फिल्म निर्देशक का माध्यम है पर अधिकतर अभिनेता ( स्टार ) की वजह से जाना
जाता है | रंगमंच
अभिनेता का माध्यम है पर जाना अधिकतर निर्देशक की वजह से है | आपका
क्या विचार है इस बारे में ? वार्ता के उद्येश्य से ये
सवाल था मेरे फेसबुक वाल पर| इस अनौपचारिक वार्ता में सक्रिय रूप से शामिल हुए परवेज़ अख्तर, विनोद अनुपम, दक्षिणा शर्मा, गौतम जय प्रकाश, अमितेश
कुमार, मनोहर खुशलानी, प्रवीन कुमार
गुंजन, विमलेन्दु
द्विवेदी, प्रशांत कुमार, अमित तिवारी, एकलव्य
चौधरी एवं लोकेश मोहन के प्रति आभार
का भाव रखते हुए प्रस्तुत है हू-ब-हू पूरी वार्ता | आप अगर इसमें कुछ और जोड़ना चाहें तो आपका हार्दिक स्वागत है |
पुंज प्रकाश.
एकलव्य चौधरी - पता नहीं पर शायद फिल्मों में हीरो का ज़्यादा महत्व है और
थियेटर में डाइरेक्टर का ..... शायद.....
गौतम जय प्रकाश - बहुत हद तक सही है | फिल्मों
में , खासकर व्यावसाईक फिल्मों में तो अभिनेता ही प्रमुख पहचान
होता है, स्टार ही ज़्यादा हिट फिल्म देता है, थियेटर के बारे में लिखने की जगह नहीं है यहाँ , विस्तार में जाना होगा |
पुंज प्रकाश - लिखिए, हम इंतज़ार कर रहें हैं आपके लिखने का …
एकलव्य चौधरी - ये पता नहीं पर लगता है |
गौतम जय प्रकाश - मुझे लगता
है थियेटर के विज्ञापन की कमी है | या मजबूरी, का संसाधनों में किसी नामी गिरामी
निर्देशक को प्रचारित करना आसान है, अभिनेता की सोची निकलना मुश्किल |
पुंज
प्रकाश - रंगमंच
की शुरुआत में अगर हम जाएँ तो इसे अभिनेता ने ही शुरू किया निर्देशक नाम का जीव
बाद में अस्तित्व में आया पर सिनेमा में बात पूरी उल्टी है |
गौतम जय प्रकाश - हाँ पर पहले थियेटर में
अभिनेता ही निर्देशक होता था और उसी के नाम पर भीड़ खींचती थी ... फिर शायद
निर्देशक पर्दे के पीछे चला गया मगर लोगों में पहचान उसी की रही |
विनोद अनुपम - भाई मेरे, मामला
सीधा सा है,
बाजार का समय है जो पैसे जुटा सकता है, तूती
उसी की बजती है। नाटक के लिए पैसे निर्देशक जुटाता है, सिनेमा
के लिए स्टार......
गौतम जय प्रकाश - विनोद जी की बात में दम
है |
पुंज प्रकाश - विनोद जी, पर क्या मामला सिर्फ पैसे का ही है या बहुत कुछ और भी है ? नाटक की दुनियां में बहुत सारे निर्देशक ऐसे हैं या
यूँ कहें की अधिकतर निर्देशक ऐसे हैं जो पैसा नहीं जुटा पाते पर फिर भी नाटक
उन्हीं के ही नाम से जाना जाता है |
अमितेश कुमार - ये बड़ा जटिल प्रश्न है...भोजपुरी
सिनेमा का उदाहरण लेते हैं. ससुरा बड़ा पईसावाला, सईंया हमार, निरहुआ रिक्शावाला के रिलीज
से पहले मनोज तिवारी, रवि किशन और निरहुआ
स्टार नहीं थे। और इनके जीवन की ये सबसे बड़ी हिट है। लेकिन हिट हो जाने के बाद
इनकी स्टार इमेज क्रियेट हुइ जो बाजार के दबाव से था और इस अवधारणा से कि इनकी
इमेज दर्शको को खींच लायेगी। पारशी थियेटर को याद कीजिए वहां स्टार था. कारण वहीं
था व्यावसायिकता। नौटंकी में भी स्टार मुख्य था। लेकिन आजादी के बाद के रंग आंदोलन
में जो महत्त्वपूर्ण बदलाव रंगमंच पर हुए उसमें निर्देशक की बड़ी भूमिका थी। उसने
एक तरह से केन्द्रीय सूत्र थाम लिया। और वह मुख्य हो गया। कुछ अभिनेता हुए
जिन्होंने निर्देशक के साथ अपनी छवि बनाई लेकिन रंगमंच में निर्देशक ही स्टार बना।
पुंज प्रकाश - क्या ये भी एक कारण हो सकता है की रंगमंच में निर्देशक स्थाई
है अभिनेता नहीं ?
अमितेश कुमार - ऐसा
कैसे हो सकता है! स्थाई तो दोनों नहीं है...कुछ समर्थ निर्देशकों ने आगे बढ़ कर
सूत्र थामा है इसलिये..
पुंज प्रकाश - निर्देशक एक ही स्थान पर
सालों निरंतर काम करता है जबकि ऐसा बहुत ही काम उदाहरण देखने को मिलता हैं की कोई
अभिनेता ( खासकर हिंदी क्षेत्र में ) एक ही स्थान पर लगातार काम कर रहा हो और
जिन्होने भी किया उनकी अपनी एक सफल पहचान है | लोग उन्हें देखने आतें हैं
| ऐसे
कई उदाहरण हैं की नाट्यदर्शक किसी खास अभिनेता विशेष को देखने के लिए उमड़ पडतें
हैं, तो क्या सवाल निरंतरता का भी नहीं है ?
अमितेश कुमार - सबसे बड़ी बात है कि
निर्देशक की जैसी मजबूत उपस्थिति रंगमंच में है वैसे सिनेमा में नही है। वैसे जो
मजबुत निर्देशक हैं उनके यहां अभिनेता स्टार नहीं है. सत्यजीत राय, श्याम बेनेगल, क्रिस्टॊफ़र नोलन, बहुत से नाम है जहां हम
निर्देशक के काम को देखने जाते हैं. हिन्दी में अभी अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, तिग्मांशु धुलिया ऐसे
नाम हैं.
पुंज प्रकाश - तो क्या यह कहा जा सकता
है की अच्छी फिल्मों में स्टार नहीं होते ? फिर अच्छे नाटकों के
बारे में क्या कहा जायेगा |
मनोहर खुशलानी -
ये एक विशेष विडम्बना है | निर्देशक का फिल्म पे ज़्यादा कंट्रोल है जबकि रंगमंच
में अभिनेता स्टेज पे आता है, निर्देशक के कंट्रोल से निकल जाता है | वो चाहे जो
करे, शो के दौरान निर्देशक उसे रोक नहीं सकता | किन्तु वही नाटक निर्देशक से जाना
जाता है और फिल्म में बिलकुल विपरीत |
पुंज प्रकाश - बिलकुल सही कह रहे हैं | कहा
जाता है की एक अभिनेता के अंदर नाट्य-निर्देशक को मर जाना चहिये | वहीँ एक अच्छा अभिनेता
अक्सर निर्देशक को मरने नहीं देता है | कहने का मतलब ये है की
वो कभी भी प्रस्तुति को आउट आफ कंट्रोल नहीं जाने देता |
मनोहर खुशलानी - ये एक disciplined actor की निशानी है , लेकिन वो जो चाहे कर सकता है | नाटक में निर्देशक
की कैंची नहीं चलती |
अमितेश कुमार - स्टार की उपस्थिति फ़िल्म
के अच्छे होने की गारंटी नहीं है ...उसी तरह स्टार लेकर भी अच्छी फ़िल्म बनाई गई है
बशर्ते स्टार के इमेज को निर्देशक कबु में कर ले...
पुंज प्रकाश - लेकिन वहीँ नाटक के
निर्देशक प्रायः बड़े अभिनेताओं के ( रंगमंच के ) साथ काम करने से अक्सर कतराते
क्यों हैं ?
अमितेश कुमार - क्योंकि वहां अभिनेताओं
से भय होता है और कुछ अभिनेता कठपुतली आसानी से नहीं बनना चाहते!
मनोहर खुशलानी - The fear of losing control i suppose.
