अमितेश कुमार
मध्य मई और मध्य जून के बीच
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (आगे रानावि) रंगमंडल
का ग्रीष्मोत्सव होता है। रानावि के बदले निजाम के तहत
यह पहला ग्रीष्मोत्सव था और लंबी छुट्टी के बाद रंगमंडल प्रमुख भी इस बार काम पर लौटे थे। इस बार महोत्सव में छः प्रस्तुतियां थीं। ये प्रस्तुतियां थीं: अनुराधा
कपूर निर्देशित ‘विरासत’ (नाटककार - महेश एलकुंचवार), के.एम.पणिक्कर
निर्देशित ‘छाया शाकुंतल’ (नाटककार- कालिदास), अनूप त्रिवेदी निर्देशित ‘दफ़ा २९२’ (मंटो की रचना और जीवन
पर आधारित), रमेश तलवार निर्देशित ‘खालिद की खाला’, रंजीत
कपूर निर्देशित ‘आदमजाद और पंचलाईट’ (क्रमशः विजयदान देथा और फणिश्वर नाथ रेणु
की कहानियों पर आधारित), और राजेन्द्रनाथ
निर्देशित ‘जात ही पूछो साधु की’ (नाटककार विजय तेंदूलकर)।
‘विरासत’ रानावि रंगमंडला द्वारा पिछले वर्ष तैयार की गई एक महात्वाकांक्षी
महाकाव्यात्मक प्रस्तुति है। महेश एलकुंचवार के ‘विरासत’ शृंखला के तीनों नाटकों को एक ही प्रस्तुति में पिरोया गया है। नाटक
मराठी ब्राह्मण परिवार की तीन पीढियों के माध्यम से
सामाजिक और सांस्कृतिक दबावों के तहत
बदलती समाजिक सरंचना और इसके प्रभाव में
परिवार की विघटन और संगठन की प्रक्रिया की कथा कही गई है। नाटक स्थानिकता में न्यस्त है लेकिन यह वैश्विक और सार्वभौमिक घटना चक्र को संबोधित करता है। निर्देशक अनुराधा
कपूर ने इस प्रस्तुति के लिये दृश्य परिकल्पक दीपक शिवरामन की सहायता से मराठी
ब्राह्मण परिवार के पारंपरिक घर के आंगन का दृश्य निर्मित
किया है। बीच में आंगन है और चारो ओर बरामदा है।
दर्शक इस बरामदे के कोने में बैठते हैं और परिवार
के भीतर चल रही घटनाओं के निकट साक्षी बनते हैं। इस तरह की दृश्य परिकल्पना की कमजोरी यह है कि यह दर्शकों की बहुत अधिक परवाह नहीं करता। किसी खास स्थान पर बैठे दर्शक को नाटकीय प्रक्रिया पूरी एक साथ नहीं दिखाई पड़ती वह उस कोण से ही देख पाता है। निर्देशक इसे तर्क का जामा पहनाते हैं लेकिन दर्शक के लिये यह कवायद कष्टकर होती है। निर्देशक
ने तीनों नाटकों और उनमें वर्णित समय के बदलावों को
खूबसूरती से दिखाया है। जिसमें परिवार के सदस्य अपनी भूमिका का त्याग करते हैं और
उनकी जगह परिवार का दूसरा सदस्य ले लेता है। पुश्तैनी घर
जर्जर होता जा रहा है और घर
का विचार भी बदल रहा है। संयुक्तता टुट रही है निजता बढ़ रही है। शहर
और गांव का बदलता हुआ संबंध
भी इसमें है तो पीढीगत द्वंद्व भी। गर्मी में रानावि
के खुले प्रांगण में साढे तीन घंटे की प्रस्तुति को देखना दुष्कर हो जाता है।
प्रस्तुति भी वांछित तनाव को कायम नहीं रख पाती और शिथिल पड जाती है।
‘छाया शाकुंतलम’ अधुनिक रंग युक्तियों और संस्कृत रंग शैली के मिश्रण से बनी आधुनिक प्रस्तुति है। कथ्य और प्रस्तुति के वितान को सीमित रखा गया है। नृत्य और गीत प्रस्तुति सरंचना के अहम और खूबसूरत हिस्से हैं। प्रस्तुति शकुंतला और दुष्यंत के संबंध को पितृसत्ता की शक्ति सरंचना के आलोक में रखती है साथ ही शकुंतला को प्रकृति प्रेमी और दुष्यंत को आखेटक बताकर प्रकृति और मनुष्य के बीच के रिश्ते को भी रेखांकित करती है। प्रकृति से दूर होता मनुष्य निरंतर उसके दोहन में लगा है। दुष्यंत के लिये वन आखेट का परिक्षेत्र हैं लेकिन शकुंतला के लिये उसकी रिहाईश है। इस रिहाइश में दुष्यंत का प्रवेश ही शकुंतला और वन प्रदेश की अस्त व्यस्तता का कारण बन जाता है।
