रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

कल्चर को जोड़ने वाली नीति की दरकार : वामन केंद्रे


समकालीन रंगमंच का कवर 
....हमारे समाज में बहुत सी ऐसी कलाएं हैं जो लुप्त होने की कगार पर हैं। दूरदराज इलाकों में भाषाएं मर रही हैं, बोलियां लुप्त होती जा रही हैं, पारंपरिक कलाएं अंतिम सांस ले रही हैं। सांस्कृतिक नीति में इस बात की सुनिश्चितता होनी चाहिए कि तमाम योजनाओं का लाभा उन संस्कृतियों को सबसे पहले मिले, जो अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं। आज क्लासिकल गाने वाले देश-विदेश में घूमते नज़र आते हैं। उनका प्रोग्राम भी फाइव स्टार होटलों में भी होता है, मगर लोक गायक झुग्गियों में बदतर हालात में पड़े हैं। उनकी कोई सुध लेने वाला भी नहीं। जि़न्दगीभर कला को नई उंचाई देने वाला लोक कलाकार भी आखिरी क्षणों में इतना तक नहीं जुटा पाता कि आराम से गुजर-बसर कर सके। 
सांस्कृतिक नीति के केन्द्र में आम कलाकार या संस्कृतिकर्मी हो, उसे आगे लाने की सोच हो। सामाजिक स्तर पर भी ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिससे जूझने की जरूरत है। आखिर क्यों, जल्लाद का बेटा ही जल्लाद का काम करे? लावणी करने वाले परिवार की बेटी ही क्यों इस पेशे में आए? श्मशान का जोगी हर बार उसी का बेटा क्यों हो? कई सारी लोक कलाएं ऐसी हैं जिसे छोटी जातियों के लोग परंपरा से निभाते चले आ रहे हैं, मगर उन्हें कोई सम्मान नहीं मिलता। उत्तर भारत के प्रसिद्ध लोक नाट्य नौटंकी में काम करने वाले लगभग सारे कलाकार दलित हैं। तैयम दलिह ही क्यों करे? ज्ञात हो कि ये केरल का एक फार्म है जिसमें दलित को इस लिए प्रसाद के तौर पर दारू पिलाई जाती है क्योंकि वो सिर पर भारी बोझ रखके घटों तक रस्मों को बिना थके निभाता रहे। सांस्कृतिक नीति इंसानियत के नाते इस अन्याय के बारे में गंभीरता से विचार करने वाली और जाति-धर्म से परे हो। इसमें इन कलाओं को भी सम्मान दिलाने की बात हो ताकि बाकी लोग भी इस दिशा में आएं और पारंपरिक दासता से कलाओं को मुक्ति मिल सके।
तमाम पहलुओं को गौर से देखा जाए तो बड़ा ही जटिल विषय है, एक सर्वमान्य सांस्कृतिक नीति का निर्माण। मगर इसकी जरूरत भी है। इससे कलाओं के नैसर्गिक रूप से फलने-फूलने में मदद मिलेगी। इसके जरिए ये सुनिश्चित करना हेागा कि कोई भी संस्कृति कभी अविष्कार में आना चाहे तो वो डरे नहीं और ना ही इससे जुड़े कलाकारों के लिए रोजी-रोटी का कोई संकट सामने खड़ा हो।
इसकी शुरुआत उन्हीं पहाड़, जंगल, गांव और तालुकों से करने की जरूरत है जहां से कलाओं का जन्म हुआ। फिर यहां से चलकर इसे मेट्रो तक आने की जरूरत है। यानी कि Projection of Culture of this country at of all. कल्चरल नीति का एक दूसरा पहलू है कि ऐसी नीति की जरूरत आखिर क्यों है, जबकि पिछले पांच हजार सालों से भी ज्यादा समय ये यहां के लोगों ने बिना किसी सहयोग के संस्कृति को बचाके रखा। ये भी तो हो सकता है कि एकल सांस्कृतिक नीति संस्कृति की उन्मुक्त धारा को ही नियंत्रित करने लगे। इसके खतरे तो हैं मगर हम उस मोड़ पर खड़े हैं कि खतरा मोल लेने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है। कुछ खास तरह की कला और उससे जुड़े कलाकार ही सुख-सुविधा, सम्मान के भागी बनते हैं बाकी गुमनामी में जीने पर विवश हैं। उसे देखते हुए एक काॅमन और सर्वमान्य पालिसी होना बेहद जरूरी है। 
