‘हर कला
विधा समाज से अपने लिए सोच-समझ की ताकत ग्रहण करती है और प्रदर्शन के द्वारा उसे
समाज को ही लौटाती भी है। लेन-देन का यह प्रोसेस हर विधा में सतत सक्रिय रहने वाली
प्रक्रिया है। लेकिन इस सच का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि जिस समाज से हम ले रहे
हैं और जिसे संबोधित कर रहे हैं, उन दोनों के बीच बहुत बड़ी खाई है। हम जो व्यक्त करना चाहते
हैं, समाज
संप्रेषण के स्तर पर उसे किस तरह ग्रहण कर रहा है, इसमें बहुत बड़ा गैप है।’
रंग निर्देशक देवेंद्रराज अंकुर ने पटना के गांधी संग्रहालय
में ये बातें कहीं। विषय था ‘रंगमंच का समाजशास्त्र’। यह आयोजन नाट्य संगठन रागा ने
पटना के चर्चित कलाकार शशिभूषण की स्मृति में किया था। देवेंद्रराज अंकुर ने सवाल
उठाये कि पांच हजार साल के इतिहास के बावजूद आज भी समाज में रंगमंच और और
रंगकर्मियों को सम्मानजनक दर्जा क्यों नहीं प्राप्त है? बाकी कला विधाओं के मुकाबले
रंगमंच को आज भी निचले पायदान पर क्यों रखा जाता है? आखिर वह कौन-सी वजह रही जिसके
कारण रंगमंच के प्रति समाज में सकारात्मक संदेश नहीं गया? देंवेंद्र राज अंकुर ने बतलाया
कि जीवन और कला के अंतर को हमने नहीं समझा, इसी कारण इस तरह की समस्याएं
पैदा हुईं। कोई कला मंच पर जाकर जीवन हो जाए कोई कलाकार के लिए, अभिनय माध्यम न रहकर जीवन हो
जाए, इस ओर
भारत की रस थ्योरी इंगित करती है। फिर यह भी विचारणीय पहलू है कि नाटक में अपनी
जिंदगी देखने से अलग हम क्या दे पा रहे हैं ?
स्त्रियों की चर्चा करते हुए अंकुर ने कहा कि दो-चार राज्यों
को छोड़कर रंगमंच में स्त्रियों की भागीदारी को लेकर भी अपने यहां बहुत झिझक है।
उन्होंने माना कि पिछले पंद्रह सालों में कुछ महिला रंग निर्देशकों ने अपना अलग
स्वर लाने की कोशिश की है लेकिन उसकी गति बड़ी मद्धिम है। कुछ स्वर गतिमान दिखते
भी हैं, तो
विवाहित जीवन के बाद उनके क्षरण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। अंकुर ने सवाल खड़ा
किये कि जो माध्यम लोगों की जिंदगी में सुधार लाने की बात करता है, उसमें आखिर कौन-सी ऐसी अंदरूनी
गड़बड़ियां हैं, जिसकी
वजह से उस माध्यम में स्त्रियां आकर्षित नहीं होतीं? और अगर होती भी हैं, तो बहुत दिन तक टिक नहीं पातीं
और टिक भी पाती हैं, तो समाज
उसे स्वीकार नहीं करता।
देवेंद्रराज अंकुर ने माना कि अध्ययन के स्तर भी नाटकों के
पठन-पाठन को लेकर स्थिति निराशाजनक है। उन्होंने कहा कि किसी किताब की दुकान पर
हमारा समाज किताब खरीदने जाता भी है, तो वह नाटक की किताबें नहीं
खरीदता। नाटक की किताबें या तो रंगमंच से जुड़े लोग खरीदते हैं या रिसर्च स्कालर।
अंकुर ने माना कि हिंदी में अभिनेता को लेकर
रोमांटिक-सी छवि बना दी गयी है। लोग यह सोचते हैं कि अभिनेता को पैसे क्यों चाहिए, उसे भूखे-फटेहाल रहकर अपना काम
करना चाहिए। यायावर और आभावों में रहने वाली इमेज अभिनेताओं से जोड़ दी गयी है।
सबसे कम पारिश्रमिक अभिनेता को ही मिलता है। वह सबसे अधिक उपेक्षित होता है जबकि
रंगमंच की सबसे सशक्त इकाई वही होता है। जबकि होना यह चाहिए कि दूसरे क्षेत्रों
में उसके समकक्ष योग्यता रखने वालों को जितनी राशि मिलती है, उतनी उसे भी मिले।
रंगमंच के समकाल की चर्चा करते हुए अंकुर ने कहा
कि सचमुच यह नाजुक मसला है कि दर्शकों को चाहिए वह नाटक हम करें या हम जो चाहते
हैं वह करें या सोच-समझ कर रंगमंच करें? किसी भी कला का पहला उद्देश्य
लोक अनुरंजन करना है। ब्रेख्त से लेकर भरत तक ने इसे स्वीकार किया है कि उस माध्यम
में संदेश भी शामिल होना चाहिए। अंकुर ने कहा कि हिंदी रंगमंच का दुर्भाग्य यह है
कि नाटक करने वाले अलग दुनिया में रहते हैं और उसे देखने वाला दर्शक अलग दुनिया
में। ये दोनों जब तक मिलेंगे नहीं, तब तक सार्थक संवाद मुमकिन नहीं
होगा। चाहे उन्हें नाटक के बाद जोड़ें या नाटक की प्रक्रिया में।
हृषिकेश सुलभ ने कहा कि रंगमंच
कई कलाओं का समुच्चय है। यह वस्तुतः एक अशुद्ध और पूर्णतः जनतांत्रिक कला है, जो हर तरह के शुचितावाद का विरोध करती
है। लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस रंगमंच को लेकर यहां हम एकत्रित हुए हैं, क्या अभी भी उसका जनता से कोई रिश्ता
जुड़ पाया है? सुलभ ने
प्रश्न उठाये कि समाज से रंगमंच का रिश्ता कैसा है? समाज में विभिन्न स्तरों पर जो बदलाव आ
रहे हैं, उसकी
अभिव्यक्ति क्या समकालीन रंगमंच कर पा रहा है? आज हमारे भूमि संबंध बदल गये हैं। आवारा
पूंजी का नया दौर आरंभ हो चुका है। धरती से जल का स्तर हर वर्ष नीचे जा रहा है, खनिजों की लूट मची है, आदिवासी उजाड़े जा रहे हैं – क्या हमारा रंगमंच इन सवालों को उठा पा
रहा है?
