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मंगलवार, 3 जनवरी 2012

पैसा नहीं पानी कमाएंगे लोग- शेखर कपूर


यथार्थ को पर्दे पर उतारनेवाले शेखर कपूर 'पानी' बना रहे हैं. इस फिल्म में 2035 के उस भविष्य की कल्पना की गई है जब पानी का नामों-निशां नहीं होगा. फिल्म 'पानी' के बारे में निर्माता-निर्देशक शेखर कपूर से बातचीत.


क्या पानी ऐसा मुद्दा है जिस पर एक पूरी फिल्म बनाई जाए?

हां! यह तो एक बड़ी चुनौती है। ऐतिहासिक दृष्टि से पानी हमेशा से एक सामुदायिक संपत्ति रहा है। यहां तक कि राजाओं के जमाने में भी। पहले पानी लेने के लिए हमें कड़ी मेहनत भी करनी पड़ती थी, लेकिन आधुनिक सदी में पानी एक निजी संपत्ति बन गया है। अब हरेक घर में पानी के लिए सीधे पाइप लगे हुए हैं। इससे हमारी मानसिकता में भी बदलाव आ गया है। अब हम बड़ी आसानी से पानी ले लेते हैं। महानगरों को इस तरह बनाया जा रहा है कि नए उभरने वाले शहरों को भी बुनियादी जरूरतों के लिए पानी पाइपों से मुहैया कराया जा सके। पानी इतनी आसानी से मिल जाने से ही पानी की बर्बादी शुरू हुई है। पानी की कमी के लिए लोग खुद जिम्मेदार हैं, उन्हें सीखना चाहिए कि कैसे व्यवहार करना है। सरकार को भी बड़ी जिम्मेदारी से काम करने की जरूरत है। जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है।

आप एक काल्पनिक स्थिति दिखा रहे हैं। आपकी फिल्म में भयावह भविष्य का चित्रण है?

यह पूरी तरह काल्पनिक नहीं है। नलों में पानी हमेशा नहीं रहेगा। पहले ही पानी की काफी कमी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बेमौसमी मानसून आ रहे हैं। हम नहीं देख पा रहे हैं कि हो सकता है एक अलग संसाधन के रूप में पानी रहे ही नहीं। हमें इसे सावधानी से इस्तेमाल करने की जरूरत है। निजामुद्दीन (दिल्ली) में मेरे दादा-दादी का एक बगीचा था, जिसमें हैंडपंप से पानी खींचकर सिंचाई की जाती थी, लेकिन अब तो बगीचों में फव्वारों (स्प्रिंकलर) की व्यवस्था है जिससे सिंचाई तो आसान हो गई है, पर पानी की बर्बादी बदतर हो गई है। भूजल स्तर घट गया है और हैंडपंपों में पानी खत्म हो रहा है। चेन्नई पहले से ही पानी की कमी की मार झेल रहा है, जबकि दूसरी ओर पांच-सितारा होटलों में लोग आधे-आधे घंटे तक नहाते रहते हैं। गोवा में पयर्टन की वजह से पानी पर दबाव बढ़ रहा है। ऐसा हर जगह हो रहा है, यही वजह है कि पानी आज एक मुद्दा बन गया है।
मुझे लगता है कि इस मुद्दे से लड़ने के माध्यम बच्चें होंगे, बच्चों को ही पानी का दूत बनने की शिक्षा दी जानी चाहिए। मेरी बेटी मुझे पानी के इस्तेमाल की शिक्षा देती है।

अपनी फिल्म पानी के बारे कुछ बताईये? 

'पानी' एक ऐसे शहर की कहानी है जो सन् 2035 का शहर है। पानी के लिए युध्द पहले ही शुरू हो चुके हैं। 15 फीसदी लोगों के पास पानी है बाकी 85 फीसदी को इसके लिए जूझना पड़ता है। पानी का निजीकरण हो गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रोटोकाल घोषणा करते हैं कि जिनके पास पानी है वे बाकियों को थोड़ा बहुत पानी मुहैया कराएं। लेकिन ऐसे में पानी की कालाबाजारी शुरू होती है। फिर एक ऐसी स्थिति भी होगी जब राजनेता कहेंगे 'वोट दोगे तो पानी मिलेगा'। लोगों का शोषण और नियंत्रण करने के लिए पानी का इस्तेमाल होगा। शायद लोग वहां काम नहीं करेंगे, जहां पीने का पानी नहीं मिलेगा। लोग उन कंपनियों में काम करेंगे जहां पानी मिलेगा, क्योंकि वहां कम से कम 'पानी तो मिलता है पीने को.'
अमीरों को अपने राजनीतिक कनेक्शन की वजह से पानी मिलेगा। झुग्गियों में पानी नहीं होगा। सामाजिक बेचैनी होगी। फिल्म 'पानी' में एक दृश्य ऐसा है, जहां लोग कार के रेडिएटर से पानी चुराने के लिए हमला करते हैं। फिल्म में एक ऐसा शहर है जहां हाईवे है। उन्हीं हाईवे के नीचे एक ऐसी औरत रहती है, जिसे मिलने वाला पानी दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है।

