रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 18 जून 2012

अभिनेता का स्पेस : पुंज प्रकाश

अमितेश कुमार से हुई लंबी बातचीत का एक अंश उनके ब्लॉग रंगविमर्श  से साभार 


एक अभिनेता के लिए स्पेस का अर्थ समझने के लिए सबसे पहले हमें इसे कई भागों में बांटना पड़ेगा। जिसका सीधा अर्थ ये है कि केवल नाट्य प्रदर्शन के दौरान उपस्थित होने वाले स्पेस ही से एक सृजनशील और सजग अभिनेता का काम नहीं चलता । नाट्य प्रदर्शन तो रंगकर्मियों के कार्य की परिणति है, प्रक्रिया नहीं। अगर हम अभिनेता एवं रंगकर्मी बात करना चाहते हैं तो प्रक्रिया की बात करनी चाहिए । अभिनयकला को गंभीरता पूर्वक लेने वाले एक अभिनेता को व्यक्तिगत जीवन में सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से जागरूक होना चाहिये। यह एक्टिविज़म की नहीं एवेअरनेस की बात है। मतलब कि एक अभिनेता को एक व्यक्ति और एक कलाकार के बतौर दुनिया के स्पेस में भी सजग रहना आवश्यक है । अभिनय हवा में पैदा नहीं होता इसके लिए देश, समाज, काल आदि की समझ ज़रुरी है । अभिनेता का मूल अस्त्र केवल उसका शरीर ही नहीं होता बल्कि दिमाग भी है । केवल शरीर को अस्त्र मानकर स्टार बना जा सकता है अभिनेता नहीं । इसलिए केवल शरीर को साधने से काम नहीं चलने वाला दिमाग को भी साधना पड़ेगा । हालाँकि रंगमंच के अधिकतर अभिनेता अपना काम केवल पूर्वाभ्यास में किये गए कार्य से चला लेतें हैं जिसे अपने और अभिनय के प्रति एक अगंभीर प्रयास ही कहा जाना चाहिए ।