नाटककार हृषीकेश सुलभ ने कहा कि हम जिस समाज में रह रहे
हैं, वह समाज
सामंतवाद का ढहता हुआ अवशेष रहा है। यह वही लोग हैं, जो समाज के महत्वपूर्ण ज्ञान के
स्रोत रहे किसी नाट्यकर्मी को कुल्टा और व्यभिचारी कहते हैं। सुलभ ने कहा कि समाज
का यही एक पक्ष नहीं है। यह एक पक्ष है। किंतु दूसरे तरह के अनुभव भी दिलचस्प
किस्म के रहे हैं, जो इसी
समाज से आये हैं। सुलभ ने कहा कि जब वे पूर्णिया में कार्यरत थे, तो रंजना नामक एक कस्बाई रंग
निर्देशक उनसे मिलीं। कहने लगी कि वह नाटक करती है, तो उसका ससुर उसे वेश्या कहता
है, जबकि
उसका पति उसके उस काम में मदद करता है। सुलभ ने बतलाया कि तय तिथि को जब वे जानकी
नगर पहुंचे, तो रंजना
की तरह कई स्त्रियां नाटक में रोल कर रहीं थीं और उसमें पांच सौ स्त्रियों की
उपस्थिति थी। नाटक के बाद सुलभ ने भाषण दिये, जिसमें इस तरह की स्त्री विरोधी
कार्रवाई पर स्त्रियों से उनका मंतव्य जानना चाहा, तो उन दर्शक दीर्घा की
स्त्रियों ने उत्तर दिया कि रंजना को कल से उसका ससुर वेश्या नहीं कहेगा।
सुलभ ने कहा कि सांस्कृतिक भूख की तृप्ति हम
जनता की शर्तों पर नहीं, अपनी
शर्तों पर कर रहे हैं। कहीं न कहीं हम प्रभुओं की रुचि से संचालित हो रहे हैं। हम
वह रंगमंच नहीं कर रहे, जिसकी
मांग हमारी जनता कर रही है। सामुदायिक सक्रियता है नाटक, जिसे हमने कुछ लोगों के जिम्मे
छोड़ दिया है। आज हम जो नाटक करते हैं, उसके कंटेंट को लेकर स्वयं ही
साफ नहीं रहते, जबकि यह
महत्वपूर्ण मामला है। हम नाटकों में कहने क्या जा रहे हैं, यही समाज से आपके रिश्तों को
भी तय करता है। सुलभ ने कहा कि हमारे जीवन में ढेर सारे ऐसे प्रतीक हैं, जो हमारे काम आ सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है, जब हम पहले अपने कंटेंट को लेकर
स्पष्ट हों। सुलभ ने श्याम बेनेगल के एक इंटरव्यू का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने सिनेमा माध्यम
की बनिस्बत कविता, कहानी और
नाटक तक पहुंचने की अपनी पीड़ा की बहुत सारगर्भित व्याख्या की थी। कहा था कि ये
माध्यम मनुष्य को कल्पनाशील बनाते हैं, जबकि फिल्म उन्हें स्थिर बनाता
है। सुलभ ने माना कि हिंदी रंगमंच का समाजशास्त्र गड़बड़ाया हुआ है, इसकी वजह यह है कि हिंदी समाज
के संघर्ष से यह पूरी तरह अनभिज्ञ है।
मृत्युंजय प्रभाकर ने कहा कि थिएटर एक सामाजिक
गतिविधि है। रंगमंच की संकल्पना तब जाकर मूर्त होगी, जब उसमें समाज के विभिन्न
वर्गों की उपस्थिति होगी। यही यह तय भी करेगा कि जो जिस समाज से आता है, उसका रंगमंच पर क्या प्रभाव
पड़ता है। नट समाज मुख्यधारा के समाज से अपने को दूर रखने में विश्वास करता था।
इस समाज ने एक समय में मुख्यधारा के समाज के लिए चुनौती पैदा कर दी थी।
पिछड़े और दलित समाज से आये लोगों ने ही कला, लोक कला और साहित्य को जिंदा
रखा है। आजादी के बाद से क्षरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। समाज में जिसका वर्चस्व
होता है, संस्कृति
भी उसी की होती है। अपने समाज में कुछ खास जातियों का वर्चस्व रहा। जब तक अस्सी
प्रतिशत समाज का रंगमंच में अनुभव आएगा नहीं, तब तक स्थितियों में सुधार संभव
नहीं।
कार्यक्रम का संचालन विनोद कुमार वीनू ने किया। अध्यक्षता सौम्या बंद्योपाध्याय
ने की। सौम्या ने अंग्रेजी में इस विषय पर लंबा वक्तव्य दिया। उसके बाद आरएन दास
आदि दर्शक दीर्घा में इकट्ठे लोगों ने भी कुछ सवाल किये, जिसका उत्तर वक्ताओं ने दिया।
अरुण नारायण की रिपोर्ट
♦ मोहल्ला
लाइव से साभार
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