यह लेख गोपाल शरण से रविराज पटेल की बातचीत के आधार पर है. हम इसे रविराज के ब्लॉग अक्षर दर्पण साभार
प्रस्तुत कर रहें हैं .इस ब्लॉग पर यह आलेख बुधवार, 31 अगस्त 2011 को
प्रकाशित हुआ था. पटना रंगमंच के एक सजग रंगकर्मी के रूप में गोपाल बाबु का नाम भी
आता है. ना जाने कितने और होंगें गोपाल बाबु जैसे जिन्होंने पूरी लगन के साथ रंगमंच
को सींचा .. अफ़सोस हम उनका नाम तक नहीं जानते. आज हमें ये भी नहीं पता की गोपाल
बाबू जिंदा भी हैं या नहीं. गोपाल बाबु कहतें हैं – “ मैंने अभिनय को अपनाया और
अपनी सीमित योग्यता तथा पात्रता भार इसे सजाया एवं संवारा है. रंगमंच मेरे जीवन का
एक अंग बन गया है.” हम गोपाल बाबु पर आधारित इस आलेख को प्रकाशित कर
गौरवान्वित महसूस कर रहें हैं. अगर आपके पास इन जैसे अनमोल मोतिओं की दास्ताँ है
तो हमें ज़रूर भेजें . हमें उसे प्रकाशित करते हुए खुशी का अनुभव होगा.- सम्पादक
रंगमंच और जीवन का कदमताल
गोपाल शरण |
रंगमंच की दुनिया में सशक्त प्रतिष्ठा पा चुके गोपाल शरण जी का जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार के भेटनरी हॉस्पिटल के कम्पाउंडर पिता जंगी राम के घर २० जनवरी सन १९२६ को हुआ. हालाँकि लगभग छः माह की अल्प आयु में ही श्री शरण के सर से माँ की ममता छीन गई. उतना ही नहीं लगभग एक वर्ष की आयु में पिता जी भी छोड़ चल बसे, चाचा-चाची ने इनका पालन पोषण किया जो निःसंतान थे. श्री शरण तीन भाई बहनों में सबसे छोटे थे, बड़े भाई का नाम स्व. श्रीराम दास एवं बहन सरस्वती थीं. प्राथमिक शिक्षा बाकरगंज मोहल्ले में ही गोपी जी के निजी पाठशाला से प्रारंभ हुआ. मध्य एवं माध्यमिक शिक्षा बी.एन. कॉलेजीएट,पटना से पूरी की जहाँ से सन १९४६ ई. में मैट्रिक की परीक्षा भी उतीर्ण हुये, वहीँ सन १९४८ ई. बी.एन.कॉलेज,पटना से अंतर स्नातक की डिग्री तत्कालीन पटना विश्वविद्यालय,पटना से हासिल किया. अपने गृहस्त जीवन की शुरुआत सन १९४९ ई. में लीलावती नामक योग्य युवती के साथ सातो वचन निभाने की क़सम खा कर किया . इधर नाटकों में सक्रियता तो बरक़रार थीं ही. उन दिनों युवा उर्जावान कलाकारों , लेखकों एवं निर्देशकों में प्यारे मोहन सहाय, डॉ. चतुर्भुज, प्रभात रंजन दास एवं डॉ. जीतेन्द्र सहाय जैसे नाटककारों का चाहेताओं में रंगकर्मी गोपाल शरण का विशेष स्थान था.
गोपाल शरण ने
सबसे अधिक प्यारे
मोहन सहाय के
निर्देशन में अभिनय
किया . सहाय जी
का “षोडशी”, “अंधेर नगरी
चौपट राजा”, “शुतुरमुर्ग”, “अंडर
सेक्रेटरी”, “राम रहीम”, “ज़िन्दगी
के मोड़ “, “नीलकंठ
निराला”, “मैं मंत्री
बनूँगा”, “आखिर कब
तक (भोजपुरी )”, “भगवत
अजुकियम”, “कमरा न.
-०५” , “चार प्रहर” एवं
अन्य नाटकों में
अभिनय किया तो
जगदीश प्रसाद जी
का “अछूतोद्धार” , अरविन्द रंजन
दास का “सगीना
महतो”, प्रभात रंजन
दास का “राज
दरबारी”, डॉ.चतुर्भुज
का “बंद कमरे की
आत्मा” तो वहीँ डॉ जीतेन्द्र
सहाय का, “चार
पार्टनर” के अलावा टेलीफिल्मों
में कासिम खुर्शीद
जो शैक्षिक दूरदर्शन
के निर्देशक भी थे
उनका “छुपा
खजाना” मुकुल वर्मा (दिल्ली
आकाशवाणी में उद्घोषक
थे ) का “संकल्प” गोपी
आनंद का “पंच
लाइट (फणीश्वरनाथ
रेणु लिखित)” जगदीश
प्रसाद का “अलग”, सन
१९८२ ई . में
पहली बार प्रसिद्ध
फ़िल्मकार मृणाल सेन
के निर्देशन में फीचर
फिल्म “एक
अधूरी कहानी” में
अभिनय किया. इसके
कुछ ही समय
बाद प्रकाश झा
की फीचर फिल्म “दामुल”(१९८४)
का एक अहम पात्र “गोकुल” की
जीवन्त भूमिका निभा
कर खूब प्रसिद्धि
पाई, इतना हीं नही
इस फिल्म में उनकी
अपनी बेटी नीरजा
ने भी गोकुल की बेटी
बन अभिनय किया है
.प्रकाश झा का
“कथा माधोपुर की
(१९८८)” में
“बिरछा” की भूमिका ,प्रकाश
झा का ही धारावाहिक ” वीर
कुंवर सिंह या
विद्रोह” में “गोपाली” की
भूमिका में भी
श्री शरण ने
बेज़ोड़ अभिनय किया
है. मुन्नाधारी की
फीचर फिल्म “३६
का आंकड़ा” में स्वतंत्रता
सेनानी की भूमिका
को भी खूब सराहना मिली.
वैसे तो तीस
से अस्सी के दशक
तक नाटकों में श्री
शरण की अनिवार्य
उपस्थिति रही. श्री
शरण ने आकाशवाणी
एवं दूरदर्शन
,पटना के लिये
भी लगभग पन्द्रह वर्षों
तक ब्रोडकास्ट नाटकों
में अहम् भूमिका
अदा किया है.
उनकी अभिनय की
बहुत ही लम्बी
फेहरिस्त है जो
अब स्मरण करना मुश्किल
है ,यह दुखद भी है,ऐसे
अद्भुत कलाकारों
के बारे में जानकारी
संग्रह करना किसी
की अनिवार्यता में
शामिल न रहा.
यूँ बने “दामुल में गोकुल”: एक रोचक प्रसंग पटना रंगमंच के ही कलाकार रहे श्री अनिल अजिताभ उन दिनों गोपाल शरण जी के सहकर्मी हुआ करते थे. अस्सी के दशक में वह नवोदित फ़िल्मकार प्रकाश झा के सहायक के रूप में भी काम कर रहे थे. श्री झा की पहली फीचर फिल्म “दामुल” के लिए कलाकारों का चयन प्रक्रिया जारी था. तक़रीबन सभी पात्रों का चुनाव भी हो चूका था, परन्तु फिल्म में एक अहम् पात्र “गोकुल” की भूमिका के लिए पारखी प्रकाश को मनचाहा कलाकार अभी तक नही मिल पाया था. तत्कालीन सह निर्देशक अनिल जी ने गोपाल शरण का नाम सुझाया और परिचय करवाया , श्री शरण अब प्रकाश झा के सामने थे उन्होंने उन से कहा कि “आपके बेटे कि हत्या कर दी गई है ,यह बुरी खबर को सुन कर आपके ऊपर क्या असर होगा… How you will feel ? बकौल श्री शरण, यह सुन कर मैं अवाक् हो गया, सिर्फ शुन्य में देखता रहा , बिलकुल मूक हो गया. सिर्फ अपनी आँखों से दिल की वेदना को प्रकट किया मैं केवल अपना फेसियल एक्सप्रेशन दिया. मेरे अनजाने में एक कैमरा रखा हुआ था , प्रकाश जी कहते हैं ओ .के. और मैं “दामुल” में “गोकुल” की भूमिका के लिये चुन लिया गया. इसी सन्दर्भ में श्री शरण का प्रकाश झा जी का दफ्तर आना-जाना शुरू हो जाता है. एक दिन की बात है ,श्री शरण, प्रकाश जी के कार्यालय जाते हैं और कार्यालय द्वार पर खड़े हो कर प्रवेश करने का आदेश मांग रहे होते हैं, तभी श्री झा जानबूझ कर आँख लाल-पीला कर झल्ला, चिल्ला और गुस्से में कह उठते हैं – कौन है ? पता नहीं कहाँ-कहाँ से चला आता हैं, मुंह उठाये, भागो यहाँ से, चलो हटो, ऐ जी हटाओ इसको …श्री शरण भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया. पीछे हटने के बजाय, एक कदम और आगे बढे ,पेट पर हाथ रखे ,चेहरे पर कल्पित भाव और अत्यंत निवेदित स्वर में कहने लगे – माई-बाप, दया करो माई बाप, दो दिन से कुछ खाया पिया नही है, पेट में एक अन्न नही है । माई-बाप, भूखे मर जायेंगे हम…,यह सुन देख प्रकाश भौचक रह जाते हैं और जोर से ताली ठहाका लगाते हुये खड़े हो कर सम्मानित तरीके से उन्हें सामने लगे कुर्सी पर बैठाते हैं, चाय पानी होता है. प्रकाश जी फिर कहते हैं “गोकुल दा “। इस बार भी आप परीक्षा पास कर गये और उसी वक्त से वह उन्हें “गोकुल दा” के नाम से पुकारने लगते हैं जो आज तक वह उन्हें उसी (गोकुल दा ) नाम से संबोधित करते आ रहे हैं ….
