हमारे संस्कारों के परिष्करण और उन्नयन की दृष्टि से मुक्तिबोध का साहित्य निर्विवाद रूप से काफी प्रभावशाली है। अपनी कविताओं से लेकर कहानियों और निबंधों में उन्होंने हमारे सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का गहन अन्वेषण किया है और मानवीय संबंधों की मूल्यपरक व्याख्या प्रस्तुत की है। जीवन के यथार्थ और जड़ीभूत नैतिक मूल्यों पर पड़े परदों को एक-एक कर हटाते हुए मुक्तिबोध की कहानियां पीड़ा का एक ऐसा वातावरण रचती हैं जिसमें अत्यंत सहज सी लगने वाली जीवनस्थितियां भी असामान्य और अद्भुत का भ्रम पैदा कर देती हैं। कहानियां ही क्यों, साहित्य की करीब-करीब सभी विधाओं का उपयोग उन्होंने उस यथार्थ से मुठभेड़ करने में किया है, जिससे वे स्वयं मृत्युपर्यंत जूझते और लड़ते-भिड़ते रहे थे।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में जीवन के अंतर्विरोधों और अस्तित्व के बुनियादी सवालों से इतनी निर्मम मुठभेड़ करने वाला दूसरा कोई साहितयकार दिखाई नहीं पड़ता। शोषण, उत्पीड़न, क्रूरता, आतंक और हिंसा से भरी इस दुनिया में सामान्यजन की स्थिति और इनसे पार पाने की उनकी अनवरत कोशिशों की ऐसी आत्मीय पहचान उस लगाव, तड़प और बेचैनी के बिना संभव नहीं हो सकती थी जिसके लिए मुक्तिबोध जाने जाते हैं। यह बेचैनी थी जिन्दगी के असलियत को पहचानने की, भारतीय जीवन के भयानक शब्दहीन अंधकार को, नैराश्य, कुंठा, अवसाद, आत्मवंचना और आत्मपरस्ती के इतिहास बोध को भेद कर मानव-विरोधी व्यवस्था और संस्कृति पर मारक प्रहार करने की। अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाकर मठों और गढ़ों को तोड़ने के अपने दायित्व के निर्वहन की प्रक्रिया में मुक्तिबोध ने अपने समग्र लेखन द्वारा बुर्जुआ कला-संस्कृति का विरोध किया और जन-चेतना के सर्वव्यापी असर की खोज की।
मुक्तिबोध |
मुक्तिबोध की कहानियों के पात्र मध्यवर्ग के वे अभिशप्त स्त्री-पुरुष हैं जो किसी भी प्रकार के जीवन-दर्शन के अभाव में अंधकार में प्रेतात्माओं की तरह टकरा रहे हैं और अपनी-अपनी स्थितियों के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। विपात्र, चाबुक, समझौता, विद्रूप, ब्रहमराक्षस और आखेट जैसी उनकी लगभग सभी कहानियां भारतीय इतिहास के सर्वनाश और मध्यवर्ग के आध्यात्मिक संकट को इस प्रकार उद्घाटित करती हैं कि उन्हें अनदेखा करना असंभव हो जाता है। विगत 2 मार्च को कमानी सभागार में महिन्द्रा थिएटर फेस्टिवल के अंतर्गत मंचित नाटक ‘समझौता’ ने एक बार फिर अपनी अनूठी कसावट और प्रभावशीलता के माध्यम से रचना और जीवन के भीतर के तनावों और संकटों को समझने में दर्शकों की मदद की और तथाकथित आधुनिकता द्वारा मनुष्यता, करुणा, आदर्शवादिता और सत्य के संहार का जीवंत चित्रण किया। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक और संभावनाशील युवा निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन द्वारा निर्देशित इस नाटक को बेगूसराय, बिहार के आहुति नाट्य अकादमी ने प्रस्तुत किया और नाटक में एकल अभिनेता के रूप में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित तथा विगत वर्षों में रंग अभिनय के क्षेत्र में एक सशक्त उपस्थिति दर्ज करने वाले मानवेंद्र कुमार त्रिपाठी ने अभिनय किया। हाल ही में भारत रंग महोत्सव के अंतर्गत यह नाटक दिल्ली में पहली बार मंचित हुआ था और इसने दर्शकों के बीच खासी लोकप्रियता हासिल की थी। रंगमंच के प्रतिष्ठित सातवें महिन्द्रा थिएटर फेस्टिवल के अंतर्गत इस बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशन और सर्वश्रेष्ठ नाट्यालेख की श्रेणी में महिन्द्रा एक्सीलेंस अवार्ड के लिए चयनित एवं पुरस्कृत होने वाले इस नाटक को सर्वश्रेष्ठ अभिनय का पुरस्कार न मिलना समझ से परे है। एक घंटा और दस मिनट की अवधि वाले इस नाट्य प्रदर्शन में मानवेंद्र मुक्तिबोध की इस कहानी में गुंफित मध्यवर्ग की उलझनों, अंतद्र्वंद्वों और उनकी अभिव्यक्ति का सशक्त और अनोखा रूप सामने लाने में सफल रहे हैं और वे दर्शकों के साथ एक रागात्मक संबंध कायम कर पाते हैं जो किसी भी अभिनेता की एक बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए। एकल अभिनेता के लिहाज से कठिन प्रतीत होने वाली अवधि को पूरी तरह अर्थ-सघन, विशिष्ट और आकर्षक बनाए रख पाना जिस सर्जनात्मक दृष्टि, मनोयोग और एकाग्रता की मांग करता है, निश्चित रूप से मानवेंद्र उसे उपलब्ध कर सके हैं और तभी वे दर्शकों पर एक सार्थक प्रभाव छोड़ पाते हैं।
युवा निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन ने ‘समझौता’ की नाट्य प्रस्तुति में बाहरी टीमटाम के बजाय अभिनेता को केंद्रीय महत्व दिया है और संगीत, प्रकाश तथा कोरस के उपयोग में भी संयम बरतने की कोशिश की है। कथा की पंक्तियों, बिम्बों एवं अभिप्रायों को गतियों और दृश्यात्मकता के साथ उन्होंने इस प्रकार गूंथा है कि एक रोचक प्रकार की नाटकीयता की सृष्टि होती है। मुक्तिबोध की भाषा के अनुरूप उन्होंने ‘रेटरिक’ ओजस्विता और कल्पनाशीलता का साहसिक प्रयोग किया है। यहां चर्चित युवा निर्देशक और नाटककार सुमन कुमार की भूमिका को भी रेखांकित किए जाने की जरूरत महसूस होती है, जिन्होंने मुक्तिबोध की कहानी का नाट्यांतरण करते हुए कहानी और नाटक के एक नए ढंग के समावेश की संभावनाओं को उजागर किया है। स्थितियों की हास्यास्पदता और विद्रूपता को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने संवादों को चुटीला और विदग्ध स्वरूप दिया है और पूरी प्रस्तुति के दरम्यान दर्शकों की प्रतिक्रियाएं उनकी मेहनत का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।
हिन्दी रंगमंच के बारे में जब यह कहा जाता है कि इसके ज्यादातर महत्वपूर्ण प्रदर्शन दिल्ली में नहीं बल्कि हिन्दी भाषी प्रदेशों के केन्द्रों में होते हैं तो इस मान्यता के कई ठोस कारण भी हैं। दिल्ली की ठंढी शिल्प निपुणता के मुकाबले छोटे शहरों की जीवंत आत्मीयता में ही रंगकर्मियों को सर्जनात्मक उत्साह की वह चिंगारी प्राप्त होती रही है जो उनके रंग-कार्य को संभावनापूर्ण और उत्तेजक बनाती है। अपने सांस्कृतिक परिवेश और भूमि से जुड़कर ही रंगमंच जिन्दगी की जरूरतों में शामिल हो सकता है, उसमें ताजगी आ सकती है और वह अपनी सर्जनात्मक पहचान कायम कर सकता है। सुदूर बेगूसराय जैसे स्थान से आकर दिल्ली के महानगरीय अहंकार को चुनौती दे सकने वाला नाटक ‘समझौता’ इस बात का प्रमाण है कि हिंदी क्षेत्र के केंद्रों में प्रतिभा, उत्साह और गंभीरता की कमी नहीं है, अगर संकट कहीं है तो वह सुविधाओं के स्तर पर है और इसके लिए वर्चस्व की संस्कृति और राजनीति जिम्मेदार है।
राजेश चन्द्र |
राजेश चन्द्र - कवि, रंगकर्मी, अनुवादक, नाटककार, अभिनेता एवं पत्रकार. पटना रंगमंच से लंबे समय तक जुडाव. विगत दो दशकों से रंगान्दोलनों, कविता, सम्पादन और पत्रकारिता में सक्रिय। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित। समाचार पत्र दैनिक भास्कर . के दिल्ली संस्करण के लिए नियमित लेखन. उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. इनकी यह समीक्षा दैनिक भास्कर में 10 मार्च 2012 को प्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें