दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज की ड्रामेटिक सोसाइटी द थर्ड एक्ट ने मशहूर अफसानानिगारसआदत हसन मंटो की कहानियों पर आधारित नाटक मंटो...जो रात हमने गुज़ारी मरके का मंचन किया | एक संयोग कहा है कि मंटो की चार कहानियों पर आधारित यह नाट्य प्रस्तुति अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ( आठ मार्च ) के दिन प्रस्तुत किया जा रहा था | इस नाट्य प्रदर्शन में टिटवाल का कुत्ता, खोल दो, आराम की ज़रूरत और टोबाटेक सिंह नामक कहानियां सम्मलित थीं तथा इब्ने इंशा की मशहूर रचना उर्दू की आखरी किताब का एक अंश तथा ग़ालिब की कुछ पंक्तियों का भी प्रयोग किया गया था | मंटो की कहानियों, चरित्र, घटनाओं व संवादों आदि को आधार मानकर कुछ समसामयिक प्रतीकों व संवादों का भी समावेश प्रस्तुति में देखा जा सकता है |
यह न तो कहानी का रंगमंच था, ना कहानियों का नाट्य रुपान्तरण और ना ही कहानियों की अविकल प्रस्तुति | यहाँ कहानी नैरेट नहीं किया जा रहा रहा था बल्कि कहानियां के प्रभाव ( Impression )को वर्तमान परिवेश में नाटकीय दृश्यों, गतियों और विम्बों के माध्यम से तलाशने और समझने का प्रयास किया जा रहा है | एक किसान का कुत्ते में बदल जाना या बदल दिया जाना, मिट्टी पर पौधे की जगह झंडों की खेती होना, May I help you? के बोर्ड लगाये लोगों द्वारा बलात्कार को अंजाम देना व इन्हीं में से कुछ का इस बलात्कार का विरोध करना और बलात्कार के बाद लडकी का ज़ोर-ज़ोर से हँसकर पुरुषवादी मानसिकता का मखौल उड़ाना, बलात्कार की जगह पर धीरे-धीरे उस लड़की की आदमकद प्रतिमा का खड़ा हो जाना, घुंघरू पहने एक लड़की का मंच पर इधर से उधर भागते रहना आदि कुछ ऐसे ही बिम्ब थे | वर्तमान समय के बिम्बों – प्रतीकों के भरपूर इस नाट्य प्रस्तुति में बटवारे के सन्दर्भ गायब हो गया, ऐसा नहीं है परन्तु ये भी सच है कि यह १९४७ का दस्तावेज़ मात्र नहीं था | मंटो की कहानियों का विषयवस्तु आज भी उतने ही सामयिक हैं |
प्रस्तुति में कहानियां एक दूसरे में गुथी हुई थी | बोर्डर पर ‘टेटवाल का कुत्ता’ चल रहा होता है वही देश में खोल दो तथा आराम की ज़रूरत चल रहा होता है | इस तरीके से एक ही समय में अलग-अलग स्थानों पर क्या चल रहा है इसे प्रस्तुत किया जा रहा था | इस वजह से कहानियां एक दूसरे में समाहित भी थी और स्वतंत्र भी | यह मंचीय स्पेस के प्रयोग की सावधानी के साथ ही साथ किसे, कब और कितना महत्व देना है ताकि देखनेवालों को उलझन न हो की समझ को प्रस्तुत करती है |
मंच पर सिर्फ तीन मेज और मंच के आगे बीचो-बीच में एक बहुत ही छोटा सा मिटटी का ढेर था | नाटक लगभग पांच मिनट लंबी एक विडिओ क्लिप से शुरू होती है जो सम्मान्य जनजीवन से शुरू होकर विभाजन की भयावहता और दर्द रियर फूटेज के माध्यम से दिखाती है | वीडियो देखते हुए इस बात का अंदाज़ा हो जाता है कि आगे हम जो कुछ भी देखने जा रहें हैं वो कपोल-कल्पना नहीं | यहाँ न कुछ वर्जित है ना ही फालतू |