'पानी' फिल्म बनाने का विचार आपके मन में कैसे आया? 

शायद मैं ठीक ही हूंगा कि हरियाणा के नेता बंसीलाल ने गांव में पानी की कमी और शहरों में पानी की बर्बादी की ओर संकेत किया था। एक दिन जब मैं मालाबार हिल पर अपने मित्र के घर पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, उस वक्त वह आधे घंटे से भी ज्यादा देर तक नहाता रहा था तो मैं वहां से चला आया। रास्ते में मैंने धारावी झुग्गियों में पानी के लिए लोगों को लम्बी कतारों में खड़े देखा, जिसका मुझ पर गहरा असर हुआ।

क्या पानी के इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए जलकर एक तरीका है? 

मुझे नहीं लगता कि इससे कोई हल होगा। इसमें खास बात यह है कि जलकर पक्षपातपूर्ण भी हो सकता है, जो अन्याय होगा। सिर्फ पैसे वाले लोग ही पानी को खरीदेंगे और उन्हें ही पानी मिल पाएगा, जो कर नहीं चुका पाएंगे उन्हें यह नहीं मिल पाएगा। हालांकि कर समस्या का हल नहीं है, लेकिन होटलों में पानी के इस्तेमाल के लिए मीटर होने चाहिए। कर के बजाय पानी की उपलब्धता और आपूर्ति समान होनी चाहिए।

क्या पानी की कमी पर इस तरह से युध्द की कल्पना करना मुद्दे को जरूरत से ज्यादा तूल देना नहीं है?

जरा सोचिये, अगर मुम्बई जैसे शहरों में पानी खत्म हो जाए तो? समस्या की शुरुआत पानी के निजीकरण के साथ हो रही है। केरल में कोका-कोला भूमिगत जल विवाद पानी विवाद का ही एक उदाहरण है। अगर मैंने 1965 में यह कहा होता कि एक दिन लोग पानी को बोतलबंद करके अच्छे दामों पर बेचेंगे तो शायद आप लोग मुझे पागल समझते। लेकिन आज हो रहा है।
पानी के लिए युद्द, शायद आज असंगत लगे लेकिन आप देख रहे हैं कि आज पूरे विश्व में पानी के लिए लोग लड़ रहे हैं। टर्की के बीच से नदियां गुजरती हैं, पर वहां की गोलन हाइट्स को लेकर छिड़े विवाद में पानी ही बड़ा मुद्दा है। भारत-पाक विवादों में भी जल को लेकर काफी विवाद है, क्योंकि भारत सतलुज के पानी को रोकने की धमकियां देता है। मलेशिया और सिंगापुर के बीच भी पानी को लेकर संबंधों में तनाव है। सिंगापुर का एक अच्छा उदाहरण है कि गंदे पानी को रिसाइकिल (परिशोधन) किया जा रहा है और टी.वी. पर प्रसारित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री जी वही परिशोधित पानी पी रहे थे। आने वाले समय में पानी का स्तर जितना नीचे जाएगा, पानी के लिए विवाद उतने ही ज्यादा होंगे।

क्या कोई विकल्प है ?

भूमिगत जल उपलब्ध नहीं है। समुद्री पानी के इस्तेमाल के लिए कर्ज की बहुत जरूरत है जो महंगा है। रीवर्स ओसमोसिस पर विचार किया जा सकता है। शायद बाहर निकलने का रास्ता नैनोटैक्नोलाजी में हो। अगर हमारे पास रासायनिक रूप से स्थायी नैनो अणु हो तो नमक के क्रिस्टल्स को रोका जा सकता है। किसी शहर में पानी की कमी होना एक भयावह स्थिति है। अगर हमारे पास पानी ही नहीं होगा तो 8-9 फीसदी आर्थिक विकास की बातें करना सब बेमानी ही है। कारखाने बंद हो सकते हैं। बड़ी मात्रा में विस्थापन हो सकता है, युध्द भी हो सकते हैं। इसलिए 'पानी' फिल्म में पानी को विषय बनाया गया है।

फिल्म 'पानी' को भविष्य की कल्पना पर क्यों बनाया है?

