जगदीश चन्द्र माथुर |
यह महत्वपूर्ण निबंध जगदीश
चन्द्र माथुर ने सन 1950 ई. में पटना कालेज साहित्य परिषद् के लिए लिखा था |
आज़ादी या सत्ता परिवर्तन/हस्तांतरण के बाद का यह काल भारतीय इतिहास में
पुनर्निर्माण का काल के रूप में विख्यात है | अपने इस निबंध में माथुर जी ने जिन आशंकाओं
से आगाह करना चाह था आज वो हमारे सम्मुख मुंह खोले बड़ी शान से खड़ी हैं | माथुर जी
की आशंकाओं पर अगर वक्त रहते ध्यान दिया गया होता तो आज हमारे मुल्क की कला,
संस्कृति और रंगमंच की शायद ये दुर्दशा ना हुई होती | निबंध बड़ा है सो हमें ये कई
भागों में प्रकाशित करना पड़ेगा | निवेदन बस इतना है कि छोर पकड़ के रखियेगा |
माडरेटर
मंडली.
भारतीय रंगमंच और नाटक के
पारस्परिक सम्बन्ध और विकास की चर्चा करते हुए मैंने पहले भी यह मत प्रकट किया था
कि सिनेमा के प्रचंड वैभव के बावजूद हमारे रंगमंच का पुनरुथान अवश्यम्भावी है,
क्योंकि सिनेमा मनोरंजन की चाहत को पूरा करता है, परन्तु संस्कारों के भार से दबी
और भूली-सी अभिनयात्मक आदिम प्रवृति को पूरा-पूरा मौका नहीं देता है और न दर्शकों
को अभिनेताओं के मायावी लोक में अपनी हस्ती खो देने का निमंत्रण देता है | सिनेमा
का पर्दे पर चलती-फिरती और जादूगरी से बोलनेवाली मुर्तियों से प्रदर्शन के समय
रागात्मक सम्बन्ध स्थापित होना उतना ही दूभर है, जितना किसी स्वप्न-सुंदरी से नाता
जुडना |
किन्तु कौन सा वह रंगमंच
होगा और कैसी वह नाट्यशैली, जो आधुनिक मनोरंजन के अपूर्व साधनों से लोहा लिए बिना
फिर से हमारे समाज में उपयुक्त स्थान पा सकें |
यदि हिंदी में राष्ट्रीय
रंगमंच के उदय से तात्पर्य है अभिनय के नियम, रंगशाला की बनावट, प्रदर्शन की विधि,
इन सभी के लिए एक सर्वस्वीकृत परम्परा और शैली की अवतारणा होना, तो ऐसे रंगमंच का
अस्त भी शीघ्र ही होगा| राष्ट्रीय रंगमंच की धारणा के पीछे राजनितिक ऐक्य के लक्ष
का आग्रह है | गुलामी के बादलों में से उगते हुए समाज की प्रत्येक चेष्टा में
राजनितिक विचारों का प्रभाव हो, यह स्वाभाविक ही है | दुनियां में जहाँ कहीं
राष्ट्र निर्माण की ओर मानव-समाज झुका वहीँ निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र पर
राजनितिक विचारधारा ने आसान जा फैलाया | एक भाषा, एक राष्ट्र, एक शिक्षा-प्रणाली
और एक संस्कृति का नारा विभिन्न देशों और विभिन्न युगों में उठाया जा चुका है और
आज भारत में भी इसकी गूंज है; किन्तु और क्षेत्रों में इसका जो भी फल हो,
सांस्कृतिक विकास के लिए यह सौदा प्रायः महंगा ही बैठता है | अठारहवीं सदी के अंत
में जर्मनी, जो उस समय तक विश्रृंखल रियासतों का समूह मात्र थी, अपने आधुनिक
राष्ट्रीय एकता के आदर्श की ओर तीब्र गति से अग्रसर हो रही थी | तभी एक जर्मन
संस्कृति के नाम पर जर्मन राष्ट्रीय रंगमंच के निर्माण में तत्कालीन जर्मन नेताओं
ने उग्र कट्टरता के साथ हाथ लगाया | परिणामतः रंगमंच की एकांगी उन्नति तो हुई,
किन्तु साथ ही जर्मन का पुरातन दरबारी रंगमंच, जिसकी समृद्दि में विभिन्न वर्गों
के पारस्परिक संबंधों की छटा प्रफुटित हुई थी, मटियामेट हो गई | उससे भी अधिक हानी
हुई घुमती-फिरती नाटक-मंडलीयों के ह्रास के कारण | इन घुमंतू अभिनेताओं के माध्यम
से जर्मनी की साधारण जनता बोलती थी | उसके स्थान पर राष्ट्रीय एकता से अभिप्रेरित,
एक विशिष्ट शैली के रंगमंच की स्थापना हुई और वही शैली जर्मन के विभिन्न नगरों में
प्रचलित होती गई |
मुझे आशंका है की कहीं
वैसी ही भूल हम लोग भी अपनी आज़ादी के उषा:काल में न कर बैठे | स्वाधीन भारत को
राजनीतिक एकता की ज़रूरत है किन्तु भारतीय संस्कृति के लिए विविधता अपेक्षणीय है |
