श्री सत्यनारायण व्यास फ़िलहाल इंदौर में रहते हैं और सूत्रधार नामक संस्था के माध्यम से शहर में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजन लगातार करते रहते हैं। अपने मुम्बई प्रावस 80 से 90 के दशक को एक डायरी के रूप में वो अपने फेसबुक वॉल पर दर्ज़ कर रहें। इसे पढ़ने से आपको मुम्बई के हिंदी रंगमंच पर एक दर्शक और शुभचिंतक का सहज दृष्टिकोण का परिचय प्राप्त होता है। ऐसे लेखन हर शहर में होना ही चाहिए। यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ी काम भी है।
मुम्बई में भाभा परमाणु केंद्र में वैज्ञानिक अधिकारी के रूप में 1967 से 1986 के अपने प्रवास के दौरान कई साहित्यिक व रंगजगत की हस्तियों से परिचय रहा। इस संस्मरण माला के माध्यम से उन सुनहरे दिनों को फिर से याद करने की कोशिश कर रहा हूँ।
मुम्बई में मराठी, गुजराती,अंग्रेजी व हिंदी नाटक होते थे। मराठी नाटक मुख्यतः शिवाजी मंदिर, दादर में, गुजराती नाटक बिड़ला हॉल, भूलाभाई देसाई हॉल में होते थे। हिंदी नाटक यदा-कदा ही होते थे। सबसे पहले ग्रांट रोड़ में ऐतिहासिक अगस्त क्रांति मैदान (जिसमें गाँधीजी ने 1942 में भारत छोड़ो का नारा दिया था) के सामने स्थित तेजपाल हॉल में, उसके बाद दादर स्थित छबीलदास स्कूल के हॉल में। पृथ्वी थिएटर तब तक बना नही था।
तेजपाल हॉल सुंदर लगभग 250-300 की केपेसिटी का हाल था, बादल सरकार के कई नाटक यहीं देखें। ये सभी नाटक सत्यदेव दुबे द्वारा निर्देशित होते थे व अमरीश पुरी हमेशा मुख्य भूमिका में होते थे। मेरे निवास से यह हॉल लगभग 18-20 किलोमीटर होगा और पहुंचने के लिए दो बस बदलने के बाद लोकल ट्रेन के 6 स्टेशनों के बाद लगभग आधा किलोमीटर पैदल भी चलना होता था।नाटक हमेशा रात्रि 8 बजे प्रारम्भ होते थे और समाप्ति के बाद वापस लोकल ट्रेन व दो बसों की यात्रा करके 11 बजे तक घर पहुँचते थे। जान कर ताज्जुब होगा कि 250-300 की केपेसिटी के इस हॉल में इतने उत्कृष्ट नाटकों में मैने 15-20 से ज्यादा दर्शक कभी नहीं देखे।
मुम्बई के उपनगर दादर की भीड़भरी व्यस्त रोड़ की दाहिने तरफ एक छोटी गली के अंत में आलूबड़े की एक प्रसिद्ध दुकान के ठीक सामने तिमंजिला छबीलदास स्कूल था। दिन में यहाँ लडकों व लड़कियों के स्कूल चलते थे।मुम्बई की मराठी नाट्य संस्था-आविष्कार ने इस स्कूल के हॉल को नाट्य मंचन के लिए तैयार किया। पीछे बड़ा बैकड्रॉप, दोनों ओर दो-दो विंग्स, यथोचित लाइट्स, साउंड सिस्टम-पूरी तरह से नाटकों के लिए उपयुक्त। हॉल पूरा एक ही लेवल में था, कोई स्टेज वहाँ नहीं था, आधे हॉल में उपरोक्त सुविधाए जुटा कर मंच व बाकी के आधे पोर्शन में दर्शक। दर्शकों के लिए कोई सुविधा नहीँ, एक दरी बिछी हुई, पीछे स्कूल की दो-चार टूटी-फूटी बेंचे।जिसकी जो मर्जी हो, वहाँ बैठ जाए।
