रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

रसूलन बाई की जिंदगी की तकलीफदेह कहानी : द अदर सांग


अदर सांग फिल्म कैमरे से रचा एक गीत है। ठुमरी गायकी की खास शैली पर बनी यह फिल्म कहीं आपकी संवेदना को चिढ़ाती भी है, तो हृदय के किसी कोने में अनूठा भाव-संसार भी रच देती है। ठुमरी का दर्द, दर्द से उठती टीस – फिल्म के पोर-पोर में है। दर्शकों के मन में उपजता दर्द, ठुमरी गाने वाली तवायफों की टूटती-बिखरती-बनती टीस के साथ मिल कर ऐसा मुकम्मल फलक तैयार करता है कि आप अपने उदास होते मन से सवाल पूछने लगते हैं – यह उदासी क्यों? उन जमींदोज गीतों के लिए – उन गीतों के गायकों की बदनसीबी के लिए या – उन कंठों के लिए जो गायकी का पूरा एक अंदाज जान बूझ कर भुला देना चाहते हैं?
तसल्ली भी होती है – ऐसे भी लोग तो हैं, जो ठुमरी के लिए बेपनाह मुहब्बत रखते हैं और अतीत के उन बिखरे टुकड़ों को समेटने की जिद रखते हैं – फिल्म की निर्देशिका सबा दीवान की तरह।
फिल्म की शुरुआत उलझन भरे सवालों से होती है – आखिर रसूलन बाई ने ठुमरी के बोल वक्त के साथ क्यूं बदले? वक्त रसूलन पर इतना कड़ा क्यूं गुजरा?
“द अदर सांग” एक खोयी हुई ठुमरी के बहाने, ठुमरी और मशहूर ठुमरी गायिका रसूलन बाई की जिंदगी की तकलीफदेह कहानी बयान करती है। रसूलन बाई की एक यादगार ठुमरी है – ‘लागत करेजवा में चोट, फूल गेंदवा ना मारो’ घायल हृदय का वास्ता देकर, इजहार–ए–मुहब्बत के नाजुक एहसास की उम्मीद जताने वाली इस ठुमरी का एक हर्फ कालांतर में बदल गया – ‘फूल गेंदवा ना मारो, लागत जोबनवां में चोट।’ जिन हालात ने ठुमरी के बोल बदल दिये, पूरी फिल्म उन्हीं की तस्वीर है।
बनारसी ठुमरी के अतीत में उतरने की कोशिश में फिल्म तवायफ परंपरा को खंगाल देती है। फिल्म शुरू होते ही एक पात्र रोशनी की उम्मीद में बंद दरवाजे खोलता है, जैसे अतीत के अंधेरे में झांकने को एक झरोखा खोलता हो। बनारस से बिहार तक ठुमरी की ठसक ढूंढी जाती है। एक तिलस्मी दुनिया अपने राज उधेड़ती है और आप एक जादू से बंध जाते हैं। रसूलन बाई ठुमरी गाती थी या ठुमरी उनके ही गले से उतरना चाहती थी – सोचने का अपना-अपना कायदा है। आजादी के अचानक बाद देश भर में हिंदू–हिंदू, मुसलमान–मुसलमान होने लगे। शौहर सुलेमान तो पाकिस्तान चले गये; रसूलन की जमीर को ये गंवारा न हुआ।
सायरा बेगम को याद है, उस्ताद कहते थे, गाओ तो रसूलन की तरह और ये भी कि वो ठुमरी राग भैरवी में है। सायरा के उस्ताद चांद खान साहब को मलाल है कि न ठुमरी गाने वाली तवायफों की अब कोई इज्जत रही न ठुमरी की। रईस रजवाड़े की कोठियां, जहां कभी सुबहो–शाम महफिल जमती थी, है ही नहीं।
फिल्म ऐसी ही एक कोठी से शुरू होती है, जो बदलते वक्त और सोच के ढांचे में ढल कर मंदिर बन गया है। कोठी का मालिक अलमारी के तहखाने से रसूलन बाई का ग्रामोफोन रिकार्ड और कुछ दिलचस्प वाकयात ढूंढ़ कर देता है।
फिल्म आजादी के आसपास बनारस और हिंदुस्तान में हो रहे सांस्कृतिक बदलाव का भी जायजा लेती है। बदलाव जिसमें उर्दू अदब के लिए जगह कम होती चली गयी। कहानी ऐसी भी है कि कौमी एकता की गांधी जी की कोशिश को पुरअसर बनाने के लिए बनारस के तवायफों ने भी अपनी नेमत तय की। हर महफिल में देशभक्ति के गीत गाने की कसम ली। दान के लिए आपस में चंदा इकट्ठा किये, मगर तवायफों की इस फराखदिली के लिए गांधी का भी दिल छोटा पड़ गया। अपवित्र पेशे का हवाला देकर दान लेने से इंकार कर दिया गया। इंकार का ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा।
आजादी के बाद बनारस में हिंदुओं का सांस्कृतिक बोध कुछ ज्यादा सबल हुआ। लोगों ने पहले तवायफों के मुहल्ले से गुजरने से इनकार किया और जल्द ही तवायफों के वहां रहने-जीने देने से इनकार कर दिया। मुफलिसी कुछ ऐसी तारी हुई कि जिंदगी से तौबा!