जो एक के लिए अमृत है दूसरे के लिए विष | जिन बादलों को बरसकर धरती को अन्न देना
है, वे एक रंग के हों, इसी में कल्याण है, पर जो सूर्य की किरणों से ज्योतित हो हमारी
सौंदर्याभिलाशिणी आत्मा को तृप्त करें, ऐसे बादलों को तो सतरंगी ही होना है |
अतः राजनीतिक दृष्टिकोण से
राष्ट्रीय रंगमंच की रूप-रेखा निश्चित नहीं की जा सकती, नहीं की जानी चाहिये | यह
कहा जा सकता है कि अठारहवीं सदी के जर्मन में रंगमंच की विविध जीवित परम्पराएं
थीं, किन्तु हमारे यहाँ तो साफ मैदान है, जैसी चाहें इमारत तैयार कर लें, कुछ नष्ट
करने का डर नहीं | किन्तु यह भूल है | इसी भूल के कारण भारतीय समाज और साहित्य की
वर्तमान शुष्क बलुकाराशि के नीचे जो अन्तः सलिला धारा बहती रही है, उसमें डूबकी
लगाये बगैर ही पिछले पच्चीस-तीस बरसों के हिंदी-नाटककार, प्रतिभा और प्रयास के
होते हुए भी, जीवंत नाट्य-साहित्य तैयार नहीं कर सके | एक शौकीनी ( एमेचार )
रंगमंच की स्थापना अवश्य हुई, सो भी प्रसादोतर काल में | यह रंगमंच गतिशील है,
स्वास्थ्य है और समाज के एक वर्ग-विशेष की अनिवार्य मांग की पूर्ति करता है |
इसलिए इसका भविष्य उज्जवल है | एमेचर रंगमंच पाश्चात्य साहित्य के संसर्ग से
उद्भूत नाटकीय प्रेरणा की अभिव्यक्ति है और इसके द्वारा एक नई परम्परा की
प्रतिष्ठा हुई है, जिसे हमें कायम रखना है |
किन्तु जैसा कि हमने ऊपर कहा
है, हमें विस्मृत परम्पराओं की धाराओं की तोह भी लेनी है और उनके लिए मार्ग
प्रशस्त करने में ही हमारा सांस्कृतिक नवनिर्माण सफल हो सकेगा | एक अन्तः सलिला
धारा थी संस्कृत नाट्य-साहित्य में परिलक्षित रंगमंच की, ऐसा रंगमंच जो अपने
उत्कर्ष-काल में एक अनुपम सामंजस्यपूर्ण संस्कृति का परिचायक था, जिसके विभिन्न
अंगों के संतुलन में नागरिक जीवन की सर्वान्गीकता सन्निहित थी और जिसके प्रतिबंधों
में शताब्दियों के अनुभव से अर्जित ज्ञान का निमंत्रण | भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस
परम्परा को उबारा सदियों के बाद | उनकी प्रतिभा की प्रचंड किरणों ने विस्मृति के
अभेद्द कारा को खंडित किया और वसंत के लुभावने समीरण के स्पर्श से हिंदी रंगमंच
जाग उठा |
भारतेंदु द्वारा
प्रतिष्ठित धारा का आगमन हिंदी-साहित्य के आधुनिक इतिहास में एक महान दुर्घटना थी
| क्यों ऐसा हुआ, इसकी भी अपनी कहानी है, जिसकी ओर हिंदी साहित्यकार का ध्यान आना
चाहिए | यहाँ संकेत के तौर पर इतना कहना काफी होगा कि विचारक्षेत्र में उत्तर-प्रदेश
के आर्यसमाजी सुधारवादी सिद्धांत, सामाजिक क्षेत्र में हिंदी भाषी प्रान्तों के
उच्चवर्गीय नेताओं की संस्कृति शून्यता, राजनितिक क्षेत्र में स्वतंत्रता-युद्ध के
परिणामस्वरूप आदर्शवादी निग्रह ( Puritanism ) की भावना और भाषा
के क्षेत्र में द्विवेदी जी के नेतृत्व में शुद्धता और इति-वृतात्मक अभिव्यंजना का
आंदोलन, सभी किसी ना किसी रूप अथवा परिस्थिति में भारतेंदु की रस-प्रवाहिन
निर्झरणी के लिए मरुस्थलतुल्य प्राणान्तक सिद्ध हुए | इस तरह हिंदी रंगमंच के
उत्थान का प्रथम प्रयास, जिसका प्राचीन संस्कृत रंगमंच से लगाव था, अधूरा ही राह
गया | बाद में जो नया दौर चला, उसकी प्रेरणा कहीं और से ही आई, और प्रसाद जी के
नाटक तो एक कल्पनाजन्य रंगमंच को आधार मानकर प्रणीत हुआ |
क्या अब पुनः उस अधूरे यज्ञ
की परिणति हो सकती है ? क्या उसकी आवश्यकता भी है इस युद्धोतर जनवादी युग में ? मैं
कहूँगा, हाँ | संस्कृत नाटक की परंपरा नूतन हिंदी रंगमंच के बहुमुखी विकास की एक
प्रधान शैली के बीच विधमान है |
( क्रमशः )
this is very important work. thanks punj bhai.
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