रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

रंगमंडलों में अनुशासन का अभाव है | : संदीप भट्टाचार्य


संदीप भट्टाचार्य 
संदीप भट्टाचार्य उन युवा और प्रयोगशील निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने आत्मदाह, मोनीदीपा और संताप जैसे अपने बहुचर्चित नाटकों से यह सिद्ध कर दिया है कि बांग्ला रंगमंच केवल कोलकाता तक सीमित नहीं है। हिजड़ों के जीवन की विडंबनाओं और उनके प्रति समाज के नकारात्मक नजरिये को उजागर करती उनकी नाट्य प्रस्तुति ‘संताप’ पिछले दिनों भारत रंग महोत्सव में दर्शकों के बीच चर्चा का केंद्र बनी। उनसे राजेश चन्द्र की बातचीत:

हिजड़ों के जीवन पर नाटक करने का विचार कैसे आया?
नौ वर्ष पहले जब मेरे हाथ में यह उपन्यास आया तो पढ़ने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि हम खुद को इन्सान कैसे कह सकते हैं। उपन्यास एक ऐसे वर्ग के बारे में था जो समाज के हाशिये पर भी नहीं बल्कि उसके बाहर रहने के लिए अभिशप्त है। 2009 में जब इस नाटक को शुरु किया तो हमारी पहली प्राथमिकता हिजड़ों के जीवन को करीब से देखने, जानने की थी इसलिए हमने उनके साथ मेल-जोल और बातचीत की शुरुआत की। पहले तो उन्होंने हमें  भगा दिया पर धीरे-धीरे एक विश्वास का माहौल बना तो उन्होंने हमें प्रशिक्षण देना स्वीकार किया। अपने गाने, नृत्य आदि हमें सिखाए। उनकी असली जिंदगी की मार्मिक कहानियां भी हमारे काम आईं। काफी कुछ हमने रिकॉर्ड भी किया था। हम सारे अभिनेताओं के साथ वहां जाते थे। उनके तौर-तरीकों को निकट से देखने-सीखने के बाद महीनों उस पर चर्चा चलती रही। इस दौरान हमने पूरा प्रयास किया था कि उनकी संवेदनाओं को कोई ठेस न लगे। अभिनेताओं ने उनकी टिपिकल भाषा, टोनल क्वालिटी को पकड़ने की कोशिश की, उनकी भंगिमाएं, चाल-ढाल, पहनावे आदि को आत्मसात किया। शायद इसी रचनात्मक प्रक्रिया और मेहनत का फल है कि प्रस्तुति हर बार काफी असर छोड़ती है और दर्शक रोते हुए घर लौटते हैं।

थिएटर से आपके जुड़ाव के पीछे क्या कोई पृष्ठभूमि है?
थिएटर मेरे घर से ही शुरु हुआ बचपन से ही। मेरे चाचा गणनाट्य संघ में थे और चाची भी। उनके कारण बचपन से ही एक वातावरण मिला। मेरे बड़े भाई ने भी उनके प्रभाव में थिएटर शुरु किया। उनका एक नाट्य दल भी था। मैं अक्सर वहां रिहर्सल देखता और घर में अभ्यास करता। स्कूली जीवन में थिएटर से जुड़ाव तो हो चुका था पर स्नातक होने के बाद ही मैं पूर्णकालिक रंगकर्मी बना। 83-84 में एनएसडी रंगमंडल की एक प्रस्तुति बहरामपुर आई थी जिसमें मेरे बड़े भाई का प्रयास रहा था। उस वक्त जो लोग रंगमंडल में थे वे आज बालीवुड में  हैं, जैसे रघुवीर यादव, मनोहर सिंह, उषा गांगुली, उषा बनर्जी जैसे लोग। उनके द्वारा की गई जसमा ओड़न और आथेलो की प्रस्तुति ने पहली बार यह अहसास कराया कि थिएटर क्या है। मैंने तय कर लिया कि यही करना है। 1990 में रविन्द्र भारती विश्वविद्यालय कोलकाता में स्पेशल ऑनर्स  के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया पर डेढ़ वर्ष बाद ही उसे अधूरा छोड़ कर एनएसडी आ गया। 94 में एनएसडी से पास करने के बाद 95 में मुझे चाल्र्स वालेस (सी डब्ल्यू आइ टी) की स्कालरशिप मिली तो अध्ययन के लिए लंदन चला गया। वापस आकर अपने शहर में काम करना शुरु किया जो पिछले 17 वर्षों से जारी है।