यूँ बने “दामुल में गोकुल”: एक रोचक प्रसंग पटना रंगमंच के ही कलाकार रहे श्री अनिल अजिताभ उन दिनों गोपाल शरण जी के सहकर्मी हुआ करते थे. अस्सी के दशक में वह नवोदित फ़िल्मकार प्रकाश झा के सहायक के रूप में भी काम कर रहे थे. श्री झा की पहली फीचर फिल्म “दामुल” के लिए कलाकारों का चयन प्रक्रिया जारी था. तक़रीबन सभी पात्रों का चुनाव भी हो चूका था, परन्तु फिल्म में एक अहम् पात्र “गोकुल” की भूमिका के लिए पारखी प्रकाश को मनचाहा कलाकार अभी तक नही मिल पाया था. तत्कालीन सह निर्देशक अनिल जी ने गोपाल शरण का नाम सुझाया और परिचय करवाया , श्री शरण अब प्रकाश झा के सामने थे उन्होंने उन से कहा कि “आपके बेटे कि हत्या कर दी गई है ,यह बुरी खबर को सुन कर आपके ऊपर क्या असर होगा… How you will feel ? बकौल श्री शरण, यह सुन कर मैं अवाक् हो गया, सिर्फ शुन्य में देखता रहा , बिलकुल मूक हो गया. सिर्फ अपनी आँखों से दिल की वेदना को प्रकट किया मैं केवल अपना फेसियल एक्सप्रेशन दिया. मेरे अनजाने में एक कैमरा रखा हुआ था , प्रकाश जी कहते हैं ओ .के. और मैं “दामुल” में “गोकुल” की भूमिका के लिये चुन लिया गया. इसी सन्दर्भ में श्री शरण का प्रकाश झा जी का दफ्तर आना-जाना शुरू हो जाता है. एक दिन की बात है ,श्री शरण, प्रकाश जी के कार्यालय जाते हैं और कार्यालय द्वार पर खड़े हो कर प्रवेश करने का आदेश मांग रहे होते हैं, तभी श्री झा जानबूझ कर आँख लाल-पीला कर झल्ला, चिल्ला और गुस्से में कह उठते हैं – कौन है ? पता नहीं कहाँ-कहाँ से चला आता हैं, मुंह उठाये, भागो यहाँ से, चलो हटो, ऐ जी हटाओ इसको …श्री शरण भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया. पीछे हटने के बजाय, एक कदम और आगे बढे ,पेट पर हाथ रखे ,चेहरे पर कल्पित भाव और अत्यंत निवेदित स्वर में कहने लगे – माई-बाप, दया करो माई बाप, दो दिन से कुछ खाया पिया नही है, पेट में एक अन्न नही है । माई-बाप, भूखे मर जायेंगे हम…,यह सुन देख प्रकाश भौचक रह जाते हैं और जोर से ताली ठहाका लगाते हुये खड़े हो कर सम्मानित तरीके से उन्हें सामने लगे कुर्सी पर बैठाते हैं, चाय पानी होता है. प्रकाश जी फिर कहते हैं “गोकुल दा “। इस बार भी आप परीक्षा पास कर गये और उसी वक्त से वह उन्हें “गोकुल दा” के नाम से पुकारने लगते हैं जो आज तक वह उन्हें उसी (गोकुल दा ) नाम से संबोधित करते आ रहे हैं ….