ग्रांट रोड़ के वैभवशाली तेजपाल हॉल के सामने छबीलदास का यह हॉल किसी गरीब की कुटिया जैसा ही था, लेकिन आर्थिक रूप से निश्चित ही सस्ता था, इसलिए अब सत्यदेव दुबे अपने नाटक यहाँ करने लगे। उन्हीं के निर्देशन में यहाँ बादल सरकार, मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड, डॉ शंकर शेष और स्वयं सत्यदेव दुबे के नाटक देखे। सभी नाटक एक से बढ़कर एक, अतिश्योक्ति न लगे तो कहूंगा-विश्व स्तरीय। लेकिन दर्शकों का हाल वहीं-कभी भी दस से ज्यादा नहीं देखे। एक बार तो मुझे याद है, हैदराबाद से मेरे साले आए हुए थे। उन्हें लेकर मैं हॉल पर 8:30 से पहले पहुँच गया, नाटक पूरा देखा और यकीन कीजिए, उस नाटक में हम दो ही दर्शक थे। लेकिन कोटि-कोटि सलाम है उन तमाम कलाकारों को जो पूरी निष्ठा, संजीदगी व प्राण-प्रण से मंचन में जुटे रहते थे। उन्हें जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था कि कितने दर्शक है, दर्शक है भी या नहीं। नाटक के पहले बराबर तीन बार घण्टी बजती थी और तीसरी घण्टी होते ही 8:30 बजे नाटक शुरू हो जाता था। सत्यदेव दुबे खुद हॉल के नीचे कुर्सी टेबल लगाकर टिकिट बेचते थे। टिकिट की दर-4रु।
हिंदी नाटक की इस स्थिति के कई कारण थे। मराठी व गुजराती नाटकों के घटाटोप में हिंदी नाटक मुम्बई में अभी उभर ही रहा था। शुरू में ही हल्के-फुल्के नाटकों की बजाए गम्भीर, चुनौतीपूर्ण, विचारणीय नाटक। गुजराती नाटक अधिकतर पारिवारिक, हास्य नाटक होते थे, खूब पसंद किए जाते थे। मराठी नाटक भी हल्के-फुल्के पारिवारिक होते थे, लेकिन कई बार गम्भीर भी होते थे और उनकी पब्लिसिटी जबरदस्त होती थी। कोई भी नाटक हो, उसके बड़े-बड़े होर्डिंग पूरे शहर के बस स्टॉप्स पर लग जाते थे। फिर शिवाजी मंदिर हॉल, जो छबीलदास से थोड़ी ही दूरी पर था, मराठी नाटकों का गढ़ था। यहां प्रवेश करते ही दीवारों पर वहाँ हो रहे व होने वाले नाटकों के बड़े-बड़े रंगीन पोस्टर्स लगे होते थे। आम दर्शक वहाँ आकर इन पोस्टरों को देखकर तय करता था कि कौन सा नाटक कब देखना है और सामने ही बुकिंग काउंटर (जो दिन भर खुला रहता था) पर जाकर नाटक की एडवांस बुकिंग करवा लेता था। मुम्बई के गुजराती व मराठी समाचारपत्रों में एक पूरा पेज इन नाटकों के बड़े-बड़े विज्ञापनों से भरा रहता था और फिर ये नाटक लगभग प्रति दिन होते थे, हिंदी नाटक बिना किसी पब्लिसिटी के महीने दो महीने में होते थे। हिंदी पेपर में इन के बारे में कोई सूचना नहीं होती थी। ले-देकर टाईम्स ऑफ इंडिया में एक कॉलम--Events Today में शहर में उस दिन हो रहे सभी कार्यक्रमों में दो लाइन में खबर छप जाती थी-
Hindi play-"-----",chhabil das,8:30pm.अब इतनी बारीक सी खबर को पढ़ कर कोई नाटकों का खब्ती ही देखने पहुँचता था। लेकिन सलाम है सत्यदेव दुबे और उनकी पूरी टीम को जो अकेले ही हिंदी नाटकों की इस टिमटिमाती लौ को जिलाए रखे।
