के एक वर्ग-विशेष की अनिवार्य मांग की पूर्ति करता है। इसलिए
इसका भविष्य उज्जवल है। एमेचर रंगमंच पाश्चात्य साहित्य के संसर्ग से उद्भूत
नाटकीय प्रेरणा की अभिव्यक्ति है और इसके द्वारा एक नई परम्परा की प्रतिष्ठा हुई
है, जिसे हमें कायम रखना है।
किन्तु जैसा कि हमने
ऊपर कहा है, हमें विस्मृत परम्पराओं की धाराओं की तोह भी लेनी है और उनके लिए
मार्ग प्रशस्त करने में ही हमारा सांस्कृतिक नवनिर्माण सफल हो सकेगा। एक अन्तः
सलिला धारा थी संस्कृत नाट्य-साहित्य में परिलक्षित रंगमंच की, ऐसा रंगमंच जो अपने
उत्कर्ष-काल में एक अनुपम सामंजस्यपूर्ण संस्कृति का परिचायक था, जिसके विभिन्न
अंगों के संतुलन में नागरिक जीवन की सर्वान्गीकता सन्निहित थी और जिसके प्रतिबंधों
में शताब्दियों के अनुभव से अर्जित ज्ञान का निमंत्रण। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस
परम्परा को उबारा सदियों के बाद। उनकी प्रतिभा की प्रचंड किरणों ने विस्मृति के
अभेद्द कारा को खंडित किया और वसंत के लुभावने समीरण के स्पर्श से हिंदी रंगमंच
जाग उठा।
भारतेंदु द्वारा
प्रतिष्ठित धारा का आगमन हिंदी-साहित्य के आधुनिक इतिहास में एक महान दुर्घटना थी।
क्यों ऐसा हुआ, इसकी भी अपनी कहानी है, जिसकी ओर हिंदी साहित्यकार का ध्यान आना
चाहिए। यहाँ संकेत के तौर पर इतना कहना काफी होगा कि विचारक्षेत्र में
उत्तर-प्रदेश के आर्यसमाजी सुधारवादी सिद्धांत, सामाजिक क्षेत्र में हिंदी भाषी
प्रान्तों के उच्चवर्गीय नेताओं की संस्कृति शून्यता, राजनितिक क्षेत्र में
स्वतंत्रता-युद्ध के परिणामस्वरूप आदर्शवादी निग्रह (
Puritanism ) की भावना और भाषा के क्षेत्र में द्विवेदी जी के
नेतृत्व में शुद्धता और इति-वृतात्मक अभिव्यंजना का आंदोलन, सभी किसी ना किसी रूप
अथवा परिस्थिति में भारतेंदु की रस-प्रवाहिन निर्झरणी के लिए मरुस्थलतुल्य
प्राणान्तक सिद्ध हुए। इस तरह हिंदी रंगमंच के उत्थान का प्रथम प्रयास, जिसका प्राचीन
संस्कृत रंगमंच से लगाव था, अधूरा ही राह गया। बाद में जो नया दौर चला, उसकी
प्रेरणा कहीं और से ही आई, और प्रसाद जी के नाटक तो एक कल्पनाजन्य रंगमंच को आधार
मानकर प्रणीत हुआ।
क्या अब पुनः उस
अधूरे यज्ञ की परिणति हो सकती है ? क्या उसकी आवश्यकता भी है इस युद्धोतर जनवादी
युग में ? मैं कहूँगा, हाँ। संस्कृत नाटक की परंपरा नूतन हिंदी रंगमंच के बहुमुखी
विकास की एक प्रधान शैली के बीच विधमान है।
यदि पाश्चात्य
यथार्थवादी रंगमंच से प्रभावित हो हमारे स्कूल, कालेजों और क्लबों द्वारा एमेचर
रंगमंच की अभिवृद्धि होगी, तो प्राचीन संस्कृत पद्धति का आधार ले और बैले इत्यादि
के साधनों से संपन्न हो एक नागरिक (Urban) और
व्यावसायिक (Professional) रंगमंच भी हमारे नगरों में
प्रस्तुत हो सकता है। ऐसे रंगमंच के लिए संस्कृत रंगमंच की कमनीयता, इसका सुरम्य
वातावरण वांछनीय है; रंगशाला की सजावट, उसके विभिन्न अंगों का वितरण, संगीत और
नृत्य का प्रचुर प्रयोग, इन सभी विषयों में संस्कृत रंगमंच की विशिष्ट धरोहर है।
सिनेमा और चिताकर्षण नृत्य-प्रदर्शन के इस युग में कोई भी व्यावसायिक और नागरिक
रंगमंच जीवन को यथातथ्य प्रतिविम्बित करनेवाले दृश्यों के सहारे नहीं पनप सकता;
किन्तु हृदयग्राही और नयनाभिराम होने के लिए हिंदी रंगमंच को पारसी थियेटर के
कृत्रिम साधनों का सहारा नहीं लेना है और न आधुनिक पाश्चात्य नाट्यकलाओं की प्रतीकवादी
पृष्ठभूमि का दामन पकडना है। हम संस्कृत रंगमंच की ललित रंगपीठ, सरस स्वाभाविकता
और शास्त्रोगत मुद्राओं और भाव-भंगिमाओं से भरे-पुरे अभिनय को सहज ही अपना सकतें
हैं। अभी तक श्री पृथ्वी राज कपूर द्वारा प्रस्तुत किये गए नाटकों को देखने का
मुझे अवसर नहीं मिला है, लेकिन यदि मुंबई में ये संस्कृत नृत्यशालाओं,