“गोकुल” को ऐसा जिया की लोग “गोपाल” मानने को तैयार नहीं श्री शरण ने
“दामुल” में इतनी जीवन्त
भूमिका निभाया है
कि उससे जुड़ी एक
प्रसंग आज भी
भूले नही भूले
जाते .”दामुल” की
शूटिंग बेतिया के
समीप छपबा मोड़
(हरिजन आवासीय विद्यालय)
में हो रही
थी जहाँ की अधिकांश
आबादी समाज में
अंतिम वर्गों से
ऊपर की थी.
श्री शरण “गोकुल” यानि
“अछूत” की भूमिका में थे
, यह अपना रहन सहन
,वेशभूषा, चाल ढाल एवं
निर्बलता का प्रतिमूर्ति
बन कैमरों के सामने शॉट दे रहे
थे . शूटिंग देखने
के लिए दिनभर आस-पास
के गाँवों से लोगों
का ताँता लगा हुआ
रहता था. शूटिंग
लगातार चल रही
थी. वहां रहने, खाने
-पीने की व्यवस्था
तो थी लेकिन शौचालय जाने
की थोड़ी समस्या थी.
एक दिन की बात
है, गोपाल जी को
शौच हेतु खुले
मैदानों में जाना
था और साथ पानी ले
जाने के लिए
कोई उपयुक्त साधन
उपलब्ध नही था, सो
गाँव वालों से
एक लोटा मांग कर
अपनी पीड़ा से
निजात पाना चाहा.
उस गाँव के एक
भी व्यक्ति उन्हें कोई
अपना बर्तन देने
को तैयार नहीं. इसलिए
नहीं की उस
बर्तन में पानी
ले जा शौचक्रिया करने
जायेंगे, बल्कि इसलिए की
लोग सच में
इन्हें अछूत मान
रहे थे. फिर
वहां मौजूद साथी
कलाकारों ने बहुत
समझाते बुझाते हुये
उन लोगों को बताया
कि ये अछूत नही हैं, अछूत
की भूमिका कर रहे
हैं और बहुत
ही अच्छे कलाकार हैं.
घबराइये मत, आपलोग
इन्हें अपना लोटा
दे सकते हैं. यह
सुनते ही लोग
हतप्रभ रह गए, तब
जा के गाँव की एक
महिला ने अलमुनियम
का एक लोटा दिया और
श्री शरण शौचपीड़ा
से बेचैन राहत भरी
साँस ले पाये.
सम्मान श्री शरण बिहार
आर्ट थियेटर की
ओर से “अनिल मुखर्जी शिखर
सम्मान”, आर्ट एंड
आर्टिस्ट को – पटना
की ओर से “स्व.प्रो.राम
नारायण पाण्डेय शिखर
सम्मान” , बिहार आर्ट
थियेटर एवं मगध
आर्टिस्ट की ओर
से “डॉ. चतुर्भुज शिखर सम्मान” , भारतीय
राष्ट्रीय छात्र
संगठन, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ, बिहार
की ओर से “कलाश्री सम्मान “, प्रांगण
की ओर से “पाटलिपुत्र सम्मान” के
अलावा ऐसे कई
प्रतिष्ठित सम्मानों
से सम्मानित हो चुके
हैं.
परिवार श्री शरण दो
पुत्रों एवं चार
पुत्रियों के
पिता हैं, बड़े
बेटा का नाम
राजेश कुमार तथा
छोटे का नाम
राकेश कुमार हैं
, दोनों निजी क्षेत्र
में नौकरी करते
हैं .चार पुत्रियों
में कामिनी सिन्हा, नीरजा
देवी, दोनों हिन्दी की
शिक्षिका एवं अंजना
देवी गृहिणी हैं
तथा सबसे बड़ी
बेटी उषा देवी
स्वर्गवासी हो
चुकीं हैं . उनके
छः बच्चों में नीरजा
का थोडा बहुत लगाव
रंगमंच से भी
रहा, वह आकाशवाणी, पटना के लिए
भी कई नाटकों में काम
करती रहीं. अर्धांगिनी
लीलावती शरण जी
का देहांत ७ अक्टूबर
२००९ को हो
गया.
ज़िन्दगी का एक सत्य पड़ाव कलाकार हर
रूप में हर
उम्र में कलाकार
ही होता है , श्री
शरण ८४ वें
बसंत पार कर
चुके हैं . ढलती
उम्र के कारण
आज कल बीमार भी रहते
हैं ,परन्तु
ज्यों ही कोई
नाटकों या मंचो
की बात छेड़ता है
तो मानो उनके रगों
में रक्त के
जगह रंगाभाव का
संचार होने लगता
है.
