दिलीप गुप्ता का आलेख
किंग ऑफ डार्क चेम्बर का एक दृश्य विजे के सौजन्य से |
हर आदमी अपनी पिछली गलतियों से कुछ सीखता है और उसे दोबारा न दोहराने की कोशिश करता है लेकिन, भारत ही नहीं वरन एशिया महाद्वीप में अपना शीर्ष स्थान रखने वाली नाट्य संस्था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय बार बार अपनी गलतियों को दोहरा कर गर्वित महसूस करती है. ८ जनवरी को दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) द्वारा आयोजित १४वें भारत रंग महोत्सव(भारंगम) का उद्घाटन समारोह देख कर उपरोक्त पंक्ति लिखने को विवश होना पड़ रहा है. एनएसडी ने पछले साल की भांति इस साल भी इतने बड़े समारोह के उद्घाटन कार्यक्रम के लिए करीब ६०० लोगों की क्षमता वाले कमानी सभागार को ही चुना, और क्षमता से लगभग दुगनी संख्या में आमंत्रण पत्र बांटकर सभागार के अंदर नाटक और सभागार के बाहर एक नाटक की स्थिति पैदा की. यही स्थिति पिछले साल के भारंगम में भी देखने को मिली थी. फिर भी एनएसडी ने उससे कोई सबक न लेते हुए दोबारा उसी जगह को चुना जबकि इसके लिए किसी और जगह का भी चुनाव किया जा सकता था.
५.३० बजे से तय कार्यक्रम में सभागार ५ बजे ही हाउस फूल हो जाता है और सैकड़ों की तादाद में दर्शकों, रंगकर्मियों, छात्रों व मिडियाकर्मियों को उस अव्यवस्था का शिकार होने और झेलने के लिए छोड़ दिया जाता है. धीरे धीरे बाहर खड़े लोगों के सब्र का बाँध टूटने लगता है और उनका विरोध हंगामें की शक्ल अख्तियार कर लेता है. सभागार के अंदर मुख्य अतिथि केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा, चर्चित अभिनेत्री शर्मीला टैगोर, रानावि की अध्यक्षा अमाल अल्लाना व एनएसडी की निर्देशिका अनुराधा कपूर के भाषण चल रहे थे और सभागार के बाहर दर्शकों का हुजूम “साड्डा हक इत्थे रख”, भारत माता की जय, “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं देखना है जोर कितना इनके दरवाज़े में है” जैसे कई गीतों और बोलों से अपने विरोध को स्वर देने में लगा हुआ था. डेढ़ घंटे से इंतज़ार में खड़े दर्शकों के मन में यही लालसा थी कि एक नयी रंग भाषा का सृजन करने वाले विख्यात रंग निर्देशक रतन थियम का नाटक “किंग ऑफ द डार्क चैम्बर” को किसी तरह देख लें, लेकिन जैसे जैसे नाटक शुरू होने का समय निकट आ रहा था वैसे वैसे दर्शकों में विरोध और मायूसी का भाव साथ साथ आ रहा था. आखिरकार कीर्ति जैन के इस आश्वासन पर हंगामा थमा कि नाटक का एक और शो ९ बजे से रखा गया है और इस तरह, बाहर खड़े दर्शकों को एक चमत्कृत करने वाला रंगमंच देखने का सपना साकार हुआ.
गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर लिखित व रतन थियम निर्देशित नाटक “किंग ऑफ द डार्क चैम्बर” का ये मंचन वाकई अद्भुत था, अपने जादुई रंग शिल्प एवं भाषा के लिए विश्व ख्याति प्राप्त रंग निर्देशक रतन थियम के इस नाटक का एक एक दृश्य कविता की तरह था. रंगमंचीय सीमाओं की वर्जनाओं को तोडने वाले रतन थियम की खासियत है कि वो टेक्स्ट को आत्मसात कर लेते हैं और आधुनिक भारतीय रंग भाषा को एक नया आयाम देते हैं, चाहे इब्सन लिखित उनका “व्हेन वी डेड अवेकन” हो या “हे नुंगशिबी पृथ्वी” हो या “नाइन हिल्स वन वैली” हो या अन्य नाटक सबमें एक नया रंग आस्वादन मिलता है.
टैगोर लिखित इस प्रतिकात्मक नाटक “किंग ऑफ द डार्क चैम्बर” में भी रतन थियम एक नयी रंग भाषा का सृजन करते हैं. बहुत पहले एक सेमीनार में भारतीय रंगमंच की चुनौतियों पर बोलते हुए रतन थियम ने मनोरंजन के अन्य साधन सिनेमा और टेलिविज़न के सामानांतर रंगमच की शक्तियों को उजागर करते हुए कहा था, कि रंगमच को कभी भी सिनेमा और टेलेविज़न की नक़ल न करके उसकी अपनी शक्तियों पर दृढ़ता से विश्वास करना होगा और रंगमंच पर चमत्कार पैदा करना होगा. और चमत्कार हमें सचमुच इनके नाटकों में दीखता है. नाटक “किंग ऑफ द डार्क चैम्बर” में रतन थियम एक बार और उस चमत्कार को रचते हैं, और ऐसे रचते हैं कि मणिपुरी भाषा होने के बावजूद दृश्यों पर से नज़र नहीं हटती और दर्शक अपलक उसमे बहता हुआ एक नयी रंग अनुभूति से सराबोर हो जाता है. टैगोर के दर्शन एवं व्यष्टि और समष्टि के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डालता ये नाटक मंच पर एक नए महाकाव्य को घटित करता है.
इस १४वें भारत रंग महोत्सव के पहले दिन मंचित होने वाला एक अन्य नाटक था “पापा लादेन”. जिबरिश में खेले गए इस नाटक को निर्देशित किया था एनएसडी से इसी साल पास आउट छात्र सुमन मल्लिपेद्दी ने. एक मध्य वर्गीय परिवार की खुशियों को चुटीले अंदाज़ में समेटने कि कोशिश करता ये नाटक रानावि के डिप्लोमा प्रस्तुति के अंतर्गत मंचित किया जा चुका है.
दिलीप गुप्ता संपर्क : 9873075824 एवं dilipgupta12@gmail.c om. आलेख जन सन्देश टाइम से साभार
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