रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि के बहाने : पुंज प्रकाश

आज बिहार के अप्रितम नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, संगठनकर्ता, गायक, नर्तक, गीतकार, संगीतकार भिखारी ठाकुर (18 दिसम्बर 1887 – 10 जुलाई 1971) की पुन्यतिथि है। आज ही दिन उनका देहावसान हुआ था। किसी भी रचनाकार को सबसे पहले किस कसौटी पर परखना चाहिए इस सन्दर्भ में नोवेल पुरस्कर से सम्मानित विश्वप्रसिद्द नाटककार दारियो फो का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कथा है कि A theatre, a literature, an artistic expression that does not speak for its own time has no relevance। मतलब कि वह रंगकर्म, वह साहित्य, वह कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के बारे में बात नहीं करता, उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। अब इसी से हम भिखारी ठाकुर की परख करें तो वो न केवल अपने समय की बात बार-बार और लगातार कर रहे थे बल्कि वो एक कई बार अपने समय से आगे की भी बात करते साफ़-साफ़ देखे जा सकते हैं। वैसे तो अभी तक भिखारी ठाकुर के काम का सम्पूर्ण और वृहद मूल्यांकन होना बाक़ी है लेकीन अगर सही तौर पर गौर से देखें तो तमाम किन्तु परंतु के बावजूद भिखारी ठाकुर आधुनिक बिहारी रंगमंच के पुरोध व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आते हैं। जब भी बिहारी रंगमंच पर कभी गहन और गंभीर चिंतन-मनन या लेखन होगा तब भिखारी ठाकुर निश्चित ही मील का पत्थर ही साबित होंगे। जैसे हिंदी रंगमंच भारतेंदु से पहले और बाद के काल में विभक्त है वैसे ही बिहारी रंगमंच भिखारी ठाकुर से पहले और बाद में विभक्त होगा। ज़रा गहन जानकारी के साथ चिंतन किया जाए तो समझ में आता है कि आधुनिक बिहारी रंगमंच के जनक भिखारी ठाकुर हैं भले ही उनके पास किसी विद्यालय की डिग्री नहीं थी लेकिन उनके काम का दायरा बड़ा व्यापक है। लेकिन अभी तक हमने उन्हें और उनके काम को बड़े ग़ौर अध्ययन ही नहीं किया है, बस उनके कुछ नाटकों तक ही अपने आप को सीमित रखा है और उतने में ही सोचते हैं कि काम हो गया। उनके कार्य का दायरा विशाल है और उसमें अनेकों आयाम हैं। वो एक तरफ़ जहां पारंपरिक हैं तो वहीं दूसरी तरफ प्रयोगवादी भी। एक तरफ जहां धर्म और मर्यादा की बात करते हैं वहां दूसरी तरफ सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रहार किए भीना नहीं रहते। यह उनके तमाम रचनाओं के अध्ययन करने से साफ़-साफ़ नज़र आता है। कुछ बड़े ही छोटे-छोटे लेकिन महत्वपूर्ण पॉइंट्स हैं, कभी इत्मीनान से ग़ौर कीजिएगा। 

