अब तक आलोक धन्वा की केवल एक ही कविता संग्रह प्रकाशित हुई है, उस संग्रह का शीर्षक है - दुनियां रोज बनाती है. इस अकेले कविता संग्रह ने उन्हें कविता पढ़ने, समझने व लिखने वालों की बीच एक सम्मानित स्थान दिलवाया है. उनकी कुछ कविताओं को आधुनिक हिंदी कविताओं की दुनियां में शिखर स्थान प्राप्त हुआ है , भागी हुई लड़कियां, जनता का आदमी, ब्रुनो की बेटियां, गोली दागो पोस्टर आदि ऐसी ही कविताएँ हैं. भारतीये इतिहास के आपातकाल से लेकर आज तक आलोक धन्वा लगातार और बार बार पढ़े जा रहें हैं. उनकी कविताओं का पुनः पाठ करते हुए अभिनेता रवि शंकर ने ये टिप्पणी फेसबुक पर डाली है. वर्तमान में मुंबई प्रवासी रवि शंकर पटना रंगमंच के गंभीर कार्यकर्ताओं में से एक रहें हैं. आप भी उनकी टिपण्णी के वाकिफ़ होईये. साथ ही अलोक धन्वा के चाहने वालों के लिए एक खुशी की बात ये है कि बर्षों से मौन पड़ी उनकी कलम एक बार पुनः जगी है. उम्मीद है कि आलोक जी कुछ और बेहतरीन कविताओं से अपने चाहने और ना चाहने वालों को सराबोर करेंगे.प्रस्तुत है रविशंकर की ये टिपण्णी...... माडरेटर.
आलोकधन्वा की कविताओं की बहुत सारी विशेषताएं हैं...उनमें से एक है...पुरानेपन का अहसास... उनकी कवितायें एक पुराने अहसास से भींगी हुई हैं... अतीत की एक अजीब सी खुश्बू से सराबोर... वो पुराने को खींच कर इस तरह सामने रखते हैं...कि वो नयेपन का एह्सास दे जाता है... ऐसा नया जिसे पाने की ललक मन में घर कर जाती है... वो अतीत में जो बेहतर था... जिससे हमारा समय ,हमारा समाज सुन्दर और भरापूरा दिखता था... और जो इस शोर-ओ-गुल में कहीं पीछे छूट गया है ...उसे सामने लाकर रख देते हैं... और मन में एक ऐसी टीस भर देते हैं... कि मन बेचैन हो जाता है उसे पाने के लिये... पुराने से हमारी पहचान बनती है... उसी से हमारी कीमत आंकी जाती है... नयेपन की होड़ में अक्सर हम इस चीज़ को भूल जाते हैं... ! हर समाज का अपना एक रंग होता है... एक स्वाद ..एक मुल्य होता है... वही उसकी खासियत होती है... ग्लोबल होती आज कि इस दुनिया में हमारे ये रंग...ये स्वाद ,ये मुल्य खोते जा रहे हैं...इस बात की चिन्ता उनकी कविताओं में देखी जा सकती है... जीवन पैसे से नहीं बनता और नहीं ज्यादा उपभोग से ... जीवन बनता है...विश्वास से, परस्पर सहयोग से , नैतिक मूल्यों से , लेकिन बाजार ने इन सब को खत्म कर दिया है...जहां हर चीज़ की कीमत लगने लगे...वहां ये सारी चीजें जीवित रह भी कैसे सकती हैं... ? मुनाफ़ाखोरी ने पूरी दुनिया को एक चारागाह में बदल दिया है ...और लोग ज्यादा से ज्यादा चरने में लगे हैं...और उसके लिये बड़े से बड़े नरसंहार करने से भी बाज नहीं आ रहे... !
आलोक धन्वा कि नई लिखी कविताओं में से एक कविता यहाँ प्रस्तुत कि जा रही है .... आप खुद ही तय करें कि आलोक जी कि कलम अभी चुकी नहीं है.
मुलाक़ातें
अचानक तुम आ जाओ
इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास
कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की
कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं
मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त
घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक चारखाने की
सूती साड़ी
कंधे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग दौड़ में भरोसे के लायक
तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर
दुख-सुख तो
आते जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहीं
हवा में !
इनसे बनती हैं नयी जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी
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