एक घंटे की इस प्रस्तुति में दृश्य छोटे, अर्थपूर्वक तरीके से और काफी विचार- विमर्श के बाद संयोजित किये गए थे, जिसमें स्थिरता,ठहराव, गति, मौन, प्रभाव, भावनाएं आदि का अर्थपूर्ण तालमेल बनाया गया था | जिस प्रकार मंटो की कहानियों की आखरी पंक्ति चौंका देती हैं ठीक वैसे ही प्रस्तुति में घटनाएं कब मेटाफर में बदल जातीं हैं और बनी बनाई मान्यताओं को चुनौती दे जाती है यह देखना एक सुखद अनुभूति थी | यहाँ दृश्य सुन्दर अपने मूल स्वर में सबसे ज़्यादा अमानवीय दृश्य बनकर उभरता है |उदाहरण के लिए हम नाटक के May I help you? नामक दृश्य को रख सकतें हैं |
दर्शक कहानी या नाट्यलेख के साथ ही साथ यह देखने में ज़्यादा मशगूल होतें हैं कि इसे प्रस्तुत (Approach ) कैसे किया गया है | यहाँ नाट्यलेख के साथ नाट्य-युक्तियों के समावेश से साक्षात्कार होने का आनंद है | खोल दो जैसी प्रसिद्ध रचना बिना किसी संवाद के खेला गया | यह एक चुनौती थी जिसे स्वीकार और निर्वाह सफलता पूर्वक हुआ | टोबाटेक सिंह में पागलों के पागलपन को प्रस्तुति बाहरी रूप में प्रस्तुत नहीं करता, ना ही टोपी, मूंछ, दाढ़ी के क्लिशे में फंसता है बल्कि मंच पर चौक के सहारे अपना दायरा खींचकर अपने-अपने काम में मशगूल होतें हैं | ज़रूरत पड़ने पर इन दायरों का अतिक्रमण भी करतें हैं | यहाँ पागल आराम से अपनी ज़िंदगी नहीं गुज़रते बल्कि सवाल पैदा करतें हैं जिसे हम आज भी पागलपन मानतें हैं | मंटो देश, काल, मज़हब आदि से ज़्यादा इंसानियत के रचनाकार हैं यही इंसानियत इस प्रस्तुति का भी मूल स्वर है | इसीलिए इंसानियत के अलावे हर चीज़ यहाँ कटघरे में खड़ा है |
खोल दो का वो एक दृश्य- जिसमें किस प्रकार से रक्षक ही भक्षक बन जाता है उसमें टॉर्च लाईट का कांसेप्ट और उसका प्रयोग बहुत ही उपयुक्त और सुन्दरता के साथ अंधेरे और प्रकाश का अर्थपूर्ण प्रयोग देखा जा सकता था | रेप के स्थान पर चुपचाप प्रतिमा का खड़ा हो जाना | कुत्ते का दर्शकों में भाग जाना फिर वहीं पकड़कर सैनिकों द्वारा मंच पर ले जाना | नाटक के तीसरे हिस्से में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान को लेकर कंफ्यूज़न, टिटवाल का कुत्ता गोलीवारी में मरता नहीं बल्कि गायब हो जाता है, खोल दो में सकीना अपने बलात्कार के बाद ठहाका लगाके समाज के पुरुषार्थ को चुनौती देती है वहीं टोबाटेक सिंह को नाटक के अन्य अभिनेता दर्शकों के लिए गिफ़्ट पैक बनाकर छोड़ जातें हैं वहीं एक कोने में सकीना की आदमकद मूर्ति दिखाती है तो दूसरे कोने में एक टिमटिमाता दीया | इसे चाहें तो आशा की एक किरण कह सकतें हैं |
यह प्रस्तुति मंटो के कहानियों एवं उसके अंत को एक नए सन्दर्भ में परिभाषित करने का जोखिम भी उठाती है | मंटो की कहानियां आज भी ज़िंदा हैं, उनका और उनकी समस्यायों का कोई अंत अभी हुआ ही नहीं है | प्रस्तुति टेटवाल का कुत्ता, खोल दो, आराम की ज़रूरत से गुज़रती हुई प्रस्तुति टोबाटेक सिंह तक पहुंचती है जहाँ आम इंसानों की ही तरह पागलों की अपनी एक दुनिया है - सवाल है, इनके सवालों को पागलपन समझाना सबसे बड़ा पागलपन होगा |