पुंज प्रकाश - तो क्या यह कहा जा सकता
है की नाटक के निर्देशक अपने नाटक को पूरी तरह से अपने control में
रखना चाह्तें हैं ? शायद इसीलिए नाट्यलेख को भी अपनी मर्ज़ी से कटते छांटते है |
मनोहर खुशलानी - ये एक निर्देशक की insecurity दर्शाती
है |
प्रवीन कुमार गुंजन - ये कोई मुद्दा ही नहीं है...इस देश की पहचान अभी मनोहर सिंह से होती है, पर
इस देश में आम आदमियों का भी योगदान है..वैसे रंगमंच में third eye के
रूप में निर्देशक नेतृत्व करता है ..उसका एक vission होता है जिसका
प्रमुख्य माध्यम अभिनेता होता है ..एक नाटक दस नाम से नहीं चल सकता..एक नाम भी
चाहिए group play को...Actor निर्देशक के vision से गुज़रता हुए प्रमुखता पता है... ऐसे तो ये भी
कहा जा सकता है की नाटक का प्रमुख हिस्सा दर्शक है..तो दर्शक के नाम से भी से theatre चलना चहिये.. ये चर्चा
लंबी हो सकती है..धन्यवाद |
पुंज प्रकाश - चर्चा लंबी हो इसमे कोई बुराई नहीं है. हम तो बस ये समझने की कोशिश
कर रहें हैं की कारक क्या क्या हैं |
प्रवीन कुमार गुंजन - वजह.. आप से अच्छा तो कोई नहीं बता सकता है, हम तो खुद आपसे सुनना चाहतें
हैं | पटना में निर्देशक के रूप में आपकी गहरी पहचान थी, पर थे आप अभिनेता | आप
अभिनेता – निर्देशक दोनों रहें हैं, आप ज़्यादा अच्छी तरह से बता सकतें हैं | जब आप
अभिनेता होतें हैं और जब निर्देशक तो दोनों के सोचने और रात की नींद बर्बाद करने
में अंतर है | और मैनेजमेंट तथा सभी रंगमंचीय पहलुओं का कंट्रोलर भी निर्देशक ही
होता है | शो कैसे बनेगा ये तो अभिनेता से ज़्यादा निर्देशक की ज़िम्मेदारी होती है
| अभिनेता
तो चरित्र के निर्माण और उसकी प्रक्रिया में फंसा रहता है | रंगमंच में total vision होता
है, वो निर्देशक ही देख सकता है |
और एक सवाल – एक अभिनेता एक निर्देशक के नाटक में काम करता है और नाटक
पीट जाता है | वही अभिनेता एक दूसरे निर्देशक के साथ काम करता है और नाटक हिट हो
जाता है, अभिनेता की चर्चा भी होती है | अभिनेता जब एक ही है दोनों नाटक में तो
दोनों नाटक हिट क्यों नहीं हुआ ?
विमलेन्दु द्विवेदी
- रंगमंच एक जोखिम भरा कला माध्यम है क्योंकि इसमे रीटेक
की गुंजाइश नहीं होती....साथ ही इसमे क्लोज शॉट और लांग शॉट भी नहीं होते. मंच पर
प्रस्तुति के दौरान निर्देशक के पास ज्यादा तकनीकी सहायता भी नहीं होती...इसलिए
अच्छा या बुरा जो बन पड़ता है वह निर्देशक की मेहनत और कल्पनाशक्ति का परिणाम होता
है.इसीलिए ज़्यादा श्रेय भी निर्देशक को मिलता है........इसके बरक्स सिनेमा
निर्देशक का माध्यम होते हुए भी अनेक तकनीकी माध्यमों के सहयोग से बनता है.यह भी
याद रखना होगा कि सिनेमा अंततः एक उत्पाद ही है और यहां बाज़ार का वही नियम चलता
है कि जो दिखता है--वो बिकता है....इसीलिए पैसा लगाने वाला निर्माता स्टार की छवि
को स्थापित करने के लिए सारे दांव-पेच लगाता है.......
प्रशांत कुमार - प्रश्न जटिल है, इसका सही- सही जवाब मुझे
भी नही पता लेकिन चूंकि मुझे दोनों माध्यमो में रहने का मौका मिला है तो अपनी सोच
ज़रूर बांटना चाहूँगा...