उनसे बात करते
हुए मुझे कवि
गुरु रविंद्रनाथ
ठाकुर जी की
एक बांग्ला कविता याद
आता है ” पुराने
सेई दिनेर कथा, भुलबी
की रे हाय, ओ सेई चोखेर देखा,प्राणेर
कथा, से की भाला जाय” अर्थात
“पुराने, वे दिन, वो बात , भूलेंगे
क्या हाय, रे
वो नैनों में नैन
,मन के बैन ,क्या
वे भूले जाय …” ?
श्री गोपाल शरण जी के शब्दों में …मनुष्य की
दो प्रकार की भूख
होती है ,एक
उसके तन की
, जिसकी तृप्ति भोजन
आदि से होती
है और दूसरी उसके मन
की , जिसकी तृप्ति किसी
न किसी कला के
माध्यम से होती
है. अपनी इसी मानसिक
भूख की तृप्ति
के लिये मैंने अभिनय
को अपनाया और अपनी
सीमित योग्यता तथा
पात्रता भर इसे
सजाया एवं संवारा
है . रंगमंच मेरे
जीवन का एक
अंग बन गया
है. अपने जीवन में
जो कुछ भी रंगकर्म
में मुझसे बन
सका ,मैंने
किया. अपनी कला
साधना के बारे
में मैं इतना
ही कह सकता हूँ कि
नाटकों के मंचन
में मुझ जैसे
तुच्छ पात्र को
जैसी भूमिका दी
गई , उसे मैंने अपनी
पूरी निष्ठां और
लगन से निभाने
की कोशिश की है
. अपने गुरुदेव आचार्य
राम बुझावन सिंह, निदेशक
,राष्ट्र भाषा परिषद
,पटना के प्रति
नतमस्तक हूँ ,जिन्होंने
मुझे प्रारंभ से
ही नाट्य कला के
क्षेत्र में प्रोत्साहित
करते रहे .
स्व. डॉ. चतुर्भुज
जी ,स्व. प्यारे मोहन
सहाय जी ,स्व.
भगवान् साहू जी, स्व.
भगवान् सिन्हा जी
,स्व. राम प्रसाद
जी ,स्व. डॉ. जनार्दन
राय जी,स्व.
पूर्णिमा देवी जी, स्व.
नूर फातिमा जी,स्व.
शैला डायसन ,स्व.
शिवमंगल प्रसाद तथा
स्व. पुष्प दी
के प्रति श्रद्धांजलि
अर्पित करता हूँ
.आचार्य नरेन्द्र
पाण्डेय ,डॉ.
हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा
,श्री हृषिकेश सुलभ
,निर्देशक श्री प्रभात
रंजन दास ,श्री
अरविन्द रंजन दास, श्री
अखिलेश्वर प्रसाद
सिन्हा ,श्री
सुमन कुमार ,श्री
गणेश प्रसाद सिन्हा
,,श्री अभय सिन्हा
,सुश्री सोमा चक्रवर्ती
प्रांगण नाट्य संस्था
की ओर से मुझे सम्मानित
किया के प्रति
आभार प्रकट करता
हूँ .बिहार आर्ट थियेटर
के श्री आर .पी
.तरुण ,श्री
अजित गांगुली ,श्री
प्रदीप गांगुली ,श्री
कुमार अनुपम ,श्री
अरुण कुमार सिन्हा
आदि को मेरा
कोटिशः आशीर्वाद.
चौरासी नज़दीकाया
है ,जिंदगानी का ,
अब है
भरोसा क्या ?
पका हुआ
आम हूँ ,
कब टपक
पडूँ,
कहा नहीं
जा सकता ?
पर मेरी
दुआयें, हमेशा आपके साथ
रहेगी …
“तमाम उम्र तुझे
ज़िन्दगी का प्यार
मिले ,
ख़ुदा करे
हर ख़ुशी बार बार
मिले !!
रविराज पटेल, बिहार के जिला लखीसराय के चानन क्षेत्राधीन पचाम नामक गाँव में जन्म. संगीत भास्कर की उपाधि प्राचीन कला केन्द्र ,चंडीगढ़ से प्राप्त। जीविका हेतु निजी व्यवसाय एवं एस .ए .ई. महाविद्यालय ,जमुई में एक प्राध्यापक के तौर पर संबद्ध,साथ ही स्वरूचि कारण राष्ट्रीय एवं स्थानीय पत्र -पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन । सामाजिक- राजनैतिक-सांस्कृतिक एवं साहित्य में खासी अभिरुचि । अक्षर दर्पण नामक ब्लॉग का संपादन. उनसे 9470402200 पर संपर्क किया जा सकता है.
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