बहरामपुर जैसी जगह पर काम करते हुए किस तरह की मुश्किलें आईं?
मैंने शुरुआत तो बड़े भाई के नाट्य दल से की पर जल्दी ही उसे छोड़ने की नौबत आ गई। दो वर्ष तक कुछ कार्यशालाओं में भाग लिया पर भूख जो थी वह शांत नहीं हो रही थी। पागलों की तरह घूमता था और दिन-दिन भर एक क्लब में कैरम खेलता था। इसी दौरान पत्नी ने अपना नाट्य दल बनाने के लिए प्रेरित किया। पांच वर्ष के इस काम के दौरान कई ग्रांट भी मिले पर छोटे शहरों की जो एक राजनीति होती है उसने काफी परेशानी पैदा की। तब वहां बारह-तेरह ग्रुप काम कर रहे थे और कलाकारों को पैसा नहीं दिया जाता था। जब मैंने ऐसा किया तो कड़ी प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने मेरे ग्रुप को तोड़ ही डाला। मेरे नाटकों के स्तर ने भी लोगों के लिए परेशानी पैदा की थी। अंततः 2005 में ग्रुप के टूट जाने के बाद मैं फिर से रास्ते पर आ गया। एक वर्ष तक इस हालत में मैं सो भी नहीं पाता था। पत्नी की नौकरी से बहुत मदद मिली। वह एक ऐसा दौर था जब मेरे परिवार के लिए उबले हुए आलू के साथ चावल बड़ी मुश्किल से मिल पाता था। बहरामपुर के दूसरे निर्देशकों ने मदद करने के बजाय इस स्थिति का आनंद ही उठाया। "रंगाश्रम" जिसे मैं आज चला रहा हूं वह एक मृतप्राय संस्था थी 2006 से पहले। मुबारक (मैकबेथ के रूपांतरण) से शुरु हुई यह यात्रा आत्मदाह, मोनीदीपा और संताप तक सतत जारी है।

दिल्ली और बंगाल के रंगमंच में इस एक दशक में क्या बदलाव आया देखते हैं?
आज प्रयोग काफी हो रहे हैं पर दिल्ली का रंगमंच एनएसडी के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहा है। कुछ छोटे-छोटे समूह भी काम कर रहे हैं। केरल में इधर नए प्रयोग सामने आए हैं। एक और चीज है कि नई तकनीकों का प्रयोग रंगमंच में बढ़ा है। अगर बंगाल की बात करूं तो मुझे नहीं लगता कि बहुत विकास हुआ है 70 के दशक के बाद, हालांकि कुछ लोग अपवाद हैं जैसे कि सुमन मुखोपाध्याय। अक्सर बंगाल के रंगमंच का मतलब कोलकाता के रंगमंच से लगाया जाता है पर मुझे लगता है कि कोलकाता के बाहर ज्यादा अच्छा काम हो रहा है। यह बात अलग है कि उसे स्वीकृति नहीं मिल रही है। उनके पास संसाधन नहीं है पर कहने का जो जज़्बा है वह उन्हें विकल्प ढूंढने या प्रयोग करने की ओर अग्रसर करता है।

भारत रंग महोत्सव जैसे उत्सवों की क्या भूमिका है?
उत्सव ही हमें यह मौका दिलाते हैं कि हम एक साथ दुनिया के अच्छे काम को देख पाते हैं। इस मामले में एनएसडी का योगदान सराहनीय है। सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि छोटे शहरों, कस्बों के रंगकर्मियों, छोटे समूहों के रंगकर्मियों को भी जीवित रहने का अवसर मिले। कोलकाता के थिएटर हाल का किराया भी हम जैसे रंगकर्मियों के लिए आसान नहीं है, पर दिल्ली की हालत तो और भी बदतर है। शौकिया रंगमंच अगर खत्म हो गया तो थिएटर खत्म हो जाएगा। कोलकाता में सरकार आडिटोरियम के लिए सब्सिडी देती है जबकि अभी जो किंग लियर वहां हुआ उसके 2.5 लाख के टिकट बिके।