वस्त्राभूषणों और अभिनय कला की कुल विशेषताओं को अपने थिएटर में, प्रयोग रूप में
ही सही, चालू करें, तो मेरा विश्वास है कि वे रुचिपरिमार्जन के साथ-साथ
आभिजात्यवर्ग के नागरिकों का यथेष्ट मनोरंजन भी कर सकेंगें। ऐसा रंगमंच व्यावसायिक
दृष्टि से असफल नहीं हो सकता ; क्योंकि उसमें ‘ओपेरा’ के गति-प्रधान वातावरण और
रमणीयता और सिनेमा की तीव्र गतिशीलता और नाटकीयता का अलम्य सम्मिश्रण होगा।
मुख्यतः यह रंगमंच नगरों और उत्सवों तक ही सीमित रह सकेगा।
राष्ट्रीय रंगमंच का
तीसरा और शायद सब से महत्वपूर्ण अंग होंगी देहाती नाट्य मंडलियां। पिछले दिनों
लोगों का ध्यान जनता के विचारों और व्यक्तित्व को प्रभावित करनवाले इस अचूक साधन
की ओर गया है और कम्युनिस्ट पार्टी ने तो अपने पीपुल्स थियेटर द्वारा आरम्भ के
दिनों में निस्संदेह कला का यथेष्ट कल्याण किया है ; किन्तु कम्युनिस्ट कलाकारों
को सिद्धांत की वेदी पर बेदर्दी के साथ सौंदर्य का बलिदान करना पडता है और इसलिए
निकट भविष्य में तो पीपुल्स थियेटर राष्ट्रीय रंगमंच को शायद ही समृद्द कर सके।
दूसरे, यद्दपि पूर्वी बंगाल, तेलांगना और पश्चिमी मालावार के कुछ हिस्से मं
कम्युनिस्ट मंडलियों को देहाती अभिनेताओं और गायकों इत्यादि का सहयोग अंशतः मिल
सका, तथापि हिंदी भाषी प्रदेशों में ये मंडलियां प्रायः पढ़े-लिखे मध्यर्गीय उग्र
विचारवान प्रतिभाशाली और उत्साही नवयुवाओं की बानगी बनकर ही रह गईं। ये मध्यवर्गीय
नवयुवक, जिन्होंने शहरों में रहकर, पाश्चात्य विद्वानों की पुस्तकों के आधार पर
अपनी विचार शैली निर्धारित की थी, अपने प्रगतिशील सिद्धांतों की खातिर ऐसा जान
पडता था, देहाती पोषक पहन लेते थे। उन्होने पढ़ा कि रूस में जनता का नाटक पार्टी की
प्रेरणा से खूब पनपा। इसलिए यहाँ भी, उन्होंने देहाती नाम, देहाती समस्याओं और
देहाती पोशाक का सहारा ले, मिली जुली देहाती भाषा में बड़े शहरों में और कहीं-कहीं
गांव में भी अपने सिद्धांत का प्रचार शुरू कर दिया। थोड़े दिन तो यह चीज़ खूब चमकी ;
किन्तु आकाश की जिस धारा ने धरती के नीचे प्रवाहित होनेवाले सोतों से नाता जोड़ा,
वह तो ऊपर-ऊपर ही होकर ढाल जाती है। कम्युनिस्ट रंगमंच ने वस्तुतः बिहार,
उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश में, देहातों में प्रचलित और लोकप्रिय अभिनय-प्रणालियों
से सम्बन्ध स्थापित नहीं किया और न इन देहातों में जौहर दिखलानेवाले अशिक्षित या
अर्धशिक्षित अभिनेताओं और गायकों को अपनाया। उन्होंने उन प्रणालियों अथवा
पद्दतियों का अंशतः अनुकरण तो किया, लेकिन चालू प्रणालियों से सीधा सम्बन्ध नहीं
जोड़ा। शायद उसमें उन्हें ह्रासोन्मुख (Decadent)
संस्कृति के चिन्ह दीखे।
वस्तुतः हमें रंगमंच
के इस विशाल क्षेत्र को उर्वरक बनाने के लिए उस लोक रूचि की मांग को समझाना होगा,
जिसके सहारे अब भी इतनी नौटंकी पार्टियां और मंडलियां जीती रही है। छः-सात वर्ष
हुए बिहार के साधारण से ग्राम में दौरा करते समय मुझे उस गांव की ही एक मंडली
द्वारा प्रस्तुत किया गया नाटक देखने का अवसर मिला। ठठ-के-ठठ स्त्री पुरुष जमा थे।
स्टेज के नाम पर एक चौकी। एक ढोलकवाला था। अभिनेता कुल चार या पांच। दर्शक तीन तरफ।
न कोई पर्दा न कोई विशेष सजावट। नाटक का नाम था ‘जालिम सिंह’ जो उत्तरी बिहार में
खासा प्रसिद्ध है। अभिनय में कोई विशेष कला नहीं थी। कहानी अच्छी होते हुए भी,
उसमें कई अश्लील अंश थे। लेकिन मुझे ऐसा लगा, जैसे उस नाटक के खेलनेवालों और चारों
ओर उमड़नेवाली जनता में एक संशयहीन आत्मीयता हो, जिसका मैं एक अंग नहीं बन सका।
उसके बाद बिहार और पूर्वी उतर प्रदेश के भोजपुरी इलाके के लोकप्रिय कलाकार भिखारी
ठाकुर के विषय में बहुत कुछ सुनकर और उनके ‘बिदेसिया’ के नाम पर जुट पड़नेवाली जनता
की मनोवृति का अध्ययन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि देहाती रंगमंच उन आदिम
अभिनयात्मक इच्छाओं की अभिव्यंजना है, जिसके बल पर ही सिनेमा के तीव्र प्रचार के
बावजूद रंगमंच अपना अस्तित्व कायम रख सकता है।
देहाती रंगमंच की
बुनियाद में अभिनेता और दर्शक के बीच वही तदात्मीयता (Mutual understanding) है,
जिसका ज़िक्र मैं ऊपर कर आया हूँ। यह तभी संभव हो सकता है, जब नाटक-मंडली के
अभिनेता और प्रबंधक देहाती जनता की रूचि, इच्छा और मांग का अध्ययन करें। उसकी
तथाकथित अश्लीलता या बेरोक रसानुभूति से नाक-भौं न सिकोडें और उच्च स्तर से
आविभूर्त होनेवाले उपदेशकों की भांति, नीति अथवा उद्धार की झड़ी न लगाएं और न
आर्थिक शोषण का जड़ोंउन्मूलन करने के लिए जनता को भावोद्वेलित करने की आशा करें। यह
तो प्रधानतः मनोरंजन का क्षेत्र है। इसे परिमार्जित करने का एक ही मार्ग है, यानि
जो मनोरंजन भौंडा है उसे सुन्दर, कलापूर्ण और स्वस्थ बनाया जाये। उदाहरणतः इन
नाटकों में रंगमंच की सजावट में ग्रामीण कला को अवसर दिया जाये। चटाइयों पर गेरू
से सुन्दर डिज़ाइन बनाकर मंच के उपपीठ पर लटकाएं जाएँ। गांव की स्त्रियां अल्पना
अंकित करें। भद्दे शहरी पर्दों के स्थान पर बैक-ग्राउंड में जंगली पत्तियों और
फूलों की लड़ियाँ टांगी जय। गाने बजने की बहुलता रहे। हारमोनियम के स्थान पर
सारंगी, और तबले के स्थान पर ढोलक हो। चूँकि पर्दे की गुंजाईश तो वहाँ होती नहीं
है, इसलिए दृश्य परिवर्तन और नाटक में धारा-प्रवाह को जारी रखने के लिए एक
सूत्रधार रहे। वह अच्छा गायक और हाज़िर जबाब होना चहिये। संस्कृत नाटकों में तो
सूत्रधार प्रस्तावना के बाद गायक हो जाता था। लेकिन आधुनिक देहाती रंगमंच में उसकी
बराबर ज़रूरत पड़ेगी और उसका काम लगभग वही होगा, जो यूनानी नाटकों में कोरस द्वारा
संपन्न होता था, यानि नाटक और दर्शकों के बीच सूत्र कायम रखना। स्थान-स्थान पर
नाटक के कथानक के प्रति उत्सुकता जागृत रखने के लिए, वह टिपण्णी देगा, अभिनेताओं
को कपड़े बदलने का समय देने के लिए, दर्शकों का मनोरंजन करेगा और नाटक के भावुक
स्थानों पर भावावेग के अनुकूल गीत सुनाकर उसी प्रकार नाटकीय संवेदना का संवर्धन
करेगा, जैसे आधुनिक सिनेमा और रेडियो-रूपक में पार्श्व संगीत।
अभिनेता, जहाँ तक हो
सके, देहात में से ही लिए जायं, यद्दपि सूत्रधार का आधुनिक संस्कृति और ज्ञानराशि
से परिचित होना आवश्यक है। मैंने ग्रामीण जनता के सभी वर्गों में कुशल अभिनेता की
दक्षता रखने वाले व्यक्तिओं को पाया है। थोड़ी ट्रेनिंग से उनकी योग्यता निखर जायेगी,
इसमे कोई संदेह नहीं। देहाती नृत्य और सम्मिलित संगीत, उस रंगमंच के महत्वपूर्ण
अंग रहेंगें। हर प्रदेश के अपने-अपने जन नृत्य हैं, जिनका बड़े-बड़े नगरों की
आत्याधुनिक रंगशालाओं में नए फैशन के युवक-युवतियों द्वारा शौकीनी प्रदर्शन पिछले
दिनों खूब किया गया है। लेकिन ठेठ देहात में, जहाँ की यह चीज़ है, नैसर्गिक वातावरण
में, देहाती युवक-युवतियों को ही अपने रंगमंच पर प्रदर्शन करने के लिए कहाँ तक उत्साहित
और संगठित किया जा रहा है, इसमें मुझे बहुत कुछ संदेह है।
देहाती रंगमंच का
संगठित रूप क्या है और उनकी अन्य क्या विशेषताएँ होनी चाहिये, इस विषय पर सविस्तार
भविष्य में लिखूंगा। क्योंकि इस क्षेत्र में कुछ क्रियात्मक अनुभव प्राप्त कर लेने
के बाद ही मुझे विचार प्रकट करने का पूर्ण अधिकार हो सकता है। पिछले छः वर्षों से
वार्षिक वैशाली महोत्सव के अवसर पर मैं इस ढंग के देहाती रंगमंच की कल्पना को
कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा करता रहा हूँ। कुछ सफलता भी मिली है, क्योंकि
वैशाली तो एक गांव ही है, रेलवे स्टेशन से २३ मील दूर और चाहने पर भी वहाँ नगर के
साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। ग्रामीण अभिनेता, ग्रामीण दर्शक, ग्रामीण उपादान सभी
मिल जातें हैं। निर्देशन हम लोगों का होता है और विशेषतः सजावट का निर्देशन
उपेन्द्र महारथी का। फिर भी कार्यक्रम में कॉलेज के नवयुवकों द्वारा प्रस्तुत नाटक
शामिल करने ही पडतें हैं।
इस वर्ष से बिहार में
सरकार की ओर से सांस्कृतिक चेतना सम्बन्धी योजना में हमलोगों ने देहाती रंगमंच के
विकास के उद्द्येश से मोद-मंडलियों की स्थापना की है। योजना सरकारी है और इसलिए
उसकी गति गजगामिनी की-सी है। स्वरुप भी वैसा हो तो शिकायत की गुंजाईश न रहेगी
किन्तु सांस्कृतिक क्षेत्र में निश्चित रूप से यह पहला सरकारी कदम है और फूंक-फूंक
कर उठाया जा रहा है। लोगों को भी यकीन नहीं होता कि इसके पीछे कोई और तो चाल नहीं
है। यदि यह तजुर्बा अंशतः भी सफल हुआ तो मैं एक या दो वर्ष बाद इसकी पूरी कथा
हिंदी पाठकों के सामने रखूँगा।
ऊपर के विवरण से यह
बात स्पष्ट हो जाती है कि आज दिन हिंदी भाषा-भाषी प्रदेशों में राष्ट्रीय रंगमंच
का क्रमिक निर्माण तीन पहलुओं में हो रहा है। मेरे विचार से इन्हीं तीन शैलियों
में भावी हिंदी रंगमंच की रूप-रेखा सन्निहित है, यानि १. यथार्थवादी, एमेचर (
शौकीनी ) रंगमंच, २. प्राचीन नाट्य परम्परा से प्रेरित किन्तु आधुनिक व्यावसायिक
साधनों से संपन्न नागरिक ( Urban
) रंगमंच और ३. परिमार्जित और
संशोधित रूप में देहाती रंगमंच। यदि हमारे उदिमान नाटककार और उत्साही निर्देशक और अभिनेता
इन प्रवृतियों को नज़र में रखते हुए अपनी कार्य प्रणाली निर्धारित करें, तो बहुत-
सी बेकार मेहनत बच जाये और हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच और नाट्य साहित्य की वास्तविक
उन्नति हो।
क्रमशः
इससे पहले कि इन प्रवृतियों के अनुकूल नाट्य-साहित्य की आवश्यकताओं की ओर
मैं इशारा करूँ, यह ज़रुरी है कि हमारे रंगमंच के पुनर्निर्माण काल की दो प्रबल
शक्तिओं यानि सिनेमा और रेडियो का जो प्रभाव इन तीन धाराओं पर पड़ रहा है, या पड़
सकता है, उसका भी कुछ अंदाज़ा लगा लिया जय। सिनेमा को मैं रंगमंच का घटक मानाने को
तैयार नहीं। मेरे विचार मैं तो सिनेमा ने रंगमंच के पुनरुत्थान का लिए अनुकूल
वातावरण पैदा किया है। सदियों से भारतवर्ष की जनता नाट्य और अभिनयकला की ओर से
उदासीन हो चली थी। लोक रूचि पर काई जम गई थी और उच्च सांस्कृतिक क्षेत्र में अभिनय
और नृत्य- प्रदर्शन का कोई स्थान ही नहीं रह गया था। सिनेमा ने उस काई को काटकर
फेंक दिया और देखते ही देखते अभिनय और कलात्मक प्रदर्शन हमारे सामाजिक जीवन का एक
प्रधान अंग बन गए।
यह सच है कि सिनेमा की लोकप्रियता ने पारसी थियेटर को नष्ट कर दिया, लेकिन
उसके विनाश का कारण सिनेमा के आधुनिक मशीन युग के साधन ही नहीं थे, बल्कि अभिनय
कला का एक नवीन दृष्टिकोण भी। सिनेमा ने जब यह दिखाया कि यथार्थ जीवन में जैसी
बातचीत, जैसा व्यवहार, जैसी भाव-भंगिमा होती है, वैसी ही नाटकों में भी प्रदर्शित
की जा सकती है, तो पारसी थियेटर के जोशीले
भाषण, फड़कती हुई शेरों और तमक कर बोलने की परिपाटी अपना सारा आकर्षण खो बैठे।
“चन्द्रकान्ता सन्तति” के तिलिस्म को जैसे प्रेमचंद के यथार्थवादी उपन्यासों ने
ढाह दिया, ऐसे ही सिनेमा ने पारसी थियेटर के शीशमहल को खंडहर बना दिया। नतीजा यह
हुआ कि जब इब्सन, शा, गाल्वार्दी इत्यादि से प्रेरित होकर उत्तर भारत के कुछ नगरों
में एमेचर रंगमंच का आविर्भाव हुआ, ती सिनेमा के उदाहरण ने उसके यथार्थ के लिए
दर्शक को तैयार कर दिया। एकांकी की उन्नति में सिनेमा का कितना ज़बरदस्त हाथ रहा
है, इस पर शायद एकांकी-लेखकों ने भी विचार नहीं किया। भारतवर्ष में बोलते सिनेमा
के प्रचार से पूर्व यदि यथार्थवादी, विशेषतः सामाजिक नाटक लिखे जाते, तो उनको