देखा जाए तो ना चाहते हुए भी सांस्कृतिक कर्म पर राज्यों और सरकारों का थोड़ा बहुत नियंत्रण तो है। वही तय करता है कि कौन सा फार्म राज्य का प्रतिनिधित्व करेगा, कौन सी टीम विदेश जाएगी। किन लोगों को पुरस्कार दिया जाएगा। कौन से लोग राज्यसभा में बैठेंगे? किन्हें अकादमियों का कारोबार सौंपा जाएगा आदि-आदि। सरकार नियंत्रण तो रखती है मगर इस दिशा में ढेलाभर भी नहीं खर्च करना चाहती। मैं प्लानिंग कमीशन का मेंबर था। एक बार मैंने सवाल किया कि देश के कुल बजट में कल्चर का कितना हिस्सा है, तो मुझे बताया गया कि प्वाइंट जीरो जीरो जीरो के बाद समथिंग है। जिस देश में संस्कृति के नाम पर एक भी परसेंट बजट हिस्सेदारी नहीं हो वहां कलाकारों की क्या हालत होगी और किस तरही की कल्चरल प्रोग्रेस होगी
बामन केंद्रे 
कल्चरल पालिसी बनने से कम से कम कलाकारों की एक आवाज़ तो सामने आएगी। उनकी हिस्सेदारी बढ़ेगी। इस दिशा में केन्द्रीय स्तर पर हालत बेहद खराब हैं। सरकार के लिए Culture is the last priority. जिसे कोई काम नहीं देना हो उसे कल्चरल मिनिस्टर बना दिया जाता है। भले ही केन्द्रीय स्तर पर कोई काम ना हुआ हो मगर महाराष्ट में पिछले तीन सालों से पालिसी है। यहां का कोई भी विधायक या मंत्री आपको ऐसा नहीं मिलेगा जिसने अपने जीवन में एक बार चेहरे पर सफेदी ना पोती हो। कहने का मतलब है कि स्टूडेंट पीरियड से लेकर बड़े होने तक वो कभी ना कभी नाटक या आर्ट के दूसरे फार्म से जरूर जुड़ा होता है। यही वज़ह है कि जब वो सत्ता में जाते हैं तो उनके दिल में इन कलाओं के प्रति सम्मान करते है । उसके विकास के लिए वो काम भी करते हैं। यशवंत राव जी की कोशिशों का नतीजा है कि यहां पर थिएटर देश के बाकी हिस्सों से बेहतर स्थिति में है। यहां थिएटर पर कोई टैक्स नहीं है। थिएटर की गाडि़यों पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगता है। लेकिन ऐसे कल्चरल सेंसिटव लोग देश की राजनीति में कम ही हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि कला रहे या ना रहे, कलाकार मरे या जीये। ले दे करके राजसभा में कलाकारों को थोड़ी बहुत जगह मिलती है मगर यहां भी राजनीति है। वे फिल्मी कलाकार जो पार्टियों को वोट दिलाने या उनके लिए चुनाव के दौरान भीड़ जुटाने का काम कर सकते हैं आसानी से इस कोटे से सांसद बना दिए जाते हैं। सांसद बनने के बाद ये उस क्षेत्र के बारे में सवाल तक नहीं उठाते जिस क्षेत्र से ये चुनके आए हैं। अव्वल तो रेखा, लता, सचिन जैसी तमाम फिल्मी हस्तियां संसद में पहुंचने के बाद कार्रवाई में भाग ही नहीं लेती। इनकी उपस्थिति औसत से भी नीचे होती है। शबाना आजमी जैसी हस्तियां जो फिल्म और थिएटर से समान तौर पर जुड़ी हैं, उनसे अपेक्षा होती है। ये सामाजिक मुद्दों पर अपनी सक्रियता भी दिखाती हैं मगर इनके मुद्दे कल्चर से जुड़े ना होकर राजनीतिक ज्यादा होते हैं। इस मामले में भूपेन हजारिका और हबीव तनवीर साहब अपवाद रहे हैं। 
