रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 28 नवंबर 2011

मीडिया से गायब हो रहा है थियेटर


कुंवर चंद्रप्रताप सिंह
विशेषांक में भी भारतीय कला, खासकर शास्‍त्रीय कला और नाट्य कला के लिये कोई स्‍थान नहीं होता : थियेटर जर्नलिज्‍म घुट घुट कर अपना दम तोड़ देगी : तेजी से अपना रंग रुप बदलती और कुलाते भरती पत्रकारिता के दौर में कई विधाएं अखबार के पन्‍नों और टीवी के स्‍क्रीन से गायब होती जा रही हैं. एक ऐसी ही विधा है थियेटर पत्रकारिता. यह पत्रकारिता की कोई नई या अलग विधा नहीं है, लेकिन पत्रकारिता को सम्‍पूर्णता प्रदान करने में इसकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. पत्रकारिता के जिन अवययों में कलाकारों का हिस्‍सा होता है, उनमें थियेटर, नाटक एवं उनके कलाकार महत्‍वपूर्ण हैं. संभवत: यही कारण रहा है कि कुछ वर्ष पहले तक देश के सभी बड़े एवं नामीगिरामी अखबारों एवं पत्रिकाओं में नाटक और रंगमंच से संबंधित खबरें एवं समीक्षाओं को प्रमुखता से स्‍थान दिया जाता था. परन्‍तु आज के संदर्भ में स्थिति निश्चित रूप से कुछ अलग और निराशाजनक दिखती है. खासकर हिन्‍दी के राष्‍ट्रीय अखबारों में नाटक एवं नाट्य कलाकारों की जबर्दस्‍त उपेक्षा अब साफ दिखाई पड़ती है.
इसके बावजूद तकनीकी तौर पर प्रशिक्षित रंगकर्मियों एवं रंगसमीक्षकों की एक बड़ी जमात आज भी सक्रिय है. इस सक्रियता के बने रहने की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता, भले ही हिन्‍दी अखबार व पत्रिकाएं पत्रकारिता के इस महत्‍वपूर्ण हिस्‍से से अपना मुंह मोड़ लें. हां, देश के अंग्रेजी अखबार इस मामले में ज्‍यादा गंभीरता से अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे दिखते हैं. हिन्‍दी अखबारों में जबरदस्‍त प्रतिस्‍पर्द्धा चल रही है. हर अखबार अपनी अपनी क्षमता के अनुसार विशेष अंक यानी अलग परिशिष्‍ट काफी संख्‍या में पाठकों को उपलब्‍ध करवा रहे हैं. लेकिन विशेषांक में भी भारतीय कला, खासकर शास्‍त्रीय कला और नाट्य कला के लिये कोई स्‍थान नहीं होता. दूरदर्शन और अन्‍य प्राइवेट चैनलों पर भी नाट्य प्रस्‍तुतियों को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखती है. न्‍यूज चैनल भी नाटकों से संबंधित समाचारों को प्रसारित करना अपने सम्‍मान के खिलाफ समझते हैं.
नतीजतन, देश भर में चल रही नाट्य गतिविधियों के बारे में किसी को खबर तक नहीं लगती. यही वजह है कि नाट्य विकास की जो गति होनी चाहिए वह होती नहीं दिख रही है. इतना ही नहीं, अलग अलग प्रदेशों की गतिविधियां और विकास परिणाम गुमनामी के अंधेरे में डूबे रहते हैं. ऐसे में अगर पत्रकारिता के विविध आयामों में नाटकों को भी गंभीरता से शामिल कर लिया जाता है तो न केवल नाट्य प्रेमियों और नाट्य अध्‍येताओं की मुश्किलें आसान होगीं बल्कि अखबारों की विविधता भी और समृद्घ होगी. इससे प्रसार वृद्धि भी संभावित है.
सर्वाधिक दुखद यह है कि आज सूचना क्रांति के दौर में रंगमंच कहीं भी शामिल नहीं हो पाया है. इस सूचना क्रांति के युग में संबंधित सूचना केन्‍द्र का ना होना रंगकर्मियों के पिछडेपन की कहानी स्‍वयं कह जाता है. अगर परिस्थितियां ऐसी ही बनी रही तो आगे चलकर थियेटर की स्थिति और बुरी हो जायेगी. परिणामत: थियेटर जर्नलिज्‍म घुट घुट कर अपना दम तोड़ देगी. थियेटर को पत्रकारिता की मुख्‍य धारा से जुड़ना है तो उसे अपनी जड़ता समाप्‍त कर गतिमान होना ही होगा. एक नई दिशा अपने लिये तय करनी ही होगी. असंतुलन की स्थिति से अपने आपको निकालकर मनोरंजक स्‍वरूप मे दर्शकों तक पहुंचना होगा, तभी वह मीडिया में अपनी जगह बना पायेगा. थियेटर पत्रकारिता से जुड़े कलाकारों को भी अपनी ओर पहल करनी होगी. साथ ही थियेटर के विभिन्‍न पक्षों की गहराई से जानकारी प्राप्‍त करनी होगी, तभी वे अपने पाठकों व अपने अखबारों को संतुष्‍ट कर पायेंगे.
यह सच है कि थियेटर पत्रकारिता का अच्‍छा भविष्‍य है. प्रिंट मीडिया और इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया समेत डॉट काम मीडिया में भी अच्‍छी संभावनाएं हैं. अपराध, राजनीति और गंभीर खबरों के बीच में रंगकर्म की खबरों या समीक्षाओं का प्रकाशन या प्रसारण पाठकों,  दर्शकों व श्रोताओं को राहत देता है. आने वाले दिनों में यह मीडिया की आवश्‍यकता बन सकती है. लेकिन इसके लिये आवश्‍यक है कि थियेटर पत्रकारों को थियेटर के सभी पक्षों की जानकारी गहराई से हो. दरअसल अब तक जो परंपरा रही है, उसके अनुसार अखबारों से जुड़े सामान्‍य पत्रकार या नाट्य संस्‍थाओं से जुड़े कलाकार ही थियेटर जर्नलिज्‍म की खानापूर्ति करते रहे हैं. नतीजतन थियेटर से संबंधित रिपोर्ट, समीक्षाएं प्रभावशाली नहीं बन पाती थी. यह बस अखबार के पन्‍नों पर रंगकर्म की उपस्थिति की औपचारिकता भर ही हुआ करती थी. आज के पत्रकारिता में तकनीकी विकास बड़ी तेजी से हो रहा है. पत्रकारो के कार्यक्षमता एवं दक्षता को प्राथमिकता दी जा रही है. ऐसे में विशेषज्ञ थियेटर पत्रकारों की आवश्‍यकता के साथ साथ उसका महत्‍व भी बढ़ेगा. अखबार एवं चैनल रंगकर्म के विशेषज्ञ पत्रकारों का उपयोग जब शुरू करेंगे तब हाशिए पर गई पत्रकारिता की यह विधा फिर फलने फूलने लगेगी.
आज फिल्‍म एवं टेलीविजन की दुनिया में सैकड़ों ऐसे कलाकार हैं, जो थियेटर की दुनिया से वहां पहुंचे हैं. ओमपुरी, अनुपम खेर, नसीरुद्दीन शाह, शाहरुख खान और ना जाने ऐसे कितने नाम हैं, जो रंगमंच की दुनिया से ही चकाचौंध मायानगरी मुंबई पहुंचे. इसमें कहीं ना कहीं थियेटर पत्रकारिता का भी योगदान रहा है. जागरुकता के अभाव में रंगमंच पर भी असर पड़ा है. रंगमंच की कर्मस्‍थली मंडी हाउस में इन दिनों कौन सी गतिविधिया चल रही हैं. इसका पता नहीं चल पाता है. जबकि मंड़ी हाउस ने सैकड़ों उम्‍दा कलाकार फिल्‍म और टीवी की दुनिया को दिए हैं. जो थियेटर पत्रकारिता की पुरानी परम्‍परा के सहयोग से ही संभव हो पाई. आम पाठक और दर्शक वर्ग भी हत्‍या, बलात्‍कार, लूट-डकैती से रंगे पेज और टीवी स्‍क्रीन पर चीखते चिल्‍लाते एंकरों के इतर कुछ अच्‍छा पढ़ना व देखना चाहता है. इसलिए जरुरत है कि सर्कुलेशन और टीआरपी से इतर आम लोगों को भी थोड़ा ध्‍यान में रखा जाय. जिससे थियेटर के साथ थियेटर पत्रकारिता भी जिंदा रह सके.

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