रंगमंच पर उतरना शायद असंभव हो जाता। रंगमंच पर दैनिक जीवन का यथातथ्य प्रदर्शन
हो, इसकी कल्पना भी दर्शक समाज नहीं कर सकता था। लोकरुचि में इतनी बड़ी क्रांति
करके सिनेमा ने स्वाभाविक अभिनय की कला को रंगमंच पर ला बैठाया। तो क्या
यथार्थवादी एमेचर रंगमंच को ही सिनेमा कुछ दे सका है ? यदि हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच
के उत्थान में सिनेमा की केवल इतनी हीं उपयोगिता रहती, तो उसका कोई स्थाई मूल्य
नहीं होता, क्योंकि कोई भी यथार्थवादी रंगमंच, कम से कम भारतवर्ष में, जीवन के
यथातथ्य चित्रण में सिनेमा से बाजी नहीं ले सकता। लेकिन मैं ऊपर कह आया हूँ कि
हिंदी रंगमंच की तीन धाराओं में से एक यानि नागरिक, व्यवसायिक रंगमंच यथार्थवादी नहीं
होगी। उसकी विशेषताएँ होगी काव्य-सुलभ रसानुभूति से परिपूर्ण वातावरण, मर्मस्पर्शी
और सहज स्वाभाविकता एवं शाश्त्रोक्त मुद्राओं से संपन्न अभिनय और नृत्य, संगीत और
नयनाभिराम दृश्यों से अलंकृत प्रदर्शन ( Spectacle )।
ये विशेषताएँ नागरिक रंगमंच को ना सिर्फ संस्कृत रंगमंच से मिलेंगीं, बल्कि भारतीय
सिनेमा की उस नवीन शैली से भी, जिनके उदाहरण के तौर पर विद्यापति, वसंतसेना,
नर्तकी, रामराज्य, पुकार और अनेक पौराणिक फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। प्रकाश
और अंधकार का समुचित व्यवहार संवेदन के संवर्धन में कैसे किया जा सकता है ,
भावोद्रेक जताने के लिए क्योंकर संवाद में गति लाई जा सकती है, गीत और नृत्य कैसे
स्थलों में प्रभावोत्पादक हो सकतें हैं, इन सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर सिनेमा की इस
नई शैली ने प्रचुर प्रयोग किये हैं, नागरिक रंगमंच जिससे यथेष्ट लाभ उठायेगा।
अतः यदि भारतीय सिनेमा को भावी हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच की प्रयोगशाला कहा
जाय, तो कोई भी अतियुक्ति नहीं होगी। रेडियो की छाप भी उस पर निश्चय हीं रह जायेगी।
हिंदी साहित्य का इतिहास मुक्त कंठ से ये यह स्वीकार करेगा कि आल इंडिया रेडियो ने
हिंदी में नाट्य रचना को फिर से सार्थकता प्रदान की। उसने ना सिर्फ नए रुपककारों
को प्रकाश में ला बैठाया, बल्कि पुरानी कृतियों के लिए भी एक नवीन क्षेत्र
प्रस्तुत कर दिया। उसने एक नई मांग पेश की, जिसके जबाब में हिंदी लेखक को अपनी कलम
साहित्य के इस विस्तृत क्षेत्र में चलानी पड़ रही है। इसके अतिरिक्त रेडियो-रूपक की
कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जिन्हें रंगमंच के लिए नूतन उपकरण माना जा सकता है। पार्श्व
संगीत की टेकनिक को रेडियो ने खूब निखर दिया है। अभिनय काला में स्वर-संधान की
महत्ता रेडियो ने ही पहले पहल स्थापित की है और भाव-भंगिमा के अभाव में स्वर में
चित्रोपमता को क्षमता ला देना यह अभिनय-कला को
रेडियो की एक स्थाई देन है। भावी
रंगमंच इन नए उपकरणों को निश्चय ही अपनावेगा।
उत्तरी भारतवर्ष में नाट्य साहित्य का लोप आप-ही-आप नहीं हुआ था। मुसलमानी
राज्य में धार्मिक कट्टरता ने मूर्ति-कला और रंगमंच दोनों पर प्रहार किया। राज्य
का प्रश्रय मिला नहीं और जनता भयाक्रांत हो मनोरंजन से विमुख हो गई। यों लगभग एक
हज़ार वर्ष तक उत्तरी भारत में तो नाटक कोरे अध्ययन की सामग्री बनकर रह गई।
अब यदि एक हज़ार वर्ष बाद हम रंगमंच और रूपक साहित्य को पुनर्जीवित करना
चाहतें हैं, तो यह क्रिया भी आप-ही-आप नहीं होगी। कविता भावुक ह्रदय से अनायास ही
बह निकलनेवाली निर्झरणी हो सकती है, यद्दपि उसकी तह में भी सामाजिक प्रेरणाओं का
दबाव होता है, किन्तु नाट्य साहित्य का रंगमंच की मांग से सीधा सम्बन्ध है और
रंगमंच स्वतः ही नहीं बनता। राष्ट्र और समाज, संस्कृति क्षेत्र के नेता और शासन,
सभी को परम्परा, परिस्थिति और उपकरणों को ध्यान में रखते हुए नए नए रंगमंच की
रूपरेखा निश्चित करनी है, और जहाँ तक संभव हो, उस निश्चित योजना के अनुसार साधन
एकत्रित कर रंगमंच के आंदोलन को चलाना है। ऐसे आन्दोलन के आग्रह से लेखक-समाज बच
नहीं सकेगा, और कुछ ही समय में एक समृद्ध नाट्य-साहित्य की नीव पड़ जायेगी।
पिछले पृष्ठों में रंगमंच की जो त्रिमुखी योजना मैंने उपस्थित की है, वाह
एक संकेत है इसी मार्ग की ओर। मैं यह कहने की धृष्टता नहीं करूँगा कि हिंदी हिंदी
भाषी समाज इस संकेत को आँख मूंदकर मान ले, यद्यपि मेरा अनुभाव है कि रंगमंच के जिस
त्रिमुखी विकास की मैं कल्पना कर रहा हूँ, वही दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होती हुई
सांस्कृतिक प्रवृतियों का चरमोत्कर्ष हो सकता है।
यदि यह न भी हो, तो भी मेरा यह तो पक्का विश्वास है कि जनता, शासन और सांस्कृतिक
संस्थाओं को कुछ इसी तरह का बहुमुखी आंदोलन खड़ा करना होगा। हमारा राष्ट्रीय रंगमंच
एकमुखी नहीं हो सकता और न होना ही चाहिए।
इसलिए हमारा नाट्य-साहित्य भी कई विभिन्न शैलियों का संग्रह होगा, एक ही
परिपाटी का उत्थान मात्र नहीं।
लेकिन मुझे लगता है, मानो हम आधुनिक हिंदी के नाटककार बरबस ही एक ही शैली
की तलाश में भटक रहें हों। जो नए प्रयोग हो रहें हैं, उनके पीछे रंगमंच की
सामर्थ्य नहीं। इसलिए हमें रंगमंच की पद्धतियाँ भी निर्धारित करनी है और उसके साथ
ही साथ नाट्य-साहित्य की शैलियाँ भी। दोनों कार्य सामानांतर रेखाओं की तरह चलें।
यह सोचना कि पहले रंगमंच तैयार हो जाये तब नाटक लिखें जाएँ, या नाटकों की रचना
कराकर रंगमंच को तदनुसार तैयार कर लें, भारी प्रवंचना होगी।
लेकिन मैं लेखक समाज को हुक्म नहीं देना चाहता कि ऐसा लिखो और ऐसा नहीं।
कलाकार को जबरदस्ती आदेश देने कि क्षमता भला किसमें है ?
हमारा राष्ट्र, निर्माण की पहली सीढियों पर है। ऐसे क्षण में लेखक-समाज
द्वारा समय और शक्ति का अपव्यय दो तरह आजकल हो रहा है – १. नई पीढ़ी के उदीयमान
साहित्यकार मुक्तक काव्य की झड़ी लगाए जा रहें हैं, मानो उन्होने छायावादी
परम्पराओं को रीतिकालीन सवैयों की परिपाटी की भांति सांचे ढलने वाली मशीन बना देने
का व्रत लिया हो। नाटक का क्षेत्र है वीरान, लेकिन उधर कौन नज़र डाले ? २. जो
नाटककार हैं, वे प्रायः शून्य में सेज लगाकर किसी काल्पनिक रंगमंच की प्रिया से
मिलन की तैयारियां कर रहें हैं। कुछ लोग हैं कि कोरे संवादों के चमत्कार को
नाट्यगति ( Action ) का स्थान देकर संतुष्ट हो जातें हैं, कुछ के हरेक
पात्र में एक ही व्यक्तित्व यानि लेखक का निजी व्यक्तित्व प्रतिबिंबित होता है,
कुछ का कथानक इतना सपाट होता है कि प्रथम दृश्य में ही अंतिम दृश्य की झलक मिल
जाती है और कुछ के पत्र भाषणों का तांता बंध्तें हैं, तो रुकने का नाम ही नहीं
लेते।
प्रतिभा और समय के इस अपव्यय को रोकने के लिए लेखक-समाज को सामूहिक
इच्छाशक्ति का प्रयोग करना होगा। यह सामूहिक इच्छाशक्ति साहित्यकारों की संस्थाओं
द्वारा स्वीकृत और शासन द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त योजनाओं के रूप में प्रकट की
जा सकती है। इन योजनाओं में श्रेष्ठ नाटकों पर पुरस्कार, नाटकों के अभिनीत करने का
प्रबंध, उदीयमान नाटककारों को आर्थिक सहायता, इन सबका विधान तो होगा ही, पर इनके
साथ ही साथ नाटक –लेखन की कला के नियमों का संकलन और नाटककारों के लिए
शिक्षा-केन्द्रों का आयोजन भी होगा।
मेरे भावुक साहित्यकार मित्र चौंके नहीं। मैं कला को बंधनविवस और साहित्यिक
नेताओ से आक्रांत दासी का रूप देने कि तदवीर नहीं कर रहा हूँ। लेकिन कोई मुझे
बतावे कि कौन सी उत्कृष्ट कला नियमबद्ध नहीं और किस कला के साधकों को अध्ययन और
