हमने एक सवाल रखा था फेसबुक पर कि " वर्तमान मिडिया रंगमंच की लगातार उपेछा कर रहा है. एक समय था की कला और संस्कृति के लिए प्रिंट मिडिया के पास अलग से एक साप्ताहिक पन्ना हुआ करता था, साथ ही नाटकों पर रिपोर्टिंग भी होती थी . नाटकों एवं अन्य कला माध्यमों की समीक्षा छापा करतीं थीं. आज एकाध अखबारों को छोड दिया जाये तो चारों तरफ एक सन्नाटा सा ही है. यही हाल टीवी का भी है. आखिर क्या कारण हो सकता है ? आइए थोड़ी बातचीत इस विषय में की जाये. आपको क्या लगता है ?"
जो जबाब मिला वो आपके सामने है . आपके मन में कोई जबाब आ रहा है तो ज़रूर लिखें. हमें खुशी होगी उसे यहाँ शामिल करके .- पुंज प्रकाश
क्योंकि रंगमंच अब भी बाज़ार का उपनेवेश नहीं बन सका ... वो वेबक ढंग से समाज की नग्नता को अनावृत करता है ... मिडिया इस नग्नता को क्यूँ दिखायेगा .... वो तो अश्लीलता दिखायेगा. - अमितेश कुमार , दिल्ली.
मीडिया तो नहीं
करता है पर क्या रंगकर्मी रंगमंच या कला पत्रिकाओं को सपोर्ट करते हैं? कितने रंगकर्मी थिएटर या आर्ट पत्रिकाओं
के वार्षिक ग्राहक हैं?.... प्रशिक्षित लोगों पर ज्यादा जिम्मेदारी
है बंधु. जो अप्रशिक्षित हैं, नौसिखिये हैं, उन्हें समृद्ध करना हमारा ही काम है…..अच्छा ‘आलोचक’ ही बेहतर अभिभावक भी होता है.
साहित्य की अन्य विधाओं में तमाम वैचारिक विचलनों के बावजूद बहुत आलोचक हैं. पर रंगमंच और नाटक के आलोचक नहीं हैं. आप हिंदी में आज की तारीख में 5 नाम भी नहीं गिना सकते हैं. यह स्थिति चिंताजनक है. जब तक हम इस पर ध्यान नहीं देंगे मीडिया जगह भी दे दे तो लिखेगा कौन? सही आलोचनात्मक दृष्टि के अभाव में यही होगा. आइए, मिलजुल कर हम इस दिशा में कुछ सार्थक करने का प्रयास करें, जो कर रहे हैं उन्हें और मजबूत करने की कोशिश करें एफबी पर भी देखिए आत्मप्रचार ज्यादा है. समग्र रंगमंच की चिंता बहुत कम.- रंगवार्ता
पत्रकारिता से जुड़े अधिकतर लोगों में रंगमंच और रंगकर्म की समझ नहीं है. रंगकर्म बौधिकता और प्रतिबधता से जुडी कला है. संपादक सतही और भेडियाधसान वाली ख़बरों पर जोर देतें हैं, जहाँ मेधा नहीं बकवास और बे सर पैर की बातों की अधिक ज़रूरत होती है. नाट्यकला के साथ क्रिकेट जैसा सलूक नहीं किया जा सकता है. क्रिकेट पर ढेंचू ढेंचू की बातों को भी आधार मिलता है. रंगमंच पर लिखना भी रंगकर्म करने जैसा मेधा और साधना मांगता है, जो आज के पत्रकारों के बस की बात नहीं.- कुमार शैलेन्द्र, नई दिल्ली
आजकल के सम्पादक अपना व्यक्तित्व नहीं बना सके हैं. वे कहीं न कहीं किसी न किसी सहारे से सम्पादक बन बैठे हैं. यही कारण है कि समाचार पत्रों के मेनेजमेंट ग्रुप के सामने एक चमचा मात्र बनकर रह गए हैं. वे अपनी योजना रखने के जगह उनके योजनाओं का माध्यम मात्र बनकर रह गए हैं. सम्पादक ही नहीं रहे तो साहित्य और संस्कृति कहाँ को लेकर कौन स्थान बनाएगा ??? - प्रकाश झा , उपसंपादक रंगप्रसंग, नई दिल्ली .