हिंदी नाटकों के शुरुआती दौर में सबसे अधिक सक्रिय भूमिका रही-श्री इब्राहीम अल्काजी व सत्यदेव दुबे की।अल्काजी मुम्बई में अपना ग्रुप-थिएटर यूनिट चलाते थे और अपने घर की छत पर नाटक करते थे। साठ के दशक के प्रारंभ में दिल्ली में एन. एस. डी. की स्थापना पर अल्काजी वहाँ निदेशक बन कर चले गए और 15 वर्षो तक इस पद पर सक्रिय रहे। दिल्ली में उन्होंने कई अविस्मरणीय प्रदर्शन किए, जिनमें "तुगलक"व"अंधा युग"की प्रस्तुतियां तो इतिहास में दर्ज हैं। ये दोनों प्रस्तुतियां उन्होंने पुरानी दिल्ली में स्थित किले के खंडहरों में भव्य पैमाने पर की। जान कर हर्ष होगा कि 95 वर्ष के अल्काजी आज भी हमारे बीच उपस्थित है। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखें।
अल्काजी के दिल्ली चले जाने के बाद दुबेजी ने थिएटर यूनिट को सक्रिय रखा और स्तरीय हिंदी नाटकों की मुम्बई में झड़ी लगा दी। दुबे एक पूर्ण समर्पित, जिद्दी व गुस्सैल निर्देशक थे, कभी-कभी अपने कलाकारों पर हाथ भी उठा देते थे। दुबे के सभी साथी उनका अत्यंत सम्मान करते थे, उनकी एक तरह से पूजा करते थे। इस बात की तस्दीक़ अमरीश पुरी की आत्मकथा-"जीवन का रंगमंच" से भी होती हैं जिसमें पुरी ने अपने फिल्मी केरियर के बारे में थोड़ा ही लेकिन अपने रंगमंचीय जीवन के बारे में डूब कर लगभग भक्ति भाव से लिखा है, विशेषकर दुबेजी के बारे में उनकी भावनाएं दिल को छू जाती हैं।
मेरी बड़ी इच्छा थी कि दुबेजी को अपने संस्थान में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करूँ। हिम्मत करके एक रविवार सुबह मैं उनके घर जा पहुँचा। बांद्रा की साहित्य सहवास कालोनी में वे रहते थे। उनके फ्लेट पर पहुँच कर घण्टी बजाई, कुछ देर बाद दुबारा, फिर एक और बार।लगभग 20 मिनट मैं पशोपेश में खड़ा रहा, तभी ऊपर की मंजिल से एक सज्जन सीढ़ियों से उतरते दिखाई दिए-मैने उनसे पूछा कि दुबेजी इसी फ्लेट में रहते है न। उन्होंने हाँ में जवाब दिया। मैने कहा, पता नही क्यों दरवाजा नहीँ खोल रहे। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा-आप तो लगे रहिए, कभी न कभी खोल ही देंगे दरवाजा। बहरहाल और 15 मिनट इंतज़ार के बाद दरवाजा खुला, सामने दुबेजी थे, थोड़े झल्लाए हुए। पूछा-क्या है? मैंने अपना परिचय दिया। उन्होंने अंदर बुलाया। आप यकीन नहीं करेंगे, पूरे फ्लेट में फर्नीचर के नाम पर एक कुर्सी तक नहीं थी। अंदर के कमरे में जमीन पर एक गद्दा बिछा था। उसी पर हम दोनों बैठ कर बातें करने लगे। मैंने अपने संस्थान का परिचय देकर उनसे व्याख्यान का आग्रह किया। वे थोड़ी देर कुछ सोचते रहे, फिर बोले-"I charge for my lectures." मैंने सहमते हुए बताया कि संस्थान सरकारी है और कुछ देने का प्रावधान नहीं है। वे थोड़े सोचते हुए बोले, फिर मैं नहीं आ पाऊंगा। तुम अमरीश पुरी को बुलालो, वह आ जाएगा।
दुबेजी के घर से मैं विले पार्ले स्थित अमरीश पुरी के घर गया। वे बड़े प्रेम से मिले। उन्होंने व्याख्यान की स्वीकृति तो दी पर साथ ही कहा कि मुझे आप यकीन दिलाइए कि आपके लोग नाटक में दिलचस्पी रखते है। मैंने पूछा - कैसे यकीन दिलाना होगा? उन्होंने कहा - कल छबीलदास में मेरा नाटक है, आप अपने लोगों को लाइए। तभी मुझे यकीन होगा। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसा ही होगा।