उपलब्ध प्रकाश उपकरणों में अंधेरे और प्रकाश का अर्थपूर्ण प्रयोग करती इस नाट्य-प्रस्तुति में दो स्थानों पर रिकार्डेड संगीत का प्रयोग किया गया है | पूर्वरंग में वीडियो प्रोजेक्शन के दौरान रेक्युएम ऑफ ड्रीम्स नामक फिल्म का थीम सॉंग साथ-साथ बजता है और खोल दो के एक दृश्य में नुसरत फ़तेह अली खान की एक रचना | टेटवाल के कुत्ते का आखरी दृश्य में युद्ध का प्रभाव गोलीबारी के ध्वनि में माध्यम से प्रस्तुत किया गया है जिसमें खोल दो कहानी का पिता अपनी बेटी ( शकीना ) को तलाशता हुआ दिखाई पड़ता है |
प्रस्तुति में नए अभिनेताओं का दल पूरी जीवन्तता, अनुशासन और आपसी तालमेल के साथ अपने-अपने चरित्र के अनुकूल व्यवहार में यथासंभव संलग्न था | अभिनय की बारीकियां अनुभव की मांग करती है पर इन नवोदित अभिनेताओं ने अभिनय के प्रति अपने ईमानदार प्रयास से इस कमी को खलने नहीं दिया | नाटक के निर्देशक पुंज प्रकाश के अनुसार “ नाटक एक सामूहिक कला है | कला का सृजन पीड़ादायक तो होता है पर ऐसी पीड़ा है जिसमें आनंद है | जहाँ आनंद नहीं वहाँ बेहतरीन कला का बीजारोपण होगा, मुझे संदेह है |नया कलाकार उर्जा और समर्पण से लबरेज़ होता है हमें बस इनका सहीं मार्गदर्शन करने की आवश्यकता है | साथ ही ये भी ध्यान रहे कि प्रक्रिया अनुशासित और मजेदार हो उबाऊ और अराजक नहीं | ज्ञान के साथ ही साथ दिशा सही होनी चाहिए | हमारा मूल काम अभिनेताओं को प्रेरित करना हैं आतंकित करना नहीं | वहाँ तो आपकी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती हैं जहाँ लोग आप पर खुले दिल से विश्वास करतें हों | यहाँ का आलम ऐसा ही है | हम सबको एक दूसरे पर भरपूर भरोसा है | यह सक्रिय भागीदारी निभा रहे तमाम लोगों का नाटक है जो किसी भी प्रकार से इस प्रस्तुति में सहयोग कर रहें हैं |”
सोसाइटी के को-ऑर्डिनेटर सुनन्दा सिन्हा के अनुसार “उर्दू के महान लेखक मंटो की 100वीं वर्षगांठ के अवसर पर हमलोग ने इस प्रस्तुति को खेलने का फैसला किया | रंगमंच एक बेहतरीन माध्यम है कोई बात कहने का | हमारे कॉलेज के कुछ कोर्सेज में मंटो को पढाया जाता है बाकी जिन कोर्सेज में बच्चे मंटो को नहीं पढ़ते है नाटक के माध्यम से वो भी मंटो को जानें | इस प्रस्तुति को तैयार करने में पुरी टीम ने बहुत लगन और मेहनत से काम किया है |”
इस प्रयास में प्रवीन कुमार, मुन्ना कुमार पाण्डेय, सौम्य शर्मा ( प्रस्तुति परिकल्पना ), सुनंदा सिन्हा ( को-ऑर्डिनेटर ), चन्दन ओझा ( प्रकाश ), तरुण कुमार ( साउंड ) शैन्की जैन ( प्रोजेक्टर ), ओजस्वी गर्ग ( सहायक निर्देशक व मंच सामग्री ), ऐश नाज़ ( प्रस्तुति सहायक ) के सहयोग से रजनीश चौधरी, चेतन गुप्ता, इन्द्रोनारायण राय चौधरी, मयंक चन्ना, अनामिका कंचनबरस, रितान्शा ग्रोबर, आरुशी हंडा,राजेश कश्यप, कुलदीप चौधरी, फुरकान मल्लिक, दिग्विजय, निखिल बरोडिया, नरेन्द्र सिंह, जोगिन्द्र कुमार, संगम शेखर शर्मा एवं संकेत शेखर अभिनीत यह प्रस्तुति प्रभाववादी (Impressionists ) कला-विधान से प्रभावित होते हुए भी अभिनेता तथा दर्शकों को केन्द्र में रखके आगे बढ़ती है | प्रस्तुति की यही वो सबसे बड़ी ताकत है जिसके कारण रंगमंच का नियमित दर्शक नहीं होने के बावजूद लोग एकाग्र होकर नाट्यकला को सार्थकता की ओर ले जाने में संलग्न हो गये |
प्रस्तुति – नवनीत कुमार एवं द थर्ड एक्ट सोसाइटी . आलेख "रंगविमर्श " ब्लॉग से साभार.
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