मुन्ना कुमार पांडे का आलेख
भिखारी ठाकुर भोजपुरी अंचल के बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े कलाकार थे। भारतीय पारंपरिक रंगमंच से प्रेरणा ग्रहण करके उन्होंने एक नए किस्म का नाट्य रूप विकसित किया, जिसका एक सूत्र संस्कृत रंगमंच की परंपरा से जुड़ता था तो दूसरा पारंपरिक भारतीय लोकनाट्य से। लेकिन इसमें सबसे अनूठी बात यह थी कि भिखारी ठाकुर ने जो रंगमंच निर्मित किया वह अपने प्रयोगों और लक्ष्य में अधुनातन था। वैसे भी भोजपुर अंचल में भिखारी ठाकुर के पहले कोई राबग परंपरा भी थी यह अपने आप में शोध का विषय है। ऐसे में जब भिखारी ठाकुर का अवतरण इस मंच पर हुआ तो अपनी अनूठी प्रस्तुति शैली कथानक अपार प्रसिद्धि इत्यादि के आधार पर लोगों ने इसे बिदेसिया की उपाधि दे दी और भोजपुरी अंचल का बिदेसिया नाटक एक नए स्वतंत्र नाट्य रूप का रूप ले बैठा।
भोजपुरी समाज और लोकजीवन का दायरा विस्तृत है। न केवल भाषिक क्षेत्रफल के आधार पर बल्कि राजनैतिक आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी। हम बहुत पीछे न जाएँ तो इस अंचल के समाज और लोकजीवन को भिखारी ठाकुर के समय की दो अलग स्थितियों में स्पष्टतः देख सकते हैं । पहला औपनिवेशिक दासता से प्रभावित भोजपुर और दूसरा जीवन के बहुविध (आर्थिक और प्राकृतिक) अभावों से घिरा भोजपुर। श्रीकांत और प्रसन्न चौधरी के शब्दों का सहारा ले तो हम देखते हैं कि 'अनेक विषमताओं से भरा भोजपुरी समाज अंदरुनी और बाहरी दोनों तरह के उत्पीड़नों का साक्षी रहा है। ध्यातव्य हो कि समाज में जितनी भी विषमताएं होती हैं जितने तरह के उत्पीड़न होते हैं उन्हें दूर करने के लिए उतने प्रत्यक्ष किंवा अप्रत्यक्ष आंदोलन और प्रयास चलते रहते हैं।औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन जमींदारों के वर्ग उत्पीड़न के खिलाफ रैयतों/किसानों का वर्ग आंदोलन सामाजिक सोपानों में शीर्ष पर बैठी उच्च जातियों के सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ पिछड़ी/दलित जातियों का सामाजिक आंदोलन इत्यादि- बीसवीं सदी का बिहार इन तीन तरह के आन्दोलनों का महत्वपूर्ण क्रियास्थल रहा है।' इन आन्दोलनों और परिवेश के मध्य भिखारी ठाकुर का उदय हुआ था। भोजपुरी अंचल का मौसमी प्रवास और औरतों, वृद्धों तथा सामाजिक संबंधों की स्थितियां भी उनके सामने थी। इस परिदृश्य में हमें पता लगता है कि भिखारी ठाकुर ने इस पूरे सामाजिक सांस्कृतिक परिघटना को अपनी कला का आधार बना लिया।
स्वभावतः प्रगतिशील रंगकर्मी भिखारी ठाकुर आज भोजपुरी समाज की सांस्कृतिक पहचान बन चुके हैं। पर भिखारी ठाकुर की राह इतनी आसान न थी। प्रगतिशील सोच के सामने यथास्थितिवाद की पोषक शक्तियां कई तरह की दुश्वारियां पैदा करती हैं, भिखारी ठाकुर भी इसके अपवाद नहीं थे। इसलिए उनकी सर्जनात्मक शक्ति जीवन की दुसह्य स्थितियों और बीहड़ों से टकराती हुई विकसित हुई और यही वजह रही कि उनके यहां 'नाच के साँच' होने से ज्यादा 'बात की साँच' होना अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गयी। यही वजह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के हाशिये की जाति के भीतर पैदा हुए और उपेक्षित भिखारी ठाकुर ने उस्तरा और पंडितों की पिछलग्गुइ को छोड़ कलम और अपनी रंग प्रतिभा को अपना हथियार बनाया तथा समाज पोषित सांस्कृतिक चिन्हों, परंपरा आदि को आत्मसात कर कला के साथ न केवल सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान खींचा बल्कि अपने गभरू जवानों के पूरब देश की ओर पलायन के कारणों (श्रमिक संस्कृति) और सामयिक स्त्री पक्ष की भी पड़ताल की। ध्यान देने की बात यह भी है कि इसके लिए भिखारी ठाकुर ने किसी सामाजिक या आर्थिक संस्थान से किसी तरह का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था। उनका प्रशिक्षण स्थल जीवन का रंगमंच था। संभवतः इसलिए उन्होने जो कुछ रचा, वह भोजपुरी के लोक साहित्य की उपलब्धि बन गया है। इसलिए उनके नाटकों तथा अन्य रचनाओं में संस्कृति और लोकजीवन के विविध सन्दर्भों रहन-सहन, कृषि, आचार-व्यवहार, वेशभूषा, पर्व-उत्सव आदि के निदर्शन होते हैं।
भिखारी ठाकुर की सृजनशीलता का आयाम एक तरफ भारतीय रंग-परंपरा (मंगलाचरण, सूत्रधार का प्रयोग आदि) के समृद्ध विरासत से जुड़ता है तो दूसरी ओर लोक प्रचलित दैनंदिन परंपरा से, जो उनकी सामाजिक अनिवार्यता को सुनिश्चित करता है। समग्रतः यह कहा जा सकता है कि भिखारी ठाकुर अपनी रंग-प्रस्तुति, समूची रंग-प्रक्रिया तथा विषयवस्तु में भोजपुरी लोकसंस्कृति के सबसे बड़े महानायक बनकर सामने आते हैं, जिनको नजरअंदाज करके भोजपुरी भाषा और संस्कृति का जातीय इतिहास नहीं लिखा जा सकता।
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