अनूप त्रिवेदी निर्देशित प्रस्तुति ‘दफ़ा २९२’ रानावि रंगमंडल की हालिया प्रस्तुत बेहतरीन प्रस्तुति में से रही है। यह प्रस्तुति मंटो के जीवन को उनकी ही कहानियों के माध्यम से खोलती है, सादे रंगमंच पर ध्वनियों, पात्रों और रेशमा की गाये गज़लों के जरिये वातावरण सृजित किया गया है। यह प्रस्तुति अपनी परिकल्पना से सिद्ध करती है कि निर्देशकीय दृष्टि और कुछ कहने का जज्बा अगर निर्देशक के पास है तो न्यूनतम संसाधनों से ही उम्दा प्रस्तुति तैयार की जा सकती है।
रमेश तलवार निर्देशित ‘खालिद की खाला’ रानावि रंगमंडल की सबसे ताजा प्रस्तुति है। रमेश तलवार ने अपने द्वारा निर्देशित इस प्रस्तुति को रानावि रंगमंडल के लिये दोबारा तैयार किया है। यह व्यासायिक दृष्टि से तैयार की गई हास्य प्रस्तुति है। कथा कमल हासन अभीनित ‘चाची ४२०’ और गोविंदा अभीनित ‘आंटी नंबर वन’ से मिलती है। जिसमें दो दोस्त अपने ही एक दोस्त को अपनी प्रेमिकाओं की खातिर अपनी खाला बना लेते हैं। विपरित लिंग का वेश धारण करने से उपजा हास्य ही इस प्रस्स्तुति के मूल में है, जो रंगमंच के लिहाज से पूरानी मालूम पड़ती है। कमजोर टाइमिंग, हिंदी और उर्दू पर पकड़ के अभाव में हास्य उत्पन्न नहीं हो पाता। रंगमंडल के द्वारा की जाने वाली प्रस्तुतियों के कथ्य के लिहाज से भी यह प्रस्तुति कमतर है।
‘आदमजाद और पंचलाइट’ रंजीत कपूर की शैली में रचित प्रस्तुति है जिसमें दर्शकों का पूरा ध्यान रखा जाता है और उन्हें मनोरंजन के साथ दर्शन भी दिया जाता है। रंजीत कपूर आदमजाद में विजयदान देथा की कहानी के साथ न्याय करते हैं जबकि पंचलाइट में वे कहानी के मूल स्वर को पकड़ने में असमर्थ रहे हैं। ‘पंचलाइट’ का भाषाई टोन और सामाजिक परिवेश को भी वे नहीं पकड़ पाये हैं, दोनों कहानियों की सरंचना में परिवर्तन किया गया है।
‘जात ही पुछो साधु की’ राजेंद्रनाथ निर्देशित प्रस्तुति है जो दिल्ली रंगमंच की बेहद चर्चित प्रस्तुतियों में से एक है। राजेन्द्रनाथ अपने समूह अभियान के लिये लंबे अरसे तक इसे प्रस्तुत करते रहे जिसमें एस।एम।जहीर केन्द्रीय भूमिका में रहते थे। रंगमंडल में उन्होंने अपनी ही इस प्रस्तुति को दोबारा तैयार किया है। इसकी लोकप्रियता अभी भी बरकरार है। जबकी एक बार फ़िर केन्द्रीय भूमिका का आभिनेता बदल दिया गया और लगभग पूरी कास्ट भी बदल चुकी है। इस प्रस्तुति की कमजोरी यह है कि सामाजिक व्यंग्य का अहम पहलू प्रस्तुति से नदारद है और हास्य हावी हो गया है।
प्रस्तुतियों में ‘दफ़ा २९२’, ‘विरासत’ और ‘आदमज़ाद और पंचलाइट’ ही नई परिकल्पित प्रस्तुतियां हैं बाकी तीनों प्रस्तुतियां निर्देशकों द्वारा अपने द्वारा तैयार प्रस्तुति का दोबारा निर्माण है जिसमें कोई नवीन परिकल्पना नहीं है। ये सभी प्रस्तुतियां जिस एक तत्व के कारण कमजोर पड़ती है वह है योग्य अभिनेताओं का अभाव। और इस अभाव का कारण है कि रंगमंडल की सरंचना और रानावि प्रशासन के पास रंगमंडल संचालन की भविष्योन्मुखी दृष्टि और इच्छाशक्ति का अभाव। रंगमंडल में अभिनेताओं का चयन छः साल के लिये ही होता है। रंगमंडल में वैसे तो देश भर से अभिनेता रखे जा सकते हैं लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा रानावि स्नातक ही भर देते हैं। पेशेवर अभिनेताओं की उपलब्ध्ता के बावजूद रंगमंडल बेहतर अभिनेता नहीं चुन पाती। रंगमंडल में अभी कोई भी अभिनेता को आप स्तरीय नहीं कह सकते, कुछ हैं भी तो उनको उनकी क्षमता के अनुरूप भूमिका नहीं मिलती। अभिनेताओं के चयन और उनको विभिन्न श्रेणियों में अनुबंध करने में पारदर्शिता का अभाव है। प्रस्तुतियों में भी भूमिका का चयन करने में नातक निर्देशक की नहीं चलती और प्रशासन हस्तक्षेप करता रहा है। लगातार एक ही अभिनेता केंद्रीय भूमिका पाते रहते हैं। अभिनेताओं में इतना लचीलापन नहीं है कि वह भूमिका दर भूमिका अपने अभिनय को बदल सके। वह सभी भूमिका में अपने को ही जीते रहते हैं चरित्र की मौजुदगी दिखा ही नहीं पाते। सोचने वाले और सहज अभिनेताओं को, जो निर्देशकों से सवाल पुछते हैं, हतोत्साहित किया जाता है। विवशता में कई अभिनेताओं में समय से पहले रंगमंडल छोड़ दिया है। रानावि अभिनेताओं के लिये भी रंगमंडल अब कैरियर नहीं रह गया है क्योंकि उतीर्ण स्नातक अभिनेता मुम्बई का रूख करना ज्यादा ठीक समझते हैं। नाटकों का चयन, उनकी प्रस्तुति शैली का चयन, निर्देशकों का चयन इत्यादि अन्य क्षेत्रों में भी रंगमंडल का निर्णय निराश करता है। रंगमंडल की परिकल्पना इसलिये की गई थी कि इसमें सभी तरह की शैलियो के नाटक होंगे और प्रयोग भी होगा। उम्मीद की गई थी कि यह हिंदी रंगमंच के लिये एक पेशेवर माडल बनेगा लेकिन यह उम्मीद इसकी स्थापना के पचास साल बद और धूमिल हो गये हैं।
पिछले कुछ वर्षों से रानावि रंगमंडल संभवतः अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है।
अधिक पीछे ना जाकर विगत पांच वर्षों में हुई प्रस्तुतियों का ब्यौरा ले लीजिये। लेकिन इससे पहले कुछ कसौटियां ले ली जानी चाहिये। एक तो रानावि रंगमंडल की प्रस्तुतियों से उम्मीद की जाती है उनका स्तर अच्छा होगा, संसाधन संपन्ना के कारण पेशेवर रवैया होगा, इनमें टिकाऊपन होगा यानी नाटक लंबे समय तक खेले जाएंगे, इनमें एक सार्वभौमिक अपील हो आदि पेशेवर अभिनेताओं के कारण अभिनय, संवाद की भाषा के बेहतर बरताव, संगीत नृत्य आदि के भी स्तरीय होने की अपेक्षा की जाती है। अतीत के उदाहरण से यह देखा जा सकता है कि रानावि रंगमंडल इन पर खरा उतरता रहा है।
अब इन कसौटीयों पर पिछली कुछ प्रस्तुतियों कसिये।मैं अपनी यात्रा से शुरू करता हूं। रंगमंडल की जो पहली प्रस्तुति मैंने देखी वह थी ‘औथेलो’ (निर्देशक- राज बिसारिया)। नौटंकी शैली पर आधारित इस प्रस्तुति की उम्र कम ही रही। उसके बाद से ‘आचार्य तारतुफ़’, ‘उत्तररामचरित’ (निर्देशक प्रसन्ना), ‘काफ़्का’ (निर्देशक सुरेश शर्मा), ‘राम नाम सत्य है’ (निर्देशक चेतन दातार), ‘डुबी लड़की’ (निर्देशक भानु भारती), ‘ब्लड वेडिंग’, (निर्देशक नीलम मान सिंह चौधरी), ‘हमारा शहर उस बरस’ (निर्देशक- कीर्ति जैन), ‘कामरेड कुंभकर्ण’ (निर्देशक-मोहित ताकलकर), ‘ओल्ड टाऊन’ (निर्देशक रायस्टन एबल), ‘बेगम का तकिया’ (निर्देशक रंजीत कपूर), लैला मजनू (निर्देशक अनिल चौधरी), ‘लिटिल बिग ट्रेजेडी’ (निर्देशक ओवल्याकुली खोदजाकुली), ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ (निर्देशक एम।