रंगमंच अपने आप में असीम संभावनाओ और कई कलाओ को समेटे हुए है लेकिन फिल्म एक ऐसी विधा है कि रंगमंच को बड़ी आसानी से अपने भीतर समाहित कर लेता है... फिल्म तकनीक के मामले में रंगमंच से हमेशा आगे रहा है... 70 mm के परदे पर निर्देशक मनचाहे ढंग से LOCALE, TIME & SPACE को बांध पाता है... जबकि थियेटर में एक सीमा के बाद सारे तकनीक दर्शक की कल्पनाशक्ति की मदद लेने में जुट जाते हैं...दोनों विधाओ का दर्शको के मानसपटल पे छोड़े हुए प्रभाव को समझने के लिए हमें विज्ञापन के मनोविज्ञान को भी समझना ज़रूरी है.. विज्ञापन की दुनिया से सरोकार रखने वाले या विज्ञापन का मनोविज्ञान समझने वाले मेरी बात से सहमत ज़रूर होंगे .. दरअसल विज्ञापन का सारा विज्ञान सम्मोहन पर आधारित है...pepsodent एक अच्छा toothpaste है ये बात हमें इतनी बार ठोक-पीट कर समझाई जाती है कि न चाहते हुए भी ये हमारे अवचेतन मन पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ जाता है... इसलिए कोई हैरानी की बात नही है कि अगली बार जब हम दुकान जाते हैं तो अनायास हमारे मुह से निकल पड़ता है 'भैया एक pepsodent देना. विज्ञापन के मनोविज्ञान का ज़िक्र करने का मेरा कुल इतना ही उद्देश्य है कि कमोबेश फिल्म का माध्यम अपने तकनीक और शैली की वजह से विज्ञापन के मूलभूत सिद्धांत के काफी करीब है और दर्शको के मन पर बड़ी सुगमता से गहरा असर छोड़ जाता है ...क्या हम में से किसी ने भी वास्तविक ज़िन्दगी महामानव देखा है.... ?? नही... लेकिन फिल्म के परदे पर हम महामानव की कल्पना को साकार होते देखते हैं... अभिनेताओ की एक एक हरकत, एक-एक अभिव्यक्ति कई गुणा ज्यादा मुखरित होकर संप्रेषित होती है... एक विशाल परिदृश्य में चल रही एक छोटी सी घटना को हज़ार गुणा आवर्धित करके दिखाया जा सकता है... सारांश ये है कि दर्शक पूरी घटनाक्रम का इतना निकट साक्षी हो पाता है कि अपना तादात्म्य परदे पर चल रही घटना से बड़ी आसानी से जोड़ पाता है... लेकिन ठीक इसके उलट रंगमंच में मंच से २० मीटर की दूरी पर बैठा एक दर्शक सारी कोशिशो के बावजूद २० मीटर की दूरी पर ही रहता है..और साथ ही दर्शक के आकर्षण का केंद्र बिंदु कब क्या हो, ये दिखाने के लिए आप उसे आकर्षित/प्रेरित तो कर सकते हैं लेकिन बाध्य नही कर सकते क्योकि अधिकाँश समय उनके पास पूरा परिदृश्य मौजूद होता है ... रंगमंच की सम्भावनाये अनंत हैं... लेकिन शायद इन्ही कुछ वजहों से फिल्म दर्शको के सर चढ़ नाचता है और फिल्म अभिनेता उनके अवचेतन में महामानव बन कर बैठे रहते हैं...