अव्यवसाय के बिना कोरी भवप्रवणता के आधार पर सफलता मिली है ? काव्य-प्रणयन में हाथ
लगाने के पूर्व कवि छंद-शास्त्र, अलंकार और पूर्ववर्ती कवियों का थोडा-बहुत अध्ययन
करता है। समस्त प्राचीन नाट्य-साहित्य इसका साक्षी है ; किन्तु हिंदी में
नाटककारों के पथ-प्रदर्शन के लिए कोई उपयुक्त रीतिग्रंथ ही नहीं है। प्राचीन
संस्कृत नाट्यशास्त्र का अध्ययन करने का हमलोग कष्ट नहीं उठाते और यह भी ठीक है कि
वर्तमान परिस्थिति में, उसी परंपरा के रंगमंच के अभाव में प्राचीन संस्कृत
नाट्यशास्त्र को बिना कतर-व्योंत किये हम ज्यों-का-त्यों अपना भी नहीं सकते।
अधिकतर लेखक आधुनिक पाश्चात्य नाटककारों इब्सन, गल्सवार्दी, शा इत्यादि से
प्रभावित होकर ही कलम उठातें हैं। लेकिन इन पाश्चात्य नाटककारों के पीछे अविच्छिन्न
नाट्य-साहित्य की परंपरा है, जिसका उद्गम है प्राचीन यूनानी नाटक। साथ ही उन्हें
प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक शास्त्रकारों और साहित्य-नियामकों की धरोहर उपलब्ध
है। पाश्चात्य नाटककार प्रायः थ्री यूनिटीज़, ट्रेजडी के द्वंदात्मक आधार,
चारित्रिक उत्थान, कथानक में चरम विन्दु का समावेश आदि सिद्धांतों से परिचित होतें
हैं। अरस्तु, बेनजान्सन, गेटे, ब्रेडले और कतिपय आधुनिक समालोचकों से नाट्यकला के
विषय में जो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, वे उदियमान पाश्चात्य नाटककार के लिए
एक मानसिक पृष्ठभूमि का काम देतें हैं। यदि मैं कहूँ कि कुछ ऐसी ही मानसिक
पृष्ठभूमि की हमारे यहाँ भी आवश्यकता है, तो इसे सृजनात्मक प्रवृति पर शास्त्रीय
बंधन लगाने की चेष्टा न समझा जाय।
जैसे हमारे रंगमंच को बहुमुखी होना है, एक शैली में ही सीमित नहीं रहना है,
वैसे ही हमारा नाट्य-साहित्य भिन्न-भिन्न सामाजिक आवश्यकताओं और चेतनाओं का
परिचायक होगा, उसकी भी शैली बहुमुखी होगी। तदनुसार ही वह मानसिक पृष्ठभूमि, वह
नियमों और विधियों का संकेत जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, विविध प्रकार के
सिधान्तों का प्रतिविम्ब होगी। जो इन सिधान्तों, नियमों और विधियों का संकलन और
संपादन करे, उन्हें अपनी दृष्टि रंगमंच की भावी रूप-रेखा पर रखनी है।
उदाहरणतः नागरिक रंगमंच के लिए नाटकों में काव्यात्मक शैली द्वारा रसपरिपाक
– यह परंपरा संस्कृत नाटकों से ली जा सकती है। वस्तुतः प्राचीन नाटक दृश्यकाव्य
था, यानि दर्शकों के लिए वह कविता का अभिनय द्वारा निरूपण था, जीवन का दर्पणतुल्य प्रदर्शन
नहीं। आज के व्यावसायिक रंगमंच पर भी ऐसे ही नाटक शायद अधिक सफल हो सकें। उस शैली
को आधुनिक प्रतीकवादी नाटककार मेटरलिंक, जेम्स्बेरी, लेडी ग्रेगरी इत्यादि के
वातावरण-प्रधान नाटकों से बहुत कुछ मिल सकता है। देहाती रंगमंच के लिए जो नाटक
लिखे जायं, उनमें भी प्राचीन संस्कृत और यूनानी नाटकों से कुछ पद्धतियाँ समाविष्ट
कि जा सकती है, यथा-सूत्रधार और विश्कम्भक को यूनानी कोरस की पद्धति में ढालकर एक नवीन
प्रकार के रंग्नायक कि श्रृष्टि कि जा सकती है, जो यवनिका और पर्दों के बिना ही
नाटक की पृष्ठभूमि और भिन्न अंकों का एक दूसरे से सम्बन्ध स्थापित का सके, साथ ही
उस सूत्रधार के कथनों में भी नाटक की काव्य शैली और गीतों का समावेश हो।
यथार्थवादी रंगमंच का नाट्य-साहित्य मुख्यतः समस्यामूलक और आधुनिक विचारधारा और
संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक होगा। किन्तु साथ ही सिनेमा की प्रभाववादी शैली
और रेडियो-रूपक की संकेत्वादिता दोनों ही का यथार्थवादी नाट्य-साहित्य पर स्थाई
प्रभाव पड़ेगा।
इस प्रकार उदीयमान रंगमंच की विभिन्न शाखाओं की मांगों को दृष्टिकोण में
रखते हुए नाट्य-लेखन-कला के कुछ बुनियादी नियमों का संकलन और प्रतिपादन लेखकों के
लिए उपादेय सिद्ध होगा। यह न समझा जय कि मैं नाट्य साहित्य के पूर्व रुढियों की