के रैना), ‘इस्तांबुल’ (निर्देशक मोहन महर्षी), इत्यादि प्रस्तुतियां है। इनमें से ‘बेगम का तकिया’, ‘राम नाम सत्य है’, ‘आचार्य तारतुफ़’, और ‘उत्तररामचरित’ को छोड़कर किसी प्रस्तुति को न तो व्यावसायिक दृष्टि से सफ़ल कहा जा सकता है न ही कलात्मक दृष्टि से। अधिकांश प्रस्तुतियों ने बीच में ही दम तोड़ दिया। जिसमें एक भयावह प्रस्तुति ‘ओल्ड टाउन’ का उल्लेख जरूरी है। जिसे रंगमंच के लिहाज से बिल्कुल अश्लील लागत से निर्मित किया गया था लेकिन जो ना एक रंगमंचीय प्रस्तुति बन सका और न ही एक लाइव इन्स्टालेशन। दर्शकों के लिये वह देखने के दु:स्वप्न में बदल गया। बंद होने वाली प्रस्तुतियों में अच्छी प्रस्तुतियां भी थी क्योंकि रंगमंडल ऐसे अभिनेता नहीं तैयार कर सकी जो रंगमंडल छोड़ गये अभिनेताओं की जगह ले सके या उसकी रूचि नहीं रही कि इन ‘पुराने’ पड़ गये नाटकों को जीवित रखा जाये। लेकिन हैरत तब होती है कि ‘बेगम का तकिया’ और ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ जैसी प्रस्तुति बंद हो जाती है लेकिन ‘जात ही पूछो साधु की’ को लगातार खींचा जाता है। आखिर क्यों?
हाल ही में रानावि रंगमंडल की पचासवीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में उत्सव का आयोजन किया। इस उत्सव में रंगमंडल के सभी कलाकारों को न बुलाकर अपनी मर्जी से प्रशासन ने अपने पसंच के अभिनेता को रानावि खर्चे पर आमंत्रित किया। इस सम्मेलन में एक शाम पुराने नाटकों के अंशों का पुराने अभिनेताओं ने प्रदर्शन किया, उन अंशो के देखने वालों को यकीन हो जाता कि इन अभिनेता के पासंग में खड़े होने वाले अभिनेता अब रंगमंडल के पास नहीं है। इस सम्मेलन में एक सेमिनार भी हुआ जिसका विषय था ;’भारतीय रंगमं पर रानावि रंगमंडल का प्रभाव’। इस विषय की निरर्थकता का उल्लेख विषय पर बोल रहे वक्ताओं ने ही कर दिया। देवेंद्र राज अंकुर ने आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि वह रंगमंडल कैसे राष्ट्रीय प्रभाव छोड़ सकता है जिसके बस एक नाटक की सौ से ज्यादा प्रस्तुति हुई है बाकी किसी की नहीं और वहीं मराठी रंगमंच में सौ प्रस्तुति के बाद ही नाटक को बंद करने या चलाने पर विचार किया जाता है। रंगमंडल जिस पर व्यावसायिक सफ़लता का कोई दबाव नहीं है को कौन बाध्य करता है प्रस्तुति नहीं करने के लिये। इसी सम्मेलन में प्रसन्ना ने रंगमंडल की लानत मलानत करते हुए इसे रानावि स्नातको का पुनर्वास केंद्र घोषित कर दिया ।
किसी भी रंगप्रेमी के लिये विशेषकर हिंदी रंगमंच के लिये यह पीड़ादायक बात है कि जिस रंगमंडल का अतीत इतना उज्ज्वल रहा हो जिसने भारतीय रंगमंच को गर्व करने वाला नाटक दिये हों, और उम्दा अभिनेता दिये हों आज उसकी झोली में इस अतीत के सिवा कुछ भी नहीं। जिसका वर्तमान अपने ही अतीत से मुंह चुरा रहा है। रानावि रंगमंडल हर तरह की विपन्नता झेल रहा है। अब समय आ गया है कि भविष्योन्मुखी दृष्टि के साथ रंगमंडल को पुनर्गठित किया जाये। रानावि के नये प्रशासन की जिम्मेदारियों में एक यह भी है। प्रशासन को रंगमंडल के पचासवीं वर्षगांठा का जश्न मनाने की बजाए आत्मालोचन करनी चाहिये कि रंगमंडल में कैसे प्राण फूंका जा सकता है।
अमितेश
कुमार – युवा
नाट्य समीक्षक व ब्लॉगर. रंगमंच पर नियमित लेखन. संपर्क-amitesh0@gmail.com
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