ठुमरी, लोकगीत गाने वाली मामूली गायिकाओं की खबर इतिहास क्या देगा, ठुमरी साम्राज्ञी रसूलन बाई जिंदगी के आखिरी दिनों में इलाहाबाद में फुटपाथ पर कुछ–कुछ बेचा करती थी, अपने अधूरे अरमान बांचा करती थी, ये भी किसको पता है! इलाहाबाद रेडियो स्टेशन में लगे कलाकारों की तस्वीर के साथ लिखे नामों में अपना नाम ‘रसूलन बाई’, देखकर कहा – बाकी सब बाई देवी बन गयी, एक मैं ही बाई रह गयी। तारीफ और इज्जत से उठने वाली नजरों की कायल रह चुकी रसूलन बदलते दौर की बेशर्मी और संगदिली से बुरी तरह आहत हुई। फूल की चोट से घायल होने वाले हृदय को पत्थर की चोट झेलनी है, ये न तो रसूलन ने सोचा होगा न ठुमरी के कद्रदानों को पता था।
गैरतमंद सायरा बेगम कहती हैं, ‘मैं ऐसे लोगों से वास्ता ही नहीं रखती हूं।’ इशारा उनकी ओर है, जो इज्जत और भरोसे का व्यापार करते हैं। सायरा ने गुरबत देखी है। गुरबत की जलालत भी। 14-15 साल की उम्र से गायकी शुरू की। गायकी की कद्र कम होते और खूबसूरत जिस्म की कद्र बढ़ते देख सायरा ने भी साज और आवाज – दोनों को बरसों पहले आलमारी में छुपा कर रख दिया। अपनी तीनों बेटियों को संगीत का ‘स’ तक सीखने नहीं दिया। दो बेटियों की शादी हुई, तीसरी की होने वाली है। अपने जीते जी तसल्ली कर लेना चाहती है – इस खानदान में अब कोई कंठ गाने के लिए कभी नहीं खुले।
फिल्म के पात्र इन्हीं यकीनों को बार-बार दुहराते हैं। सायरा बेगम, रानी बेगम, दया कुमारी, जरीना बेगम या चांद खान – सभी बदलते नियाज से नाखुश हैं। रसूलन बाई की जिंदगी से जुड़ी दास्तान तो मार्मिक है ही, ठुमरी और उनके कद्रदानों की बेरुखी भी दिल तोड़ती है। फिल्म में संगीत के तौर पर पात्र के गाये गीतों के अलावा कहीं-कहीं संगीत का बेहतर समायोजन भी शामिल हैं, जिनकी वजह से प्रमाणिकता तो बढ़ती है लेकिन कभी-कभी खामोशी तारी हो जाती है। विजुअल बिंबों की भाषा से वाकिफ राहुल राय का कैमरा अपना काम बखूबी कर गया, लेकिन संभवतः संपादन में विजुअल को संदर्भ के दायरे में रखने की कोशिश करते हुए कहीं-कहीं कुछ ज्यादा ही सावधानी बरती गयी है। फिल्म के टेंपो स्लो होने की ये भी एक वजह हो सकती है, लेकिन ये सब सप्रयास है। हां, क्लाइमेक्स की ओर बढ़ते-बढ़ते फिल्म संपादन की कारीगरी फिल्म को खूबसूरती से सम्हालती है और फिल्म दर्शकों की तमाम शिकायतें खत्म कर देती है। लोकेशन की जीवंत आवाज को रिकार्डेड संगीत के साथ मिला कर साउंड संपादक आशीष पांड्या ने और अधिक असरदार बना दिया है।
फिल्म और फिल्मकार की तलाश पूरी होती है। लब्बोलुवाब ये कि वक्त और मिजाज के मुताबिक गायक कलाकार को शब्दों में थोड़ी हेर-फेर करनी पड़ती है। रसूलन ने भी यही किया था और सायरा बेगम भी ऐसा करती है।
फिल्म देखते हुए कई ऐसे भूले-बिसरे गीत से भी रु-ब-रु होते हैं, जिन्हें वक्त ने भुला दिया। बेतकल्लुफी के माहौल में रिकॉर्ड किये गये गीत-टूटली मरैया में कैसे रही पियवा, पनिया चुए ला चहुं ओर; या फिर-बिसरहिया न बालम हमार सुधिया, जैसे कुछ और गीतों के दर्द को अगर ईमानदारी से अपने भीतर उतर जाने दें, तो निश्चित तौर पर एक रूहानी सुकून का एहसास मिलता है। परिवर्तन संसार का नियम है – हो सकता है – इस फलसफे से इनकार करने का भी मन करे।
(कृष्‍ण देव। प्रभात खबर से पत्रकारिता की शुरुआत। भारतीय जनसंचार संस्‍थान से पत्रकारिता में मास्‍टर डिग्री। फिलहाल स्‍वतंत्र फिल्‍मकार और पत्रकार। उनसे krishndeo@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। यह आलेख मोहल्ला live से साभार )

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