उस दिन शाम को ऑफिस से आकर मैं कालोनी में अपने मित्रों के घर गया और दूसरे दिन नाटक देखने के लिए चलने का आग्रह किया। मैंने एक बस का भी इंतजाम किया जो कालोनी से सब लोगों को छबीलदास ले जाएगी व नाटक समाप्त होने पर वापस कालोनी लेकर आएगी।बस की सुविधा होने से कईं लोग तैयार हो गए। दूसरे दिन लगभग 45 लोगों को लेकर मैं छबीलदास पहुँचा। इतने लोग जब धड़धड़ाते हुए लकड़ी की सीढ़ियों से ऊपर हॉल में पहुँचे, तो नाटक के कलाकार विंग्स से झांककर देखने लगे। खैर, सबने नाटक देखा नाटक था, बादल सरकार का-सारी रात। मुख्य भूमिका में अमरीश पुरी व सुनीला प्रधान। नाटक सबको पसन्द आया। नाटक के बाद मैं पुरीजी से मिला तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया और कहा - आपने आज कमाल कर दिया। अब आप जब कहे, मैं आपके यहाँ लेक्चर देने आऊंगा। बाद में वे आए भी और बड़ा अच्छा व्याख्यान भी दिया। पुरी जी से बाद में ऐसी मित्रता हो गई कि वे अपने हर नए नाटक की सूचना मुझे फोन करके देते थे और मैं भी अवश्य पहुँचता था।
पुरी जी से यह मित्रता बाद में उनके फिल्मों में प्रवेश करने से बाधित हो गई। वे अत्यंत व्यस्त हो गए, नाटकों में भी उनका आना बंद हो गया। मैंने भी उन्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा।
भारत में परमाणु ऊर्जा के पितृ पुरुष डॉ. होमी जहाँगीर भाभा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के पूर्ण सहयोग से पचास के दशक में परमाणु केंद्र की स्थापना कर दी थी। मुम्बई के अंतिम छोर पर ट्राम्बे (तुर्भे) नामक स्थान पर एक ओर लहराते समुद्र व दूसरी ओर ऊँची-ऊंची पहाड़ियों के बीच स्थित इस सुरम्य केंद्र को पहले AEET (Atomic Energy Establishment, Trombay) के नाम से जाना जाता था, बाद में डॉ. भाभा के आकस्मिक अवसान के बाद इसका नाम BARC (Bhabha Atomic Research Centre) कर दिया गया।
केंद्र बड़े विस्तृत भू-भाग में फैला था। एक लैबोरेटरी से दूसरी में जाने के लिए केंद्र की बस या अपना वाहन इस्तेमाल करना पड़ता था। दक्षिणी छोर पर शहर को जाने वाली रोड़ पर भारत पेट्रोलियम, एसो व इंडियन ऑयल की रिफायनरी के अलावा राष्ट्रीय केमिकल व फर्टीलाइजर के बड़े प्लांट से लगातार निकलती विभिन्न गैसों से यह पूरा इलाका गन्धाता रहता था। उत्तरी छोर पर विशाल आवासीय कालोनी, जिसमें एक बड़ा अस्पताल, 3 सेंट्रल स्कूल, एक अतिथि गृह, कई 20-24 मंजिली बिल्डिंगे थी - आगे रोड़ पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस व थोड़ा आगे राजकपूर का विख्यात आर.के.स्टूडियो था।
