जावेद अखतर खान |
Javed Akhtar Khan पेशे से अध्यापक और अभिनेता हैं। जो लोग उनके द्वारा लिखित नाटक 'दूर देश की कथा' पढ़े हैं या उसका मंचन होते हुए देखे हैं, वे आज भी पटना के साहित्यिक हलके व गली-नुक्कड़ो पर यह कहते हुए मिल जाएंगे कि उनको लगातार लिखना भी चाहिए था। आज परिकथा( मई-जुन-2012) का युवा रंगकर्म अंक में ' समय-स्थान-समुदाय और युवा रंगकर्म' शीर्षक तले आलेख पढ़ने के तत्काल बाद लगा कि लोग ऐसा क्यों कहते हैं। रंगमंच से जुड़े तमाम लोगों को यह आलेख पढ़ना चाहिए खासकर युवाओं को तो पढ़ना ही चाहिए...प्रस्तुत है आलेख का कुछ अंश--अभिषेक नन्दन.
पहला अंश---यह वही समय है, जब विश्व- पूँजीवाद के मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी पाने की लालसा ने भारतीय मध्यवर्ग को पूरी तरह अपनी जकड़ में ले लिया। अकूत संपदा एकत्र करने की लिप्सा के परिणाम अब सामने आ रहे हैं। इन दो दशको में मनोरंजन- उद्योग इतना विशाल हो गया है कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। अब तक इस उद्दोग का भी क्षैतिज विकाश नही हुआ है। श्रमिक जैसे अपनी भूमि से उखड़कर रोजगार की तलाश में बड़े शहरों का रुख करते हैं, शहरों के बड़े-बड़े निर्माण
-कार्य के लिए दिन रात इनकी खपत होती रहती है, उसी तरह इस मनोरंजन-उद्दोग में खपत बढ़ती गई है।
दूसरा अंश---यह प्रक्रिया कुछ इस तरह चल रही है। देहाती क़स्बों से शहरों में आए युवा अभिनय में कैरियर बनाने के लिए कुछ समय के लिए किसी समूह से जुड़ रहें हैं, फिर वे राष्ट्रीय नाट्य विद्दालय का रुख कर रहे हैं, वहाँ से छँटने पर भारतेंदु नाट्य अकादमी (लखनऊ) या फिर हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्दालय में चल रहे 'नाट्य विभाग' में दाखिला ले रहें हैं या फिर पुणे के 'फिल्म एंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट' में प्रवेश पा रहें हैं जबकि बचे-खुचे अकुशल श्रमिक-रंगकर्मी किसी तरह क्षेत्रीय चैनलों के चक्कर काट रहें हैं और सभी मिलकर यही प्रतीक्षा रहे हैं कि कब उनका टिकट मुंबई के लिए कट जाएगा। यही वजह है कि पिछले दो दशकों में अनेक निजी अभिनय प्रशिक्षण केन्द्र (निजी कोचिंग की तर्ज पर ) खुले हैं, जहां नई तरह की 'ठगी' का कारोबार चल पड़ा है।
तीसरा अंश--- राजनीति के बने- बनाए मुहावरे अब इन युवा रंगकर्मियों को नहीं लुभाते, लेकिन बृहत्तर समाज से जुड़े कई सवाल उन्हें विचलित करते हैं। सूचना - क्रांती के इस युग में वे नई सूचनाओं के साथ लैस हैं। वैश्विक घटनाओं को लेकर उनमें एक सजग उत्सुकता है और नव-साम्राज्यवाद के वे कटु आलोचक हैं। वे नई तरह की राजनीति के पक्षधर हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियों के संकीर्ण दायरे में बंधना उन्हे मंजूर नहीं है। वे उन विषयों को सामने ला रहें हैं जो हिन्दी रंगमंच पर अभी तक सामने नहीं आए थे । ......जाहिर है, युवा रंगकर्मी अपने समय और खुद के अंतर्विरोधों से लड़ते हुए ही अपनी पहचान उभारेगा। यह पहचान अभी बन रही है। इतना स्पष्ट है कि 21 वीं शताब्दी में युवा होता रंगकर्मी हिन्दी रंगमंच का एक नया चेहरा गढ़ने की तरफ़ बढ़ रहा है, लेकिन उसे अभी कई फासले तय करने हैं।
प्रस्तुति - अभिषेक नन्दन
आलेख का शीर्षक है-'समय-स्थान-समुदाय और युवा रंगकर्म',न कि '.......समाज.............'! पहले शीर्षक ठीक करें, मैं नाटक लिख रहा हूँ. -- जावेद
जवाब देंहटाएंजावेद दा अच्छा लगा ये जानके की आप नाटक लिख रहें हैं | जहाँ तक सवाल शीर्षक का है तो इस शीर्षक को लगाने के पीछे हमारा कोई गलत भाव नहीं था,आप कहतें हैं शीर्षक हटा देता हूँ |
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