रंगमंच अपने आप में असीम संभावनाओ और कई कलाओ को समेटे हुए है लेकिन फिल्म एक ऐसी विधा है कि रंगमंच को बड़ी आसानी से अपने भीतर समाहित कर लेता है... फिल्म तकनीक के मामले में रंगमंच से हमेशा आगे रहा है... 70 mm के परदे पर निर्देशक मनचाहे ढंग से LOCALE, TIME & SPACE को बांध पाता है... जबकि थियेटर में एक सीमा के बाद सारे तकनीक दर्शक की कल्पनाशक्ति की मदद लेने में जुट जाते हैं...दोनों विधाओ का दर्शको के मानसपटल पे छोड़े हुए प्रभाव को समझने के लिए हमें विज्ञापन के मनोविज्ञान को भी समझना ज़रूरी है.. विज्ञापन की दुनिया से सरोकार रखने वाले या विज्ञापन का मनोविज्ञान समझने वाले मेरी बात से सहमत ज़रूर होंगे .. दरअसल विज्ञापन का सारा विज्ञान सम्मोहन पर आधारित है...pepsodent एक अच्छा toothpaste है ये बात हमें इतनी बार ठोक-पीट कर समझाई जाती है कि न चाहते हुए भी ये हमारे अवचेतन मन पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ जाता है... इसलिए कोई हैरानी की बात नही है कि अगली बार जब हम दुकान जाते हैं तो अनायास हमारे मुह से निकल पड़ता है 'भैया एक pepsodent देना. विज्ञापन के मनोविज्ञान का ज़िक्र करने का मेरा कुल इतना ही उद्देश्य है कि कमोबेश फिल्म का माध्यम अपने तकनीक और शैली की वजह से विज्ञापन के मूलभूत सिद्धांत के काफी करीब है और दर्शको के मन पर बड़ी सुगमता से गहरा असर छोड़ जाता है ...क्या हम में से किसी ने भी वास्तविक ज़िन्दगी महामानव देखा है.... ?? नही... लेकिन फिल्म के परदे पर हम महामानव की कल्पना को साकार होते देखते हैं... अभिनेताओ की एक एक हरकत, एक-एक अभिव्यक्ति कई गुणा ज्यादा मुखरित होकर संप्रेषित होती है... एक विशाल परिदृश्य में चल रही एक छोटी सी घटना को हज़ार गुणा आवर्धित करके दिखाया जा सकता है... सारांश ये है कि दर्शक पूरी घटनाक्रम का इतना निकट साक्षी हो पाता है कि अपना तादात्म्य परदे पर चल रही घटना से बड़ी आसानी से जोड़ पाता है... लेकिन ठीक इसके उलट रंगमंच में मंच से २० मीटर की दूरी पर बैठा एक दर्शक सारी कोशिशो के बावजूद २० मीटर की दूरी पर ही रहता है..और साथ ही दर्शक के आकर्षण का केंद्र बिंदु कब क्या हो, ये दिखाने के लिए आप उसे आकर्षित/प्रेरित तो कर सकते हैं लेकिन बाध्य नही कर सकते क्योकि अधिकाँश समय उनके पास पूरा परिदृश्य मौजूद होता है ... रंगमंच की सम्भावनाये अनंत हैं... लेकिन शायद इन्ही कुछ वजहों से फिल्म दर्शको के सर चढ़ नाचता है और फिल्म अभिनेता उनके अवचेतन में महामानव बन कर बैठे रहते हैं...
पुंज प्रकाश - ये बिलकुल सही है की एक निर्देशक नाटक का पहला दर्शक होता है | जो सामने से ये देख रहा
होता है की जो कुछ भी चल रहा है अंततः उसका प्रभाव क्या पड़ेगा | पर साथ ही साथ एक समर्थ
अभिनेता भी ये देख , समझ, महसूस कर रहा होता है की
मंच पर जो कुछ भी हो रहा है या किया जा रहा है उसका प्रभाव क्या उत्पन्न होगा | इस पूरी प्रक्रिया में
अभिनेता की भूमिका सिर्फ निर्देश फोलो करने वाले की ही केवल नहीं होती वो क्रिएटर
होता है किसी का माध्यम नहीं | वो भी तमाम तरह के मंच
पार्श्व और मंच पर चल रही तकनीकी सामग्रीओं के बीच रच ( Create )
रहा होता है | निर्देशक के विचार-विमर्श के सहमति - असहमति के बीच भी |
अमितेश कुमार - निर्देशक रंगमंच पर
केन्द्रीय व्यक्तित्व ऐसे ही नहीं बना है. इसके पीछे उसकी मेहनत है. विश्व के या
भारत के रंग निर्देशको को देखिये उन्होंने अपनी भाषा और सिद्धांत गढ़ने में अपना
समय और दिमाग लगाया है। मैं मानता हूं कि निर्देशक एक पढ़ाकु और जिग्यासु जीव है
जबकि अभिनेता (आज कम से कम) ऐसे नहीं है. वे अपनी जिम्मेवारी समझते हैं चरित्र
निभा ले जाना.इसलिये उनकी कोई अपनी छवि नहीं बनती. लेकिन अच्छा अभिनेता जिग्यासु
अपनी पहचान बना लेता है अगर निर्देशक का समर्थन हो तो. हबीब साहब अपने निर्देशन
में कभी अभिनेता को नहीं हांकते थे उन्हें छूट होती थी...वे बस उनके काम को आकार
देते थे और तराशते थे/ इसीलिये उनके रंगमंच में अभिनेता को हम जानते हैं, जैसे फ़िदाबाई, दीपक तिवारी, गोविंदराम आदि. कहने का
मतलब यह कि अभिनेता और निर्देशक का अपना व्यक्तित्व भी मायने रखता है। और हां बंधु अब थियेटर भी उत्पाद बनने की ओर अग्रसर
है. देखते जायें. हाल ही में फ़ैशन डिजायनर जे.जे.वलाया ने लक्मे फ़ैशन वीक के अपने
शो के लिये रानावि के ४० पर्फ़ार्मर्स का इस्तेमाल किया. और नीलम मान सिंह चौधरी ने
रीतु कुमार के साथ एक शो किया। कुछ
वर्ष पहले रामगोपाल बजाज से साक्षात्कार लिया था ..इस प्रश्न से संबंधित अंश
अमितेश
- कहा जाता रहा है कि रंगमंच अभिनेता का माध्यम है, फ़िल्म
निर्देशक का माध्यम है। लेकिन वास्तविकता बिलकुल उलट है...ऐसा क्यों?
राम
गोपाल बजाज - गलत हुआ है। ऐसा मैं भी मानता हूं। पर फ़िल्मों में अभिनेता हावी तो
नहीं हुआ है...इसलिये कि दर्शक को उसका या तो उसकी पसंदीदा कहानी निर्देशक अथवा
अभिनेता को पहचानता है तो उसको वह देखने जाता है। रामलीला में आज कौन राम का रोल
कर रहा है या कौन जटायु या रावण का रोल कर रहा है वो देखने जाता है...और मूलतः वह
रामलीला देखने जाता है और रामलीला उसके मन में बसी है। वह रामलीला भी नहीं देखने
जा रहा है वह देखने जा रहा है कि आज की रामलीला में ये वाला सीन ये लोग कैसे करते
हैं। तो कोई ना कोई बात फ़िल्म की हो या नाटक की, दर्शक
तब जाता है जब उसको ये मालूम है कि इसमें कोई विशेष बात है। या तो अभिनेता या
उसमें कहानी या वो गाना या उसका सब्जेक्ट या उसकी अश्लीलता या उसकी भडैंती या
उसमें डांस या कि उसका निर्देशक या उसको आस्कर मिलने वाला है। वरना मुझे बताइये 'स्लमडाग मिलेनर' जैसी फ़िल्म का, उस विषय का हमारे मध्यवर्गीय सामाजिक से क्या संबद्ध है। वो
फ़िल्म यदि है, वो विषय यदि है तो वह हमारी मध्यवर्गीय हीनताबोधक
संवेदना के कारण वो कहानी है और उसको देखने के लिये बावला मध्यवर्गीय दर्शक जा रहा
है क्यों? उसको इतने नामिनेशन आस्कर के मिले हैं इसलिये...तो
प्रसिद्धि शोहरत जिस चीज की होगी, जिस माध्यम से भी होगी, उसके लिये सामान्य दर्शक जाएगा। कथा की प्रसिद्धि... प्रसिद्ध
कथा इसलिये चलती आई है। इसलिये महाभारत की कथा या बाइबिल की कथा या लोक कथा का
आधार नाटककार लेते हैं।
परवेज़ अख्तर - यह सिस्टम का विरोधाभास है, जिसके कारण यह उलट-पुलट
है और यह उलट-पुलट विशेष तौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र की समस्या ज्यादा है | हिन्दी का कोई