कभी सांस्कृतिक कोटे के तहत गए सांसदों को इसके संरक्षण के लिए लड़ते नहीं देखा गया। ऐसा नहीं है कि थिएटर या फिर कल्चर से रुचि लेने वाले लोग ही राजनीति में नहीं हैं। स्व. विलास राव जी, रामकृष्ण हेगड़े के साथ ही शरद पवार, सुशील कुमार शिंदे, लाल कृष्ण आडवाणी जैसे राजनेता कल्चरल एक्टिविटी को पसंद करने वाले रहे हैं। जहां तक महाराष्ट के नेताओं की बात है, राज्य में तो ये खूब बढ़-चढ़के कल्चरल एक्टिविटी में हिस्सा लेते हैं, लेकिन केन्द्र में जाने के बाद कुछ नहीं करते। 
भारत को छोड़ दिया जाए तो दुनिया में तमाम ऐसे देश हैं जहां संस्कृतिकर्म बड़ी इज़्जत की नज़र से देखा जाता है। सरकारें ऐसे लोगों को गोद ले लेती हैं जो इस कार्य को आगे बढ़ाने की दिशा में अग्रसर होते हैं। सरकारी संरक्षण के बाद से उनके लिए रोजी-रोटी की समस्या गौण हो जाती है। लिहाजा, वो अपना काम बखूबी कर पाता है। हमारे यहां ऐसी परंपरा नहीं है। यहां संस्कृतिकर्मी को निजी रिस्क पर आगे बढ़ना होता है। उसके सामने सबसे बड़ी समस्या आजीविका की होती है। अगर हमारे यहां भी ये बात लागू हो जाए तो आर्ट और कल्चर के किसी भी फार्म में उतरने से पहले कलाकार को सोचना नहीं पड़ेगा। और वो बिना किसी डर के अपने फार्म में बेहतरीन प्रदर्शन कर सकेगा। देश में कल्चरल हेरीटेज को समृद्ध बनाने के लिए आर्टिस्ट में नए विश्वास पैदा करने वाली, उनके लिए रोजी-रोटी की समस्या को दूर करने वाली सांस्कृतिक नीति की दरकार है। 
देश के नीति निर्धारकों के लिए कल्चर सबसे लास्ट प्रेयारिटी होती है। इसी का नतीजा है कि लोगों के बीच ह्यूमन इमोशन गायब होते जा रहे हैं। देश में बलात्कार और अपराध की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इसे रोकने में कल्चर की बड़ी भूमिका है। वास्तव में संस्कृति मानसिक आरोग्य का वाहक है। इंसान के बीच में जो भी गुस्सा या फिर बुराई है वो कल्चर के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है। संस्कृतिकर्म में चाहे कलाकार, श्रोता, दर्शक या फिर मैनजेरियल किसी भी रूप में जुड़ा व्यक्ति शांत होगा, किसी भी प्रतिक्रिया में फिजिकल एक्शन से वो हमेशा बेचेगा। इसे देखते हुए कल्चरल एजुकेशन को अनिवार्य बनाने की जरूरत है। पहली कक्षा से लेकर काॅलेज स्तर तक बच्चों को कल्चरल एजुकेशन से जोड़ा जाए तभी उसे अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का ज्ञान हो सकेगा। और बड़े होने पर वो इसके रूपों से जुड़ सकेगा, उसे अपना सकेगा। इससे ह्यूमन इमोशन को बढ़ावा भी मिलेगा। कल्चरल पाॅलिसी की बदौलत सांस्कृतिक समुद्र से कचरा साफ करने, कलाकारों के स्वाभिमान की रक्षा करने कलाओं के अस्तित्व को बचाने में मदद मिलेगी। 

प्रस्तुति : राजेश चन्द्र, सम्पादक, समकालीन रंगमंच. पूरा लेख पढ़ें समकालीन रंगमंच के आगामी अप्रैल-जून अंक में । अंक 22 अप्रैल के बाद उपलब्ध रहेगा।

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