भिखारी अपनी बोली/भाषा में रंगकर्म करते हैं। वो अपने नाटकों में अमूमन समाज में व्याप्त वर्तमान के ज्वलंत मुद्दे उठाते हैं और तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए उसके प्रदर्शन करते रहते हैं। वो लोक कला को आत्मसात करते हैं, खासकर संगीत और नृत्य। वो शौक़िया नहीं बल्कि व्यवसायिक और पेशेवर रंगकर्म की नीव रखते हैं, और उसे संचालित भी करते हैं क़ायदे से। वो एक व्यावसायिक और पेशेवर रंगमंडल की स्थापना करते हैं और काम के एवज में कलाकारों को पारिश्रमिक भी देते हैं वो भी तब जब कोई ग्रांट नहीं था। वो किसी एक जगह नहीं बल्कि घूम घूमकर नाटकों का प्रदर्शन करते हैं और अपने नाटकों की ऐसी परिकल्पना करते हैं जो कम से कम संसाधनों में कहीं भी खेल जा सकता है और उसके प्रभाव पर भी कोई बहुत अंतर न पड़े। इसलिए उनके नाटकों को कभी दर्शकों की कमी नहीं हुई बाक़ी जो लोग नाच-नौटंकी को ग़लत पेशा मानते थे वो उनकी अपनी मान्यता है, वैसे लोग आज भी समाज में विद्दमान हैं। वो कलाकारों की तलाश में यहां वहां भटकते थे और बढ़िया कलाकार मील जाने के बाद उसे उप्रशिक्षित भी करने की चेष्टा करते थे। अब प्रशिक्षण पर उनकी कितनी पकड़ और समझ थी यह बात और है। वो लोक युक्तियों, धुनों, भाषा, बोली का इस्तेमाल करके सीधे देखनेवाले से अपने को कनेक्ट करते हैं लेकिन वो बड़ी ही कुशलतापूर्वक इनके अर्थ भी बदलते हैं। वो लोकल होते हुए ग्लोबल रहते हैं, कई नाटक उसके साक्षात उदाहरण हैं। वो लोक में व्याप्त अपसंस्कृति और ग़लत परम्परा से भी टकराते हैं और उसे चुनौती भी देते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि कई बार इसके शिकार भी हो जाते थे। वो एक कुशल प्रशासक, कलाकार के साथ ही साथ कुशल प्रशिक्षक और चिंतक भी हैं। वो लोकप्रिय थे लेकिन लोकप्रिय के प्रभाव में आकर आधुनिक और थोड़ी कड़वी बात बात कहने से भी नहीं डरते। वे लोक का आदर करते हैं लेकिन साथ ही लोक कुरीतियों और परंपराओं से टकराने का साहस भी करते हैं। ऐसा करते हुए वो समाज के उपेक्षितों के दुःख दर्द के सारथी भी बन जाते हैं। वे व्यावसायिक भी है लेकिन साथ ही साथ लोककला के चितेरे भी। उनसे हम बड़ी आसानी से सीख सकते हैं कि आधुनिकता का एक पैर परम्परा में होता है तभी वो देखनेवाले के दिलों तक राज करता है। भिखारी ठाकुर अपनी बोली/भाषा में आधुनिक महागाथा रचने और जन जन तक पहुंचने की ताकत का भी नाम है। वे घुमंतू रंगमंच के धूमकेतु हैं और बताते हैं कि रंगमंच जनता तक बड़ी आसानी से और व्यावसायिक व पेशेवर रूप से कैसे पहुंच सकता है। वे न फ्री में कभी कुछ किया और ना ही किसी से कराया क्योंकि उन्हें पता था कि कलाकार के पास पेट भी होता है। जहां भी गए पहले बयाना लिया फिर नाटक करने की फ़ीस। किसी के भरोसे भी नहीं रहे, इन सरकार, न लोग। हाँ, जो सहयोग किया उसको नकारा भी नहीं। उनकी की लोकप्रियता उनसे पूछिए जिन्होंने उन्हें नाटक करते देखा है, हम उनके पैर की धूल भी हो जाएं जो जन्म सुफल समझिए। इसलिए किसी को भी यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि भिखारी ठाकुर उनकी वजह से हैं बल्कि हो सकता है कि बात एकदम उलट हो कि वो भिखारी ठाकुर की वजह से हों। वैसे भी पुरानी पीढ़ी नहीं पीढ़ी की वजह से नहीं होती, हां यह संभव है कि बाद वाली पीढ़ी कुछ शानदार काम करके पहलेवाली पीढ़ी का नाम थोड़ा और रौशन कर दे लेकिन यह पीढ़ियों का स्वतः आदान-प्रादान हैं बाक़ी सब बातें हवा हैं। भिखारी के नायक आम और मेहनतकश जन हैं। वे कभी-राजा रानी की कहानी नहीं सुनाते बल्कि अपने समय के मेहनतकश मनुष्य की गाथा कह रहे होते हैं। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है कि आपके रचनाओं में किसकी बात होती है और उसका दृष्टिकोण क्या होता है। वैसे भी आधुनिकता और प्रगतिशीलता एक वैचारिक मामला है, तकनीकी नहीं।

भिखारी आज होते तो निश्चित ही इस महामारी से जूझ रहे ग़रीब मजबूर लोगों के लिए गीत, संगीत और नाटक रच रहे होते, उनकी पीड़ा को स्वर दे रहे होते, न कि इतिहास और सत्ता का गुणगान, अपनी उपलब्धियों की व्यक्तिगत व्याख्यान और आत्ममुग्धा का प्रवचन में मग्न हो गए होते। वो आज के इंसान के दुःख दर्द के चितेरे होते और कहते "जगवा भरम में भुलाइल बा ए लोगे," या कुछ अउर। वो अगर किसी प्लेटफॉर्म पर लाइव भी आ रहे होते तो लोक पीड़ा के प्रवक्ता बनाकर। बहुत बातें निकलेगीं अगर ग़ौर किया जाए तो, वरना जो है वो तो है ही। वैसे भिखारी ठाकुर किसी एक खांचा में कभी फिट नहीं बैठते। आप जैसे ही आप उनको पारंपरिक कहते हैं तो उनका प्रयोग सामने आकर खड़ा हो जाता है। प्रगतिशील कहते हैं तो नियतिवाद सामने आ जाता है। स्त्रीवादी कहते हैं तो उनका पुरुषवाद सामने आकर मुंह चिढ़ाने लगता है। शालीन कहते हैं अशालीनता हाथ पकड़कर आपको रोक लेती है। कहने का अर्थ यह कि उनके पास सबकुछ है, वो एकदम पारस न कभी थे ना उन्होंने कभी यह होने का दावा ही पेश किया है। इसलिए उनके बारे में चिंतन करते समय दिमाग को ज़रा सजग और खुला रखने की आवश्यकता है। यहां परम्परा है, प्रयोग है, समकालीन सवालों से लड़ने का माद्दा है, मनोरंजन का रसरंग है, धर्म है, निति है, मनुवाद का विरोध भी है। मतलब वो एक ऐसे वृक्ष हैं जिनकी कई जड़ें हैं और सब जीवित हैं। यहां शुद्धवादी नज़रिया नहीं बल्कि खुला और व्यापक दृष्टी ही काम आनेवाला है और हां अब हमें उनके प्रति आदर से कहे गए किसी भी वैसी उपमा का परित्याग कर देना चाहिए जो उनिवेशिक नज़रिया पेश करती है। उनकी तुलना ना शेक्सपियर से उचित है और न ब्रेख़्त से बल्कि वो जो भी हैं और जैसे भी हैं भिखारी ठाकुर भिखारी ठाकुर ही हैं, बाक़ी कुछ नहीं।
बरजल रहलन बाप महतारी, नाच में तू मत जा भिखारी 
चुपे भागके नाच में जाई, बात बनाके दाम कमाई 

2 टिप्‍पणियां:

  1. भिखारी ठाकुर को देखने-परेखने के लिए एक खुले और विस्तृत नजरिया की जरूरत है। मुझे 1970 के दशक में अपने गाँव के स्टेज पर भिखारी ठाकुर के नाटकों को देखने का मौका मिला है।

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