आपके विचार से हमें नाट्य विद्यालय की ज्यादा जरूरत है या रंगमंडलों की?
निश्चित रूप से रंगमंडलों की। आज एनएसडी से इतने लड़के हर वर्ष निकल रहे है तो रंगमंडल ही एक ऐसी जगह हो सकती है जहां उन्हें टिक कर कुछ काम करने का अवसर मिल सकता है। एनएसडी से निकल कर जब हम वास्तविक दुनिया में पहुंचते हैं तो असली संघर्ष शुरू होता है। आज जिस प्रकार रंगकर्मी फिल्मों, टीवी की ओर भाग रहे हैं शायद इससे एक बदलाव आएगा। एक निरंतरता और गुणवत्ता आएगी। अभिनेताओं के व्यक्तित्व का रंगमंच में विकास संभव होगा। इंग्लैंड का थिएटर आज अगर जीवित है तो रंगमंडलों की वजह से ही। हमारे यहां रंगमंडलों में अनुशासन का अभाव है जिसके कारण उनका स्तर गिर गया है। मनोहर सिंह, रघुवीर यादव के दौर में रंगकर्मियों में जो अनुशासन दिखता था आज उसका नितांत अभाव है। आज के अभिनेताओं को फौरन यह लगने लगता है कि वे सब कुछ जान गए हैं। एनएसडी में आते ही वे खुद को विशिष्ट समझने लगते हैं, जबकि मेरी पीढ़ी में भी ऐसा नहीं था। आज तब एनएसडी के बाद लड़कों को सड़क पर घूमते देखता हूं तो दुख होता है। कोई थिएटर में वापस नहीं जाता। लड़के अपने-अपने इलाकों में जाने के बजाए रेपर्टरी में पड़े रहते हैं। उन्हें मालूम ही नहीं होता कि करना क्या है और किधर जाना है। थिएटर करना आज जितना आसान कभी नहीं था। नार्थ ईस्ट (मणिपुर) जैसे इलाकों में थिएटर के नाम पर सरकार बोरे भर-भर कर पैसा दे रही है। एनएसडी से जो भी लड़के पिछले एक दशक में निकले हैं उनकी पहचान ही उससे जुड़कर होती है। वे अपनी क्वालिटी के बारे में चिंता नहीं करते बस टीए डीए के पीछे भागते हैं। वे एक ऐसी चीज को लेकर बाजार में उतरना चाहते हैं जो बिकने लायक ही नहीं होती। अगर आप अपने अंदर काबिलियत पैदा करते हैं तो पैसा अपने आप आता है। इस बात के लिए उदाहरणों की कोई कमी नहीं है।

रंगमंच के भविष्य को लेकर कितने आशान्वित हैं?
रंगकमियों में बेचैनी होगी तभी कुछ नया और सार्थक निकलेगा। मैं तो इस बेचैनी को हमेशा महसूस करता हूं और संताप इसका उदाहरण है। मेरा अपना सपना एक ऐसे थिएटर का है जहां चैबीसों घंटे थिएटर हो। अभी तो हमारे पास अपना रिहर्सल स्थान तक नहीं है। मणिपुर में जब रतन थियम के कोरस रेपर्टरी थिएटर को मैंने देखा तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। मैं बहुत बुरे दौर से गुजर कर आया हूं और भविष्य के प्रति एक सकारात्मक सोच रखता हूं।

राजेश चन्द्र 
राजेश चन्द्र - रंगकर्मी, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, अनुवादक एवं पत्रकार | पटना रंगमंच से लंबे समय तक जुडाव | विगत दो दशकों से रंग-आन्दोलनों, कविता, संपादन और पत्रकारिता में सक्रिय | हिंदी की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख तथा समीक्षाएँ प्रकाशित | वर्तमान में दिल्ली में निवास | दैनिक समाचार पत्र "दैनिक भास्कर" के दिल्ली संस्करण के लिए रंगमंच विषय पर नियमित लेखन | उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है |

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