आज लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी बाजारीकरण से अछूता नहीं है -- एक सर्वे के अनुसार एक अख़बार में पाठक का मात्र १८ रुपया होता है जबकि लगभग ८२ रुपया उद्योग पतियों पूंजीपतियों का --- अख़बार जनता के पैसे से नहीं वरन पूंजीपतियों के भरोसे चलता है तो ये कहा तक अख़बार जनता का साथ निभाएगी --- अख़बार का अर्थशास्त्र तो जनता के विरुद्ध जाता है --- ऐसे में रंगमंच को कवर कर के अख़बार का क्या फायदा होगा --- याद है २००२ में पावस नाट्य महोत्सव को न कवर करने के कारण विजय कुमार के साथ हमलोगों ने एक अंग्रेजी अख़बार के दफ्तर में हंगामा किया था -- ये वही अख़बार था जिसने उस दिन २ पेज सौंदर्य प्रतियोगिता के फोटो पे जाया किया था परन्तु रंगमंच के नाम पर उस पेपर का पेज की कमी हो जाती थी -- --
सच्चाई तो ये है जनधर्मी नाटक के दर्शक पेपर नहीं पढते---- भिखारी ठाकुर को लोगो ने पहले जाना , बाहरी समाज और पेपर वालो ने बाद में ----रामानुज दुबे, ग्रामीण विकास कार्यकर्ता एवं रंगकर्मी
सच्चाई तो ये है जनधर्मी नाटक के दर्शक पेपर नहीं पढते---- भिखारी ठाकुर को लोगो ने पहले जाना , बाहरी समाज और पेपर वालो ने बाद में ----रामानुज दुबे, ग्रामीण विकास कार्यकर्ता एवं रंगकर्मी
मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठता है कि हिंदी रंगमंच गंभीर विमर्शो से क्यों कतराता रहा है? गहरे सामाजिक सरोकारों से जुडे होने के बावजूद रंगमंच की दुनिया में समाज की आंतरिक हलचलों पर बातचीत क्यों नहीं होती? प्रशिक्षित और स्वनामधन्य रंगकर्मियो...
“भरतमुनि का नाट्यशास्त्र जिसे पंचम वेद कहा गया है, आज अपने अस्तित्व को लेकर संघर्षरत है. अपने शहर में, साल भर में ३-४ छोटे बड़े नाट्य समारोह, कुछ अन्य नाट्य मंचन आयोजित हो जाने के बाद भी, केवल नाटक देखने के शौकीनों और रंगकर्मियों के परिजनों के अलावा, और कोई नहीं दिखता, । वहीं सिंगल स्क्रीन सिनेमा एवं मल्टीप्लेक्स में आपको राजा से लेकर रंक तक दिख जायेंगे फिल्म देखते हुए और वो भी बाकायदा टिकेट लेकर, फिर चाहे वो टिकेट ३० रूपये की हो या ३०० की... ये रंगमंच का एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है।“
“सभी अखबार एवं राष्ट्रीय फिल्म व समाचार पत्रिकाओं में एक नियमित कॉलम निश्चित करें जो नियमित, निरंतर, निश्चित रहे. जिसमें, जैसे की हर शनिवार-रविवार को शहर में नाट्य कला से जुडी गतिविधियों का उल्लेख हो. मेरा ऐसा मानना है कि इससे जनता नाट्य कला के प्रति जागरूक एवं गंभीर होगी. जब तक रंगमंच को seriously लिया ही नहीं जायेगा, उसे अन्य कार्यों की तरह एक देनंदीन कार्य के रूप में नहीं देखा जायेगा तब तक तो कुछ हो ही नहीं सकता ... बहरहाल, मेरा मीडिया और देश की जनता से अनुरोध है की भविष्य में जब कभी आपके अथवा किसी अन्य शहर में कोई नाटक एवं नाट्य समारोह आयोजित हों तो उन्हें देखने अवश्य जाएँ. क्योंकि किसी भी फिल्म की तरह ही इसमें भी प्रकाश व्यवस्था, मंच निर्माण, संगीत आदि जैसी चीज़ों पर कई उनींदी रातों की तन तोड़ मेहनत रहती है जिसे दर्शकों के सामने महज़ १-२ घंटों के लिए प्रस्तुत किया जाता है और इतना सब करने के बाद भी दर्शकों से वैसा फीडबैक नहीं मिलता तो ऐसे में कलाकार का हतोत्साहित होना, उसका मनोबल गिरना लाज़मी है।“- अविनाश सिंह , रंगमंच कलाकार , अलवर , राजस्थान.