स्थापना कराना चाहता हूँ। इन नियमों की आवश्यकता संकेत के तौर पर है और
ज्यों-ज्यों नाट्य-साहित्य की समृधि और विकास होते जायेंगें त्यों-त्यों इन
सिधान्तों में भी परिवर्तन और उनका परिमार्जन होता चलेगा। नियमों को मैं मात्र
प्रयोजन के रूप में देखता हूँ, अचल मान्यताओं के रूप में नहीं। प्रतिभा को जब
नियमों के प्रकाश द्वारा प्रगति की राह मिल जायेगी, तब वह अपने में अन्तर्निहित
ज्योति को उकसाकर अपने-आप ही मार्ग-निर्देशन कर लेगी। लेकिन अभी तो अंधे की भांति
टटोलना पड़ रहा है। साहित्य के इस महत्वपूर्ण अंग की रूप-रेखा, जिसमें कविता की
भांति केवल भावोदेक ही सृजन का कारण नहीं हो सकता, हिंदी में स्थापित नहीं हो पाई
है। संस्कृत नाटक की परम्परा लुप्त हो गईं। इसलिए यदि ऐसे निर्देशन का विधान नहीं
किया जायेगा, तो यही नहीं होगा कि इने-गिने नाटककार अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग
लेकर बैठ जायेंगें , बल्कि नवयुवक साहित्यकार इस अनजाने-से पथ पर अग्रसर भी न
होंगें। इसलिए मैं तो यहाँ तक कहने के लिए तैयार हूँ कि इस उपेक्षित अंग को संपन्न
बनाने के लिए हमारी प्रमुख साहित्यिक संस्थाओं और विश्वविधालयों को नाट्य-कला के
शिक्षाकेन्द्र चलने चाहिए। अमेरिका में तो कुछ विश्वविधालयों में पाकशास्त्र की भी
डिग्री होती है, नाट्यकला का स्थान तो इससे कहीं ऊँचा है, और भारतीय शास्त्रों में
चौंसठ कलाओं की प्रमुख श्रेणी में इसकी गिनती है। यदि कोई विश्वविधालय नाट्यकला
में बी. ए. ( कला स्नातक ) की डिग्री की व्यवस्था करे, तो इससे बढ़कर उपाधि कला के
क्षेत्र में क्या हो सकेगी ?
ऊपर लिखे विचारों में रंगमंच और नाट्यकला की ही सीमित आवश्यकताओं का आग्रह
देख पड़ेगा और शायद कुछ पाठक मुझे याद दिलाना चाहें कि रंगमंच और नाटक, समाज की
प्रगति और प्रवृत्ति पर निर्भर रहते हैं। मैं इस पहलू से अवगत हूँ और एक नूतन योजना
की ओर संकेत करने का साहस भी मुझे इसीलिए हुआ है कि भारतीय समाज, विशेषतः हिंदी
भाषी समाज, सदियों बाद पुनः सामूहिक मनोविनोद को सुसंस्कृत और गंभीर कला के रूप
में ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत है। सामूहिक मनोरंजन का सबसे कलापूर्ण,
सुरुचिसम्पन्न और स्थायी रूप है रंगमंच। हमारा समाज अपने भिन्न भिन्न स्टारों में
मनोरंजन को इस सुव्यवस्थित रूप में देखना चाहता है। राजनैतिक स्वताब्त्रता और
सामाजिक चेतना दोनों ने हमें अपनी सांस्कृतिक इच्छाओं से अवगत करा दिया है। ये
इच्छाएं एक उन्मुक्त व्यक्तित्व का उठान हैं, वे किसी कुंठित व्यक्तित्व की अपने
से बचने की चेष्टाएं नहीं। साथ ही अपनी परम्पराओं और उपेक्षित सांस्कृतिक साधनों
के प्रति सचेष्ट जागरूकता भी स्पष्ट होती जा रही है। भरत-नाट्यम, मणिपुरी नृत्य,
संथाली नृत्य, नौटंकी, सिनेमाओं में प्राचीन ऐतिहासिक और पौराणिक कथानक, देहाती
तर्जों के गीत, सभी को जन रूचि के क्षेत्र में महत्वपूर्न्महत्वपूर्ण स्थान मिल
रहा है, और ये सभी रंगमंच के सुव्यवस्थित माध्यम कि राह देख रहे हैं।
इसीलिए हम रंगमंच के चाहे जो वर्गीकरण करें और नाट्य साहित्य के मार्ग
निर्धारित करने के लिए चाहे जिन नियमों का प्रतिपादन करें, इन वर्गों और नियमों को
सामाजिक परिस्थितियों और जनता की रूचि का अनुमोदन करना ही होगा। मेरी दृष्टि में
निकट भविष्य का हिंदी रंगमंच और नाते साहित्य प्रायः तीन प्रमुख शैलियों में
अवतरित होगा और हो रहा है। लेकिन सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं
परिवर्तनशील हैं, और सृजनशक्ति का मूलश्रोत चिरंतन से प्रवाहशील है। कौन योजनाकार
इस अबाध प्रगति को नियमों की चहारदीवारी में बाँध सकता है।
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