बिलासपुर में जन्मे पंडित सत्यदेव दुबे का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने विगत पचास वर्षो में लगभग 100 नाटकों का निर्देशन किया। दर्जन भर फिल्म पटकथाएं लिखीं और दो दर्जन विदेशी नाटकों का अनुवाद किया। उन्होंने दिल्ली मे अल्काजी के मार्गदर्शन में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में रंगमंच विधा का अध्ययन किया और पूरे देश में एनएसडी का अर्थ नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा रहा, परंतु अपने अथक प्रयास से उन्होंने मुंबई में इतने रंगकर्मी तैयार किए कि पृथ्वी थिएटर की संचालक संजना कपूर कहती थीं नेशनल स्कूल ऑफ दुबे’।
सत्यदेव दुबे ने नाटक को आडंबर और शान-शौकत से आजाद करके सरल व स्वाभाविक बनाया तथा युवा रंगमंच प्रेमियों को सिखाया कि मंचन के लिए अधिक धन नहीं, वरन हृदय में माध्यम के लिए प्रेम चाहिए। सत्यदेव दुबे को मंचन के लिए केवल दो चीजों की आवश्यकता होती थी, मंच और नाटक। इसी मार्ग को खोजने के कारण दुबेजी ने मध्यम वर्ग को अपने सीमित साधनों के बावजूद नाटकों में सक्रिय किया।
सत्यदेव दुबे रंगमंच के संसार में अपनी आक्रोश की मुद्रा के लिए जाने जाते थे, क्योंकि वे सड़क और बस्ती में बोली जाने वाली रंगीन भाषा का इस्तेमाल करते थे और उनके मुंह से गालियां गजल की तरह लगती थीं। उनकी कार्यशैली अजीब-सी थी। वे कलाकारों को केवल रिहर्सल के समय ही निर्देश नहीं देते थे, वरन् उनके रोजमर्रा के जीवन में भूमिका को धकेल देते थे। चित्रा पालेकर मध्यम वर्ग की अनुभवहीन कलाकार थीं और दुबेजी ने ययाति में उन्हें राजकुमारी की भूमिका के लिए तैयार किया। एक दिन कॉलेज के गेट पर सत्यदेव दुबे चित्रा का इंतजार कर रहे थे।
दुबेजी ने चित्रा को बाध्य किया कि वह राजकुमारी की तरह सिर उठाकर पूरी अकड़ के साथ चलें। रास्ते भर दुबेजी साथ रहे और उन्हें समझाते रहे कि भूमिका को कैसे अंतस में उतारें। सत्यदेव दुबे ने श्याम बेनेगल की पहली आठ फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखे तथा पुरस्कृत भी हुए, परंतु बाद में अकारण ही काम करने से इनकार कर दिया। दरअसल सत्यदेव दुबे निहायत ही मूडी व्यक्ति थे और उन्होंने अपनी जीवन शैली, विचार प्रक्रिया और भाषा में कभी आडंबर और खोखलापन नहीं आने दिया। उनके अनेक शागिर्द उनकी असंयत भाषा और कठोर अनुशासन से नाराज हो जाते थे, परंतु बाद में महसूस करते थे कि उनके गुरु ने उनको कैसे लाभ पहुंचाया।
अपनी शिष्याओं और युवा तकनीशियन के साथ वे प्राय: रोमांटिक छेड़छाड़ करते थे, क्योंकि वे उन्हें अपनी केंचुल से बाहर निकालना चाहते थे। कलाकार को उसकी समाज द्वारा लादी हुई हिचक से मुक्त करते थे। इसीलिए उनके कई शिष्यों ने जीवन के सांड को सींग से पकड़कर जीना सीखा था। सत्यदेव दुबे के लिए पूरा विश्व ही रंगमंच था और जीवन के प्रत्येक क्षण में वे नाटक देखते और महसूस करते थे। अपने नाम के अनुरूप हमेशा सत्य बोलते थे, परंतु देव की तरह नहीं, मानव की तरह।
पृथ्वी थिएटर के भीतर कोई नाटक मंचित होने वाला है और पृथ्वी कैफे में सत्यदेव दुबे बैठे हैं तो कई दर्शक उनको सुनते रहते और नाटक देखना भूल जाते थे। वे अकेले ही विभिन्न पात्रों के संवाद बोलकर वन मैन शो रोज ही प्रस्तुत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व मेरी उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि शीघ्र ही वे एक फिल्म बनाने वाले हैं और मुझे उसका वितरण प्रदर्शन करना है। उन दिनों वे पटकथा पर काम कर रहे थे - नाम था राम नाम सत्य।