क्षेत्रीय-स्वरुप नहीं है | इसका 'पान-इंडियन' स्वरूप ही दरअसल इसमें
बाधक है | बाज़ार की शक्तियाँ, हिन्दी के इस
व्यापक-आधार का इस्तेमाल व्यापारिक हित में करती हैं -- फलस्वरूप, 'स्टारडम' और 'ग्लैमर' से इन जन-माध्यमों को
जोड़ कर, अकूत-लाभ कमाने का एक सरल रास्ता बना लिया गया | रंगमंच का यह स्टार
निर्देशक है | बाज़ार द्वारा गढ़े गए इन प्रतीकों को हमारा समाज उसी रूप में
ग्रहण भी करने लगा | इसलिए हिन्दी सिनेमा 'स्टार-एक्टर' से और रंगमंच 'स्टार डिरेक्टर ' से जाना-पहचाना जाता है |
जहाँ भी फिल्म और रंगमंच का विकास सकारात्मक दिशा में
हुआ है, वहाँ का सिनेमा निर्देशकों के नाम से और नाट्य-प्रस्तुति (या
रंगमंच) अभिनेता के नाम से जाना जाता है | इसे उदाहरण से समझा जा
सकता है -- बांग्ला सिनेमा (या अन्य क्षेत्रीय सिनेमा) का प्रतिनिधित्त्व निर्देशक
(सत्यजित रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक आदि) करते
हैं; जबकि रंगमंच का अभिनेता (शम्भु मित्र, अजितेश बंद्योपाध्याय, अरुण मुखर्जी वगैरह) | रंगमंच
के प्रसंग में, इसका एक दूसरा पक्ष भी है | रंगमंच के विकास को इस तरह भी समझा जा सकता है -- [1] अभिनेता+दर्शक, [2] अभिनेता+नाटककार+दर्शक, [3] अभिनेता+नाटककार+निर्देशक+दर्शक | नाट्य-सृजन की जटिल होती गयी प्रक्रिया में अभिनेता के साथ
पहले जहाँ नाटककार को सम्मिलित किया गया; वहीं निर्देशक भी इसी
संश्लिष्ट रचना प्रक्रिया में, अब एक महत्ववपूर्ण
रचनाकार के रूप में इससे जुड़ गया है | इसे
रंगमंच के विकास के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए |
लोकेश मोहन - yes right you are.
विनोद अनुपम - पुंज प्रकाश जी,मेरी बात पीछे छूट गई।कुछ दिनों पहले पटना मे एक नाटक
हुआ था,न तो मुझे निर्देशक का नाम याद आ रहा है,न ही नाटक का,सिर्फ इतना याद है कि
उसमें अभिनय करने वाले नसीर के रिश्तेदार थे ,गलती मेरी नहीं,क्यों कि नाटक को इसी
विशेषता के साथ प्रचारित ही किया गया था। अभिनेता ही क्यों ,यदि लेखक मजबूत रह तो
कभी कभी नाटक की पहचान लेखक से भी करनी पडती है। याद करें जब बाजार का दवाब नहीं
था,नाटक की पहचान किसी व्यक्ति से नहीं संस्था से होती थी,क्यों कि ताकत समूह के
हाथ मे थी।सिनेमा पर भी जबतक बाजार का दवाब नहीं था,दर्शक महबूब खान,विमल राय और शांताराम को
ही जानते थे. बदलाव तब आया जब ये माध्यम पैसे से नियंत्रित होने लगे।
अमित तिवारी – भाई ये कालांतर से चलता आ रहा है |
पुंज प्रकाश - विनोद अनुपम जी | आपकी बात पीछे नहीं छुटी
है बल्कि आपकी ही बातों से कई और बातें निकलीं हैं | आप बाजारवाद की बात कर
रहें हैं | संदेह नहीं की बाजारवाद आज और ज़्यादा मजबूत हुआ है | उसने हर चीज़ को अपने
गिरफ्त में लि है या कोशिश में है | निजी से निजी- सार्वजनिक
से सार्वजनिक , हर चीज़ | यहाँ तक की हमारी सोच भी
कुछ हद तक बाज़ार से प्रभावित हुई है | सो, रंगमंच भी इससे अछुता
नहीं है | खासकर शहरी रंगमंच | बाज़ार को अपना माल बेचना
है और इसके लिए वो इमेज क्रिएट करता है | बाज़ार के लिए जो भी फिट
बैठे बाज़ार उसे प्रचारित करेगा | वो चाहे अभिनेता हो, लेखक हो या निर्देशक |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें