अपूर्वानंद का यह लेख समकालीन परिस्थितियों में
राजनीति और संस्कृति के रिश्ते की पड़ताल करता है. और इस बात पर चिंता भी व्यक्त
करता है कि जनता के बीच में राजनीति की ठीक ठीक समझ नहीं विकसित कर पाने में
राजनीतिक पार्टियों की विफ़लता का कारण संस्कृतिकर्म से उनका अलगाव और इसके प्रति
उनका नकारात्मक रवैया भी है.
कहीं रिहर्सल के लिए जगह दिला दो’, आफताब
ने कहा। हमारी मुलाकात लंबे अरसे बाद हो रही थी। मैं जानता था कि आफताब इप्टा के
साथ व्यस्त है। इधर कोई नाटक तैयार हो रहा है, यह खबर भी थी।
लेकिन मालूम यह भी था कि इप्टा का अभ्यास पार्टी दफ्तर में चलता रहा है। कई महीने
पहले अजय भवन की सबसे ऊपरी मंजिल पर नगीन तनवीर के साथ एक बातचीत में हिस्सा लेने
भी गया था। इसलिए मैंने पूछा, ‘अजय भवन तो है ही!’ ‘निकाल दिया’, आफताब ने मुस्कुराते हुए कहा,
‘... का कहना है कि पार्टी का दफ्तर राजनीति जैसे गंभीर काम के लिए
है, नाच-गाने की प्रैक्टिस के लिए नहीं।’ ‘औरों ने क्या कहा?’ मेरी जिज्ञासा अबोध बालक जैसी थी,
क्योंकि उत्तर मुझे भी पता था।
‘बहुत शोर होता है, तरह-तरह के
लड़के-लड़कियां आते हैं, जो देखने में ही भरोसे लायक नहीं जान
पड़ते। वे नाचते-गाते हैं, एक ही संवाद को बार-बार बोलते जाते
हैं। इससे दसियों बरस से पार्टी दफ्तर में बने मार्क्सवाद के इत्मीनान के माहौल
में खलल पड़ता है।’ दूसरे कामरेड ने थोड़ी तसल्ली देने को कहा
कि अभी वहां पार्टी क्लास चल रही है। हो सकता है, उसमें
डिस्टर्बेंस के चलते ही मना किया हो। मालूम हुआ कि पार्टी क्लास के सामने इप्टा को
वह नाटक पेश करना है, जो अभी वह तैयार कर रही है। हफ्तों तक
जो विचारधारात्मक बौद्धिक श्रम वे करेंगे, उसके बाद उन्हें
विश्राम देने के लिए शायद इप्टा के नाटक का इंतजाम किया गया हो।
हमारी बातचीत एक नागरिक सम्मेलन के दौरान चाय पीते
हुए हो रही थी। बदले हुए राजनीतिक हालात में अपनी भूमिका तय करने देश भर से
सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इकट्ठा हुए थे। शाम को राजनीतिक दलों के नेताओं का
सत्र था। सबसे नए राजनीतिक दल ‘आम आदमी पार्टी’ के प्रतिनिधि हमारे मित्र प्रोफेसर आनंद कुमार भी थे। दिल्ली के एक संसदीय
क्षेत्र से गायक मनोज तिवारी के हाथों उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। बोलना
शुरू किया उन्होंने, ‘मैं आपके सामने खड़ा हूं, एक नाचने-गाने वाले से हार कर आया हूं।’ इससे बड़ा और
क्या सबूत हो सकता था उनके नाकुछपन का, जिसे बाद में दोहराया
उन्होंने कि दिल्ली की जनता ने उनके ऊपर एक ‘नचनिया-गवनिया’
को चुना है। इस मूर्ख जनता के प्रति उनका क्रोध छिपाए नहीं छिप रहा
था।
प्रोफेसर आनंद कुमार जनता पर तरस खा रहे थे, जो
एक बुद्धिजीवी को छोड़ कर नचनिया-गवनिया को चुन लेती है। लेकिन यही निर्बुद्धि जनता
अभी कुछ महीने पहले उन्हें कंठहार बनाए हुई थी। जनता भी एक मुश्किल है, जो वैज्ञानिक विचारधारा हो या शुद्ध नैतिक राजनीति, कभी
सुलझी नहीं! चुनाव में हार जाने के कारण प्रोफेसर कुमार के क्षोभ का असर उनकी भाषा
पर पड़ा है, देख कर चिंता हुई। ‘नाजायज
औलाद’ जैसे पद का प्रयोग कोई सभ्य समाज में नहीं करता,
लेकिन आनंदजी के मुंह से वह फिसल गया। वे यह भी बोल गए कि सारे
सिविल सोसाइटी संगठनों की जड़ किसी न किसी राजनीतिक दल में है। आयोजन तथाकथित सिविल
सोसाइटी का ही था। अगर उन्होंने आनंद कुमारजी का प्रतिकार नहीं किया तो सभ्यतावश
ही।
नचनिया-गवनिया के प्रति यह घृणा कम्युनिस्ट पार्टी के
नेताओं से लेकर समाजवादियों तक में व्याप्त है। कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर के
बाहर अजय घोष की मूर्ति है, पूरनचंद जोशी की नहीं। पूरनचंद जोशी का नाम
नचनियों-गवनियों के बीच अब भी श्रद्धा से लिया जाता है, हालांकि
उनकी पीढ़ी की आखिरी नटकिया जोहरा सहगल भी अब नहीं रहीं। क्या नाचने-गाने वालों के
बीच कामरेड जोशी की यह लोकप्रियता भी एक वजह है कि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के
इतिहास का जिक्र करते वक्त जोशी का नाम गंभीरता से नहीं लिया जाता?
प्रोफेसर आनंद कुमार अब भले अरविंदवादी हो गए हों, जानते
सब उन्हें लोहियावादी के रूप में हैं। लोहिया कॉफी हाउस में चित्र बनाने वालों,
कविता-कहानी लिखने वालों के साथ गप्पें मारते वे महत्त्वपूर्ण घंटे
खर्च कर देते थे, जो शायद समाजवादी राजनीति को मिले होते तो
वह ‘आम आदमीवादी’ होने से बच जाती!
नचनियों-गवनियों-नटकियों के साथ कविता-कहानी कहने
वालों को भी जोड़ लेना चाहिए। प्लेटो ने बहुत पहले इन्हें अपने आदर्श गणराज्य से
जलावतन करने का हुक्म सुनाया था। बाद में सत्ताधारियों को समझ में आया कि जनता
ताकत की निरंग भाषा को स्वीकार नहीं करती। इसलिए सत्ता सौंदर्यवादी भाषा का प्रयोग
करती है। यह कुनैन को शहद की चाशनी में धोखे से खिला देना भर नहीं है। सत्ता
राजनीतिक हो सकती है, धार्मिक भी। मंदिरों और गिरिजाघरों में शिल्प और चित्र
दिखाई देते हैं और सारे धार्मिक स्थल, मंदिर, मस्जिद या गिरिजाघर, अपने आप में कलाकृतियां हैं। वे
नास्तिकों को भी खींचने की ताकत रखते हैं, तो सिर्फ अपने
स्थापत्य कला के बल पर।
संदेहवादी नेहरू ने अपनी बेटी को खत में लिखा कि नए
जमाने के मंदिरों में उन्हें प्राचीन मंदिरों की भव्यता और उदात्तता नहीं मिलती, जिन्हें
देखने पर लगता है, मानो आकाशोन्मुखी प्रार्थना में
शताब्दियों से लीन हों। सारे धर्मों को गाने-नाचने वालों की जरूरत पड़ी। अगर संगीत
को किसी संप्रदाय ने धर्म से विमुख करने वाला बताया तो अल्लाह की ओर की जाने वाली