दूरदर्शी डॉ. भाभा ने केंद्र में श्रेष्ठ वैज्ञानिकों को लाने के लिए एक ट्रेनिंग स्कूल की स्थापना की थी, जिसके लिए पूरे देश से विज्ञान स्नातकों व इंजीनियरों का चयन किया जाता था। 1967 में M.Sc.करते ही मैने यहाँ अप्लाय कर दिया, इंटरव्यू का बुलावा आया, मैं पहली बार मुम्बई गया और ईश्वर की दया से मेरा चयन हो गया। ट्रेनिंग स्कूल में एक साल तक गहन प्रशिक्षण के उपरांत ट्रेनीज को विभिन्न विभागों में वैज्ञानिक ऑफिसर के रूप में नियुक्त कर दिया जाता था। भारत सरकार के गजेटियर में बाकायदा हमारा नाम क्लास वन गजेटेड़ ऑफिसर के रूप में प्रकाशित हुआ। मेरी नियुक्ति उस विभाग में हुई जिसमें देश के पहले कम्प्यूटर बनाने के प्रोजेक्ट पर काम चल रहा था। अगले साल तक यह कम्प्यूटर बना लिया गया इसका नाम रखा गया-TDC-12। आज से लगभग 50 वर्ष पहले विकसित यह कम्प्यूटर एक बड़ी अलमारी के साईज का था। उस समय के केंद्र के निदेशक डॉ. विक्रम साराभाई ने इसका उदघाटन किया।
केंद्र में पता चला कि हिंदी की तीन संस्थाएं कार्यरत हैं--हिंदी विज्ञान साहित्य परिषद (जो हिंदी में एक पत्रिका -"वैज्ञानिक"का प्रकाशन करती थी), राजभाषा कार्यान्वयन समिति (सरकारी कामों में हिंदी के यथोचित उपयोग को निश्चित करना) व केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद, जिसका कोई निश्चित काम नहीं था। मैंने इसी संस्था को पकड़ा और अपने मित्र विजय मनचंदा के साथ इस संस्था के अध्यक्ष श्री एस.पी.गर्ग साहब से मिला। हम उन्हें यह तथ्य आश्वस्त करने में सफल रहे कि हिंदी के उत्थान के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम भी किए जाने चाहिए। उनकी सहमति से केंद्र में पहली बार 14 सितम्बर 1977 को हिंदी दिवस का आयोजन हुआ, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में हमने तमिलभाषी हिंदी विद्वान डॉ. पी.जयरामन को निमंत्रित किया। इसके बाद तो हिंदी बाद-विवाद प्रतियोगिता, हिंदी एकांकी प्रतियोगिता, हिंदी पुस्तकालय की स्थापना के अलावा शहर के साहित्यकारों के व्याख्यान आयोजित करने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया, जो मेरे 1986 में केंद्र से ट्रांसफर होने तक चलता रहा। केंद्र के नाम की इतनी प्रतिष्ठा थी और वैज्ञानिकों के समूह को सम्बोधित करने का आकर्षण ऐसा था कि वक्ता तुरन्त आने को तैयार हो जाते थे।
1978 में पृथ्वी थिएटर की स्थापना के साथ ही मुम्बई में हिंदी नाटकों की लोकप्रियता बढ़ने लगी। दुबेजी अपने नाटक यही करने लगे। और भी कई नाट्य ग्रुप सक्रिय हो गए। दिनेश ठाकुर का-"अंक", ओम कटारे का - "यात्री", नादिरा जहीर बब्बर का-"एकजुट", नसीरुद्दीन शाह का-"मोटले", मकरन्द देशपांडे का-"अंश" इत्यादि कई ग्रुप्स नियमित नाटक करने लगे। शहर में दूसरे भी कई सभाग्रह तैयार हो गए - नरीमन पाइंट पर NCPA (National Center for Performing Arts) में 2 सभाग्रह, उसी इलाके में ओबेरॉय होटल के समीप भव्य टाटा थिएटर, जिसकी acoustic इतनी परफेक्ट थी कि बिना किसी माइक के स्टेज की आवाज़ अंतिम पंक्ति तक पहुचती थी, माटुंगा में कर्नाटक संघ हॉल इत्यादि। हिंदी नाटकों की जैसे बहार आ गई।
