मित्रो,
एकाधिक विश्वस्त सूत्रों के अनुसार
संस्कृति विभाग, भारत सरकार
ने रंगमंच के क्षेत्र में दिए जाने वाले सभी प्रकार के अनुदानों (प्रोडक्शन ग्रांट,
इंडीविजुअल ग्रांट, सैलरी ग्रांट और बिल्डिंग
ग्रांट आदि) का मामला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को सौंपने का निर्णय किया है और
हस्तांतरण की यह प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है। इससे पहले भी उसने इसी तरह के
एक आत्मघाती निर्णय के अंतर्गत भारत रंग महोत्सव के आयोजन का काम विद्यालय को सौंप दिया था जिसका दूरगामी प्रभाव अत्यंत
विनाशकारी साबित हो चुका है और यह वार्षिक आयोजन आज भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची, ताक़त के बेजा इस्तेमाल और पक्षपात का
पर्याय बन चुका है।
गौर करने वाली बात है कि राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय मूल रूप से एक प्रशिक्षण संस्थान है पर यह अपने बुनियादी उद्देश्य
में भी अधिकांशतः असफल ही रहा है। यहाँ से प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले अधिकांश
रंगकर्मी आजीविका की तलाश में मुंबई का रुख करते हैं और उनमें से अपवादस्वरूप ही
कोई रंगमंच की तरफ वापस लौटता है। विद्यालय के पास योग्य शिक्षकों का भयावह अभाव
तो है ही, उसके पास रंगमंच के उन्नयन की कोई व्यापक दृष्टि
है इसका भी अब तक उसने परिचय नहीं दिया है।
देश की संस्कृति, संस्कृतिकर्म और कलाकर्म के संरक्षण और प्रोत्साहन का काम सरकार का है और
इसके निर्वहन के लिए उसने कई अकादमियां और क्षेत्रीय केंद्र बना रखे हैं। यह बात
अलग है कि इन संस्थानों ने अब तक कोई बुनियादी काम करने के बजाय अधिकांशतः मेले और
तमाशे आयोजित करने की तरफ ही अपना ध्यान लगाया है। इस देश की लोक विरासतों के
संरक्षण और लोक कलाकारों के प्रोत्साहन की दिशा में इन संस्थानों ने अब तक कोई
उल्लेखनीय पहल की हो, ऐसा कोई उदाहरण मिलना मुश्किल है।
सरकार इन संस्थानों का बजटरी ऑडिट तो कराती है पर आज तक उसने इनके काम काज की
फंक्शनल या सोशल ऑडिट कराने के बारे में क्यों नहीं सोचा यह एक रहस्य ही है।
संस्कृति और कलाओं के संरक्षण का काम
अफसरशाही के बजाय संस्कृति के स्वायत्त संस्थानों और कलाकारों की प्रतिनिधि
समितियों के माध्यम से हो इस बात से किसे ऐतराज हो सकता है, पर
यह काम संगीत नाटक अकादमी जैसी संस्थाओं के जिम्मे होना चाहिए न कि किसी नाट्य
विद्यालय के। विद्यालय का काम शिक्षण-प्रशिक्षण तक सीमित रहना चाहिए। राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय का देश के कला और संस्कृति जगत से, उसके
प्रमुख सवालों से दूर दूर तक कोई संपर्क नहीं रहा है। उसके पास इस बात की शायद ही
कोई जानकारी हो कि देश के सुदूरवर्ती गाँवों क़स्बों में किस प्रकार का रंगमंच हो
रहा है और किन स्थितियों में हो रहा है। उसे तो दिल्ली में होने वाले रंगमंच की भी
शायद ही कोई जानकारी होगी !
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अगर अपने
रंग-प्रशिक्षण के मॉड्यूल को दुरुस्त करने, उसमें भारतीय सामाजिक-राजनीतिक
विषयों और ज्वलंत मुद्दों को शामिल करने, प्रशिक्षण प्राप्त
करने वाले रंगकर्मियों को रंगमंच के क्षेत्र में ही आजीविका भी मिल सके- ऐसे उपाय
करने, देश के सक्रिय नाट्य दलों और रंगकर्मियों को एक मंच पर
लाने तथा उनके बीच एक पुल का निर्माण करने तथा रंगमंच के क्षेत्र में शोध और
दस्तावेजीकरण को प्रोत्साहित करने की तरफ अपना ध्यान लगाता तो न केवल उसकी एक
सार्थक भूमिका बनती बल्कि देश में बेहतर रंगमंच का एक आधार भी तैयार होता परन्तु
उसकी ऐसी कोई मंशा आज तक सामने नहीं आई है। अगर भारत रंग महोत्सव के आयोजन की
ज़िम्मेदारी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के हाथ से निकल जाए तो उसका क्या होगा इस
स्थिति की कल्पना करना मुश्किल नहीं है।
हालत यह है कि यह नाट्य विद्यालय सालों
भर भारत रंग महोत्सव की तैयारियों में ही लगा रहता है। अभी तक इस आयोजन की कोई
पारदर्शी नीति अथवा कार्यप्रणाली विकसित कर पाने में भी वह नाकाम ही रहा है और इस
आयोजन को लेकर आज तक गम्भीर सवाल उठाये जाते रहे हैं। अनुदान बांटने और उसकी
प्रक्रियाओं को संचालित करने के लिए क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पास कोई
आधारभूत ढांचा, कार्य-योजना, आवश्यक
कार्मिक और कोई ऐसी नीति मौजूद है जिसके आधार पर वह यह दावा कर सके कि इन
प्रक्रियाओं के संचालन के लिए वह एक सक्षम संस्था है?
अगर सरकार और उसके संस्कृति विभाग ने
यह स्वीकार कर लिया है कि उनके द्वारा दिए जाने वाले अनुदानों की प्रक्रिया में
बड़े पैमाने पर अनियमितता और भ्रष्टाचार व्याप्त है, या वे
देश के कलाकर्म और रंगकर्म की वास्तविकताओं का पता कर पाने में सक्षम नहीं हैं तो
उन्हें आत्म-मंथन और व्यापक सुधार की पहल करनी चाहिए न कि यह ज़िम्मेदारी भी एक
नाट्य विद्यालय के कन्धों पर डाल देनी चाहिए ताकि बाद में अपना गिरेबान साफ़ और कला-जगत
का गिरेबान कलंकित दिखा सकें।
एक रंगकर्मी के नाते मैं ऐसी कोशिशों
की भर्त्स्ना करता हूँ। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को यह अतिरिक्त ज़िम्मेदारी लेने
से बचना चाहिए क्योंकि वह इसके लिए सक्षम संस्था नहीं है। उसकी दृष्टि का दायरा
अत्यंत सीमित है। अगर अंधे के हाथ में रेवड़ी होगी तो वह फिर फिर अपने को ही देगा !
देश के रंगकर्मियों को पता लगाना चाहिए कि क्या वास्तव में ऐसी कोशिशें चल रही हैं?
अगर यह तथ्य सही है तो इसका पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिए।
राजेश चन्द्र के फेसबुक वाल से साभार.
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