पुकार को ही संगीतमय बना दिया। गाते-बजाते सूफियों ने जितने लोगों को इस्लाम की ओर
खींचा होगा उतना शुष्क धर्मोपदेशकों ने शायद नहीं। और सिख धर्म के ककारों में
कृपाण भले हो, उससे अधिक संगीतात्मक मजहब शायद ही कोई हो।
नाचना-गाना या शायरी भावना के क्षेत्र की वस्तु है, राजनीति
को चिंतन या विवेक का मामला माना जाता है। यह सही है कि संगीत की प्रतिभा हो या
कविता की, एक तरह से कुदरती देन है। लेकिन नाचने-गाने वालों
से बेहतर कौन जानता है कि बिना अभ्यास के इस प्रतिभा का कोई मोल नहीं। जिसे दैवी
प्रतिभा कहते हैं, वह इस सतत अभ्यास के बिना बुझी हुई राख रह
जाती है। नाटक करने वालों के साथ आप रहेंगे तो जान पड़ेगा कि उनका काम जितना श्रम
साध्य है, उतना ही बुद्धिसाध्य भी। एक निपुण या कुशल अभिनेता
किसी बड़े बुद्धिजीवी से कम नहीं, हालांकि यह भी सही है कि हर
अभिनेता बौद्धिक नहीं होता जैसे हर कवि दार्शनिक नहीं होता।
कविता, कहानी या नाटक और नाच-गाने
को बौद्धिक कर्म न मानने वाले इस बात पर ध्यान नहीं देते कि इनके मूल में
आत्माभिव्यक्ति और एक-दूसरे की तलाश के साथ परस्परता को गढ़ने की आकांक्षा है। आम
समझ यह है कि संगीत या नृत्य की सफलता दर्शक को सम्मोहित करने में है। एक सजग
संगीतकार या गायक से मिलिए, वह एक ही सही, लेकिन समझदार श्रोता या दर्शक की खोज में रहता है, जो
उसके साथ जागता रहे और उसके अपने स्वर की पहचान कर पाए। खयाल खयाल है और ठुमरी
ठुमरी, लेकिन क्या इसके गायक सिर्फ नकल करते हैं, कुछ सृजन नहीं करते?
कविता, नृत्य, संगीत और नाटक आदि को संस्कृति के अंतर्गत रखा जाता है, राजनीति को नहीं। क्यों? हम राजनीतिक संस्कृति की
बात तो करते हैं, पर राजनीति और संस्कृति के रिश्ते की नहीं।
यह भी विचारणीय है कि सत्ता सबसे अधिक चिंतित रहती है नाच-गाने वालों से। कई बार
स्वांग किसी भी आलोचना से बड़ा आलोचना-धर्म निभाता है। ‘गोदान’
के गोबर ने होली में जो स्वांग भरा उसकी कीमत होरी को चुकानी पड़ी।
चार्ली चैपलीन की हंसी न तो हिटलर को सुहाती थी, न स्वतंत्र
अमेरिका को। जोकरों का हश्र सत्ता के हाथों अक्सर क्रूर ही होता है।
कम्युनिस्ट संस्कृति के प्रति कितने गंभीर रहे हैं, यह साम्यवादी
देशों में मारे या कैद किए गए संस्कृतिकर्मियों की संख्या से मालूम हो जाता है।
भारत के कम्युनिस्ट दलों की परेशानी यह है कि उनके नेता को सुनने उतने लोग शायद
खुद कभी न आएं, जितने इप्टा के नाटक देखने आ जाते हैं। उसी
तरह प्रोफेसर आनंद कुमार क्रोध के मारे यह भूल गए कि नाच-गाने ने नहीं, एक प्रतिद्वंद्वी राजनीति ने उन्हें पराजित किया है। राजनीति के
सांस्कृतिक कर्म न बन पाने की विडंबना के पीछे क्या उसका अबौद्धिक हो जाना तो नहीं?
अमितेश कुमार के ब्लॉग रंगविमर्ष से साभार.
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