पृथ्वी का सबसे बड़ा प्लस पाइंट उसका जुहू के पॉश इलाके में होना भी था। सामने ही कैफ़ी आज़मी, शबाना व जावेद रहते थे, मेन रोड़ पर ख़्वाजा अहमद अब्बास का निवास था, साइड वाली रोड़ पर अमिताभ बच्चन का -"प्रतीक्षा"बंगला था। और भी कई फिल्मी हस्तियां इस इलाके में रहती थी। फुरसत होते ही शाम को कोई न कोई फ़िल्मी हस्ती पृथ्वी में आ ही जाती थी। दर्शकों में यह भी एक आकर्षण हो गया। कलाकार भी जी जान लगाकर अपने अभिनय के जौहर दिखाने लगे। कई बार इनमें से कोई न कोई कलाकार फिल्मों के लिए चुन लिया जाता था। इस तरह पृथ्वी से कलाकारों के फिल्मों में जाने की भी राह खुली।
उधर छबीलदास अब लगभग वीरान हो चला था। कभी-कभी "आविष्कार" के मराठी प्रायोगिक नाटक या बच्चों के नाटक होते थे यही पर जयदेव व रोहिणी हट्टनगड़ी प्रति वर्ष नाट्य वर्कशाप भी चलाते थे। मुझे इस वर्कशॉप के बारे में पता चला तो पहुँच गया और जयदेव से मिला।उन्होंने मुझे प्रवेश दिया और 9 जुलाई 83 से 8 सितंबर 83 तक यह वर्कशॉप चली। जयदेव नाट्यशास्त्र की बारीकियों के साथ ही खूब एक्सरसाइज व प्रेक्टिकल भी करवाते थे। बहुत कुछ सीखने को मिला। जयदेव और उनकी पत्नी रोहिणी दोनों ही रंगमंच के प्रति पूर्ण समर्पित थे। दोनों ही एनएसडी से पासआउट, रोहिणी अभिनय में पारंगत तो जयदेव निर्देशन में। जयदेव बड़े कड़क, अनुसाशन प्रिय व शार्प निर्देशक थे। वर्कशॉप में कभी-कभी रोहिणी भी आ जाती थी। ऑस्कर अवार्ड में धूम मचा चुकी रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म-"गांधी" तब तक आ चुकी थी और इस फ़िल्म में कस्तूरबा की भूमिका निभा कर रोहिणी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुकी थी, लेकिन वर्कशॉप में आकर वह चुपचाप पीछे एक विद्यार्थी की तरह बैठ जाती थी। बाद में मैने जयदेव व रोहिणी दोनों को अपने संस्थान में वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित भी किया।दोनों ने मिलकर इकठ्ठे ही बड़ा मनोरंजक व्याख्यान दिया।
जयदेव के अनुसाशन की एक झलक बाद में इंदौर में भी दिखी। रवींद्र नाट्य ग्रह में रोहिणी का एकल नाटक था।नाटक के पहले जयदेव ने प्रेस फोटोग्राफर्स को कह दिया था कि नाटक के बीच में कोई फोटो न लें, बाद में जितने चाहे उतने फोटो ले लें। नाटक चल रहा था कि आदत से मजबूर फोटोग्राफरों ने फोटो खींचना शुरू कर दिया।जयदेव तुरन्त अपनी जगह से उठे और कड़कती आवाज़ में उन्होंने रोहिणी को नाटक रोकने को कहा। उन्होंने घोषणा कर दी कि अब नाटक नहीं होगा। फोटोग्राफरों को उन्होंने खूब डांट पिलाई। बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाया जा सका और नाटक पूरा हुआ। इंदौर के दर्शकों के लिए यह एक अविस्मरणीय अनुभव रहा।
अफ़सोस, कैंसर से पीड़ित होकर जयदेव काफ़ी कम उम्र में ही 2008 में शांत हो गए। रोहिणी अभी भी मराठी हिंदी फिल्मों व सीरियलों में व्यस्त है।
Bahut sundar yha janana.
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