कारणों की पड़ताल में जायें तो बहुत कुछ सामने आएगा.... वैसे एक सीधा और प्रत्यक्ष कारण बाज़ार भी है ... इसकी बानगी हम रंगमंच में देखते भी हैं जब किसी रंगमंचीय प्रस्तुति को बाज़ार नियंत्रित करता है.... अभी हाल में इसके उदहारण हमारे सामने से होके गए हैं...दिलीप गुप्ता, अभिनेता, दिल्ली.
आज की मिडिया आवाम की नहीं है और रंगमंच का सीधा सम्बन्ध आवाम के साथ होता है, चिंता भी उसी की करता है. दूसरी बात ये कि हम रंगकर्मी कई धारा में बांटें हैं . कोई कहता है कि रंगमंच को अराजनीतिक होना चहिये , कोई बाज़ार कि मांग को पूरा करने कि बात करता है,कोई कलावाद.....आपसी झगडे में कोई तूफान खड़ा नहीं हो सकता. रंगमंच को क्लासिकल - पोलिटिकल काम के रूप में समझना चहिये. - प्रेम प्रकाश , अभिनेता , रांची, झारखण्ड
रंगमंच हमेशा से ही संवेदनशील रहा है ,मीडिया भी पहले संवेदनशील थी , अब नहीं है यह एक कारण है। मीडिया अब ग्लैमर के पीछे भाग रही है जो की रंगमंच मे नहीं है , यह अलग बात है कि फिल्मी पर्दे पर भी दिखने वाली बहुत सी ग्लैमर चेहरे रंगमंच ने ही पैदा किया है। रंगमंच साहित्य से जुड़ा हुआ है, अब मीडिया को साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। अमूमन नई पीढ़ी का भी यही हाल है। ........ पढ़ेगा कौन .... ? और भी कई कारण हैं...................संजय चौधरी. रंग निर्देशक, पटना
इसका कारण है की रिपोर्टिंग में थियेटर के लोग कम होते जा रहे हैं. पहले इनका सीधा जुडाव किसी ना किसी रूप में होता था अब सब बदल रहा है.- विवेक कुमार तिवारी, रायगढ़.
मुझे लगता है नाटक की समीक्षा करना या उसपर लिखना दोनों ही बहुत कठिन और गंभीर पत्रकारिता का हिस्सा है. आज के दौर में जहाँ पत्रकारिता अपने निम्न स्तर को छु रहा है वहाँ हम गंभीरता की कल्पना ही नहीं कर सकते. दूसरी बात ये की आई टी और टी इ सी के लोभ में हमलोगों ने कला और मानवता को हासिये पर रख दिया है. हम विकाशील देश के नागरिक हैं और हमने सिर्फ पैसा पैदा करने वाले फसलों को ही प्राथमिकता दे रखी हैं. तीसरी बात , इसका सबसे बड़ा कारण नाट्य आंदोलनों से जुड़े लोग और उनका दोहरा चरित्र है. एकजुटता ही एकमात्र रास्ता है. - सुमन सौरभ, पटना.
मराठी रंगमंच की स्थिति तोड़ी ठीक है, हिंदी रंगमंच की स्थिति इस मामले में ज्यादा खराब है.- सुरुचि वर्मा, अभिनेत्री, मुंबई.
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