सत्यदेव दुबे ने सितंबर में बीमार पड़ने के पहले अपने शिष्यों और मित्रों से कहा कि उनकी मृत्यु के पश्चात रोना-धोना नहीं है, इस पटाक्षेप से नाटक (जीवन) खत्म नहीं होता। उनकी मृत्यु के बाद उनके इस आदेश का पालन कोई नहीं कर सका, क्योंकि सबको आशा थी कि नाटकों का यह दुर्वासा क्रोधवश मृत्युशैया से उठकर सबको डांटने लगेगा। पहली बार उन्होंने निराश किया।
सत्यदेव दुबे ने नाटक को आडंबर और शान-शौकत से आजाद करके सरल व स्वाभाविक बनाया तथा युवा रंगमंच प्रेमियों को सिखाया कि मंचन के लिए अधिक धन नहीं, वरन हृदय में माध्यम के लिए प्रेम चाहिए। सत्यदेव दुबे को मंचन के लिए केवल दो चीजों की आवश्यकता होती थी, मंच और नाटक। इसी मार्ग को खोजने के कारण दुबेजी ने मध्यम वर्ग को अपने सीमित साधनों के बावजूद नाटकों में सक्रिय किया।
सत्यदेव दुबे रंगमंच के संसार में अपनी आक्रोश की मुद्रा के लिए जाने जाते थे, क्योंकि वे सड़क और बस्ती में बोली जाने वाली रंगीन भाषा का इस्तेमाल करते थे और उनके मुंह से गालियां गजल की तरह लगती थीं। उनकी कार्यशैली अजीब-सी थी। वे कलाकारों को केवल रिहर्सल के समय ही निर्देश नहीं देते थे, वरन् उनके रोजमर्रा के जीवन में भूमिका को धकेल देते थे। चित्रा पालेकर मध्यम वर्ग की अनुभवहीन कलाकार थीं और दुबेजी ने ययाति में उन्हें राजकुमारी की भूमिका के लिए तैयार किया। एक दिन कॉलेज के गेट पर सत्यदेव दुबे चित्रा का इंतजार कर रहे थे।
दुबेजी ने चित्रा को बाध्य किया कि वह राजकुमारी की तरह सिर उठाकर पूरी अकड़ के साथ चलें। रास्ते भर दुबेजी साथ रहे और उन्हें समझाते रहे कि भूमिका को कैसे अंतस में उतारें। सत्यदेव दुबे ने श्याम बेनेगल की पहली आठ फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखे तथा पुरस्कृत भी हुए, परंतु बाद में अकारण ही काम करने से इनकार कर दिया। दरअसल सत्यदेव दुबे निहायत ही मूडी व्यक्ति थे और उन्होंने अपनी जीवन शैली, विचार प्रक्रिया और भाषा में कभी आडंबर और खोखलापन नहीं आने दिया। उनके अनेक शागिर्द उनकी असंयत भाषा और कठोर अनुशासन से नाराज हो जाते थे, परंतु बाद में महसूस करते थे कि उनके गुरु ने उनको कैसे लाभ पहुंचाया।
अपनी शिष्याओं और युवा तकनीशियन के साथ वे प्राय: रोमांटिक छेड़छाड़ करते थे, क्योंकि वे उन्हें अपनी केंचुल से बाहर निकालना चाहते थे। कलाकार को उसकी समाज द्वारा लादी हुई हिचक से मुक्त करते थे। इसीलिए उनके कई शिष्यों ने जीवन के सांड को सींग से पकड़कर जीना सीखा था। सत्यदेव दुबे के लिए पूरा विश्व ही रंगमंच था और जीवन के प्रत्येक क्षण में वे नाटक देखते और महसूस करते थे। अपने नाम के अनुरूप हमेशा सत्य बोलते थे, परंतु देव की तरह नहीं, मानव की तरह।
पृथ्वी थिएटर के भीतर कोई नाटक मंचित होने वाला है और पृथ्वी कैफे में सत्यदेव दुबे बैठे हैं तो कई दर्शक उनको सुनते रहते और नाटक देखना भूल जाते थे। वे अकेले ही विभिन्न पात्रों के संवाद बोलकर वन मैन शो रोज ही प्रस्तुत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व मेरी उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि शीघ्र ही वे एक फिल्म बनाने वाले हैं और मुझे उसका वितरण प्रदर्शन करना है। उन दिनों वे पटकथा पर काम कर रहे थे - नाम था राम नाम सत्य।
सत्यदेव दुबे ने सितंबर में बीमार पड़ने के पहले अपने शिष्यों और मित्रों से कहा कि उनकी मृत्यु के पश्चात रोना-धोना नहीं है, इस पटाक्षेप से नाटक (जीवन) खत्म नहीं होता। उनकी मृत्यु के बाद उनके इस आदेश का पालन कोई नहीं कर सका, क्योंकि सबको आशा थी कि नाटकों का यह दुर्वासा क्रोधवश मृत्युशैया से उठकर सबको डांटने लगेगा। पहली बार उन्होंने निराश किया।
आलेख दैनिक भास्कर से साभार .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें