यह एक पुराना आलेख है पर प्रसंगिकता पुरानी नहीं. ये शायद प्रभात खबर में छापा था. सो आभार सहित प्रस्तुत है.
हिन्दी फ़िल्मों की सफ़लता के लिए
पासपोर्ट बन चुके ‘आइटम सॉन्ग’ की जडें दरअसल पारसी थियेटर तक
जाती है और आज भले ही सिनेमा और रंगमंच से इस प्राचीन शैली के अभिनय के तत्व गायब
हो गये हों लेकिन इस नाट्य शैली के गाने गाकर अपनी भावनाओं से दर्शकों को उद्वेलित
करने की अदा आज भी कायम है.
हमारी आधुनिक हिन्दी फ़िल्में
पश्चिम के ‘रियलिज्म’ से प्रभावित दिखने लगी है लेकिन
आज भी यह पारसी थियेटर की, गाना गाकर
बात कहने की परंपरा को कायम रखे हुए है. पारसी थियेटर में गाना एक अहम तत्व था और
इसमें अभिनेता अपनी गूढ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गाने का सहारा लेते थे. आज
भी हिन्दी सिनेमा में फ़िल्म निर्देशक, अभिनेताओं की भावनाओं की
अभिव्यक्ति देने के लिए गाने का इस्तेमाल करते हैं जिस परंपरा को पारसी थियेटर ने
दर्शकों के मन में स्थापित किया था.


अभिनेता अन्नू कपूर ने कहा, औपनिवेशिक काल में भारत के हिन्दी
क्षेत्र के विशेष लोकप्रिय कला माध्यमों में आज के आधुनिक रंगमंच और फ़िल्मों की
जगह आल्हा, कव्वाली
मुख्य थे. लेकिन पारसी थियेटर आने के बाद दर्शकों में गाने के माध्यम से
बहुत सी बातें कहने की परंपरा चल पडी जो दर्शकों में लोकप्रिय होती चली गयी. बाद
में 1930 के दशक में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा शुरू हुई और फ़िल्मों में भी
इस विरासत को नये तरह से अपना लिया गया.
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