पहले ही 'बैडिंट क्वीन' की वजह से सेंसर बोर्ड से मैं काफी परेशान रह चुका हूं। मैं व्यवस्था के खिलाफ कुछ भी नहीं बनाना चाहता था। इसलिए इस फिल्म को भविष्य में सेट किया गया है। 

आपने शहरों को ही फोकस किया है। क्या गांवों में पानी की कमी नजरअंदाज नहीं हो गई है?

गांवों में पानी की कमी दर्शाने वाली तो और भी फिल्में बनी हैं, जैसे 'गाइड', 'लगान'। लेकिन जब उन शहरी इलाकों में पानी की कमी होगी जो वित्तीय और प्रशासनिक केंद्र हैं, तक क्या होगा, यही दिखाना मेरा लक्ष्य है।

लेकिन क्या शहरों के खत्म होने का विचार कहानी के पानी के मुद्दे को भटका नहीं रहा है?

ठीक है न्यूयार्क जैसे शहरों में ऐसी स्थिति हो सकती है जहां पानी थोड़ा-थोड़ा टुकड़ों में मिलता रहे पर बाकी शहरों में तो स्थिति भयावह ही होगी। तिहास में 'तुगलकाबाद' इसका उदाहरण रहा है। यह पानी की कमी की वजह से ही खत्म हो गया था। पानी की कमी की वजह से लोग शहरों को छोड़ देंगे। उम्मीद तो यही करता हूं कि किसी न किसी दिन पानी के लिए कोई मसीहा जरूर खड़ा होगा।
मैं इस बात से भी इत्तोफाक रखता हूं कि किसी न किसी को पानी के मुद्दे को उठाना चाहिए। मैं खुश हूं कि मैंने इसे उठाया है। आपको मुम्बई में पानी मिल जाता है, लेकिन चेन्नई, दिल्ली इनका क्या? हमें कुछ करने की जरूरत है। मुम्बई जैसे शहरों में पानी का इस्तेमाल कम किया जाना चाहिए। एक बूंद बचाना मतलब एक पैसा कमाना है। पानी ज्यादा मात्रा में उपलब्ध नहीं है। विनाश हो सकता है।

पानी की कमी की स्थितियां क्यों पैदा हुईं?

वह सीधे तौर पर पानी के असमान और बिना सोचे-विचारे इस्तेमाल का नतीजा है। एक तरफ अमीरों के स्वीमिंग पूल पानी से भरे हैं तो दूसरी तरह किसानों को खेतों की सिंचाई तक के लिए पानी नहीं मिलता। मोरक्को में हर घर में ताल हैं और अब फ्रांसीसी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए उन्होंने मर्राकेश में गोल्फ कोर्स बना लिए हैं। लेकिन पानी की कमी हो जाए तो बाहर से आए पर्यटक भी आपको छोड़कर भाग जाएंगे।
निश्चित रूप से प्रयास सामाजिक रूप से उत्तारदायी सिनेमा का होना चाहिए। सामाजिक उत्तारदायी सिनेमा में एक संदेश होता है। गुरुदत्त और 'मदर इंडिया', 'तारे जमीं पर' इसके दिलचस्प उदाहरण हैं। कई लोगों का मानना है कि केवल व्यवसायिक सिनेमा ही सफल हो सकता है। लेकिन आपको पता है, दर्शक भी बहुत चालाक हैं। मनोरंजक फिल्म बनाना आसान है। 'ओम शांति ओम' फिर भी काफी हिट है, हालांकि लोग 'तारे जमीं पर' फिल्म को लम्बे अर्से तक याद रखेंगे।

सामाजिक रूप से जिम्मेदार सिनेमा कैसे बनाया जाना चाहिए?

लोगों के मुद्दों को उठाने की जरूरत है। यह इसी दिशा की एक फिल्म है, जिसे मैंने एक आवाज दी है। यह भागीदारी की प्रक्रिया है। आप भी इंटरनेट के जरिए लोगों को जोड़ सकते हैं।

क्या लोगों की भागीदारी से कुछ बदलाव लाया जा सकता है?

बदलाव संभव है और हो भी रहा है

अनुवाद और प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोरा

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