पूर्वाभ्यास के स्पेस का महत्व – एक अभिनेता की दृष्टि से अगर हम इस स्पेस को देखें तो इसका महत्व किसी लैब से कम नहीं है जहाँ तरह–तरह के प्रयोग के दौर से गुज़रकर अभिनय और उस प्रस्तुति से जुडी कोई भी चीज़ एक आकार लेती है | एक अभिनेता यहाँ अभिनेता से चरित्र में ढलता है, चरित्र की ध्वनि ( सुर ) तलाशता है, चरित्र का नज़रिया और हाव-भाव पैदा करता है, चरित्र को एक शरीर प्रदान करता है आदि आदि । मंच पर प्रस्तुत होने के पूर्व पूरे का पूरा नाटक और उसका एक-एक डिटेल यहाँ अपनी पूर्णता तक पहुंचाता है । यहाँ जो कुछ भी हासिल होता है उसी का प्रदर्शन मंचन के वक्त किया जाता है । अब ये सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्वाभ्यास के जगह को कितना ज़्यादा संवेदनशील और रंगकला के अनुकूल होने की ज़रूरत है ।
अभिनेता के लिए नाट्य प्रदर्शन स्थल पर मेकअप स्पेस तथा विंग्स स्पेस आदि का भी अपना एक खास महत्व है । ये वो जगहें हैं जहाँ एक अभिनेता प्रस्तुत होने वाले नाटक के प्रति अपने आपको एकाग्रचित करता है । यही वो वजह है कि प्रदर्शन के दौरान किसी और को उधर जाने की इजाज़त नहीं होती या किसी को भी किसी भी प्रकार के गैर ज़रुरी कार्य करना एक उचित कर्म नहीं माना जाता । मंच पार्श्व का अनुशासन मंच पर प्रस्तुत होने वाले या हो रहे कार्य का सहायक होता है । हिंदुस्तान में ही कुछ नाट्य दल ऐसे हैं या कुछ पारंपरिक नाट्य शैलियाँ ऐसी हैं जिनका मंच पार्श्व का अनुशासन आज भी अनुकरणीय हैं ।
अब जहाँ तक सवाल मंच पर बने स्पेस का है तो अलग – अलग नाट्य प्रस्तुतियों में उनकी शैली के मुताबिक स्पेस की बुनावट भी अलग – अलग होती है। जहाँ तक सवाल सभागार का है तो कोई ओपन स्पेस में खेला जाता है, कोई प्रोसेनियम में, कोई स्टूडियो थियेटर में तो कोई अन्य कोई प्रायोगिक स्पेस में। इन सबके साथ सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया अलग – अलग होती है ।
हर अभिनेता का अपना तरीका होता है जिसे वो अपनी सुविधा के हिसाब से गढता है। हाँ पर कुछ बातें बुनियादी होती है जिसका ध्यान रखना हर स्पेस में ज़रुरी होता है। नाटक को दृश्य काव्य कहा गया है जिसका प्रदर्शन सामान्यतः दर्शकों के समक्ष किया जाता है । अब जो भी दर्शक नाटक देखने आता है वो चाहे कितना भी सहृदय क्यों न हो अगर उसे ठीक से दिखाई और सुनाई नहीं दे रहा है तो या तो वो उठके चला जायेगा या बोर होगा। इसलिए किसी भी स्थान पर एक अभिनेता की सबसे प्राथमिक ज़िम्मेदारी ये बनती है कि वो प्रस्तुति के प्रस्तुतिकरण के दौरान इन बातों का खास ध्यान रखे । इसके लिए अगर उसके पास सभागार या प्रदर्शन स्थल की बनावट, उसकी ध्वनि व्यवस्था अर्थात इकोएस्टिक, मंच या प्रदर्शन स्थल की ओपनिंग एवं दर्शकों के बैठाने का इंतज़ाम, दर्शकों की उपस्थिति आदि की जानकारी है तो उसका काम आसान हो जाता है। कई बार प्रदर्शन स्थल या सभागार की बनावट के हिसाब से प्रस्तुति में कुछ छोटे मोटे बदलाव करने आवश्यक हो जातें हैं। वहीं कई सारी प्रस्तुतियाँ किसी खास स्पेस को ध्यान में रखकर की जाती है जिसका किसी और तरह के स्पेस में प्रदर्शन उतना कारगर सिद्ध नहीं होता ।
रंगमंच का एक अभिनेता पहली पंक्ति में बैठे दर्शकों के लिए नहीं वरण आखिरी पंक्ति में बैठे दर्शकों के प्रति भी उतना ही ज़िम्मेदार होता है। कहने का तात्पर्य ये कि ऊपर में वर्णित कुछ तकनीकी जानकारी के बाद एक अभिनेता अलग – अलग स्पेस के साथ कुछ उसी तरह से सामंजस्य बिठाते हुए ये तय करता है उसे उसे अपने संवाद किस वौल्युम में बोलना है और अभिनय की एनर्जी कितनी कम या ज़्यादा रखनी है जिससे कि पीछे बैठे दर्शक भी नाट्य-प्रस्तुति का रसास्वादन कर सकें ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. रंगमंच सभी कलाओं का समुच्चय है . इस प्रदर्शनकारी कला में अभिनेता और दर्शक दो महत्वपूर्ण अवयव है . अभिनेता की जिम्मेवारी सबसे ज्यादा होती है क्योकि उसका सीधा और प्रभाव उत्पन्न करने वाला संपर्क दर्शको के साथ होता है . ऐसे में किसी भी चरित्र को परिभाषित कर उसे दर्शको के सामने मंच पर लाना इतना आसान नहीं होता . कोई भी चरित्र सिफ़र में नहीं होता . उसे परिभाषित करने के लिए देश, काल , समाज , संस्कृति , मानवीय मनोभाओं के साथ साथ राजनितिक , आर्थिक और सामाजिक पहलुओ की जानकारी भी अति आवश्यक है . इसलिए अभिनेता के लिए यह आवश्यक हो जाता है की को शरीर और दिमाग दोनों का भरपूर इस्तेमाल कर चरित्र को मंच पे जीवंत कर दर्शको का मनोरंजन करे . दर्शक नाटक का सम्पूर्ण मज़ा ले , इसकेलिए यह भी आवश्यक है की मंच और दर्शक के बीच सही तालमेल हो .

    काफी सुन्दर आलेख -- रंगमंच के विद्यार्थियों के लिए काफी लाभप्रद --- इस आलेख के लिए पुंज भाई को साधुवाद ---

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  2. सारगर्भित व महत्‍वपुर्ण लेख.... साभार आपका

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