अमेरिकन उपन्यासकार है John Michael Green, इन्होंने सन 2012 में एक उपन्यास लिखी Fault in Our Stars नाम से। उपन्यास बड़ा पढ़ा और पसंद किया गया। उन्होंने शेक्सपीयर के नाटक जूलियस सीज़र के एक संवाद से प्रभावित होकर उपन्यास का नामकरण किया था, उस नाटक में कैसियास कहता है -
The fault, dear Brutus, is not in our stars,
But in ourselves, that we are underlings.
सन 2014 में इसी नाम से फिल्म निर्देशक Josh Boone ने एक फिल्म बनाई थी जिसमें Shailene Woodley, Ansel Elgort, and Nat Wolff ने मुख्य भूमिकाओं का निर्वाह किया था, यह फिल्म भी काफी सफल हुई थी। अब इसी फिल्म को हिंदी में बनाया गया है और नाम रखा गया है - दिल बेचारा। इसे निर्देशित किया है रंगमंच से कास्टिंग डायरेक्टर बने और कास्टिंग डायरेक्टर से फिल्म निर्देशक बने मुकेश छबड़ा ने। दोनों जगहों पर फिल्म को फॉक्स स्टार स्टूडियो ने बनाया है लेकिन दोनों का अंतर उतना ही उभरकर सामने आता है जितना रिबॉक और रिबूक में है।
Fault in Our Stars फिल्म में एक ख़ास बात यह भी है कि आप इत्मीनान से चरित्र के भीतर-बाहर की दुनिया में प्रवेश करते हैं, वहां तर्क है, लॉजिक है, साइलेन्स है, ऊब है, गाने हैं लेकिन नाचने के लिए नहीं है, स्थिति, परिस्थिति, कथ्य और भावनाओं को अच्छे उभरने के लिए उचित वक्त दिया गया है, हर बात के पीछे गहरी दृष्टि है, एक-एक फ्रेम अर्थवान और कलात्मकता के पैमाने पर भी खरा उतरता है। एक ख़ास बात जो मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया वो यह कि उसमें एन फ्रैंक के घर को देखते हैं। जिन्हें फ्रैंक के बारे में नहीं पता उसके लिए बस इतनी सी जानकारी कि फ्रैंक वही यहूदी किशोरी है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर के भय से छुपी रहती है और रोज़ डायरी लिखती है, युद्ध समाप्ति के उपरांत वो डायरी प्रकाशित होती है और यह पुस्तक आज भी दुनिया भर में पढ़ी जानेवाली पुस्तकों में शुमार है। फिल्म में इसे देखना एक शानदार उपलब्धि है।
बाक़ी जहां तक सवाल दिल बेचारा का है तो यह फिल्म सुशांत सिंह राजपूत के मौत की वजह से अब एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है, वैसे यह भावनाएं भी आजकल बड़ी सलेक्टिव हो गई हैं और वो वहीं जागती हैं जहां हम उसे जगाना चाहते हैं या कोई बड़ी कुशलता से हमारी भावनाओं की डोर भी अपने हाथ में पकड़ उसे अपनी ज़रूरत के हिसाब से जगाता-सुलाता है; बाक़ी किसी गरघे से लटके कारीगर और अपने खेत के पेड़ से लटके किसान की तस्वीर या आनन-फानन में लॉकडाउन में पता नहीं कितने किलोमीटर पैदल चले लोगों पर हम मौन धारण कर लेते हैं - अमूमन। वैसे भावनाओं का तर्क से कोई सम्बंध नहीं होता, इसलिए इसकी तार्किक समीक्षा करने का अर्थ है फालतू में लोगों की नाराज़गी का केंद्र बनना, क्योंकि उनकी भावना (?) जुड़ी हैं।
भावनात्मक स्तर पर एक कलाकार को श्रद्धांजलि के तौर पर दिल बेचारा देखा जा सकता है, देखना भी चाहिए और देखा भी जा रहा है लेकिन साफ तौर से कहें तो दिल बेचारा दरअसल बेसिरपैर का एक "एडप्टेशन बेचारा" होकर रह जाता है। उपन्यास तो मैंने अभी तक पढ़ा नहीं है लेकिन फिल्म की बात करें तो हॉलीवुड की फिल्म से बहुत कुछ सीधे-सीधे उठा लिया गया है कुछ हिंदी फिल्म का तड़का भी है लेकिन वो अंतरदृष्टि ग़ायब है जो उसे एक शानदार और यादगार फिल्म बना सकती थी, कुछ-कुछ राजेश खन्ना अभिनीति आनंद की तरह। वैसे जो कुछ भी किया गया है इसे रूपांतरण नहीं बल्कि नक़ल कहा जाता है। जब आप किसी भी चीज़ का रूपांतरण करते हैं तो आप पात्रों का नाम बदलते हैं, परिवेश बदलते हैं, स्थान बदलते हैं और साथ ही साथ आपको संस्कृति और एहसास भी बदलना होता है, उसके बाद आपको कलात्मकता के उच्चतम स्तर को भी ध्यान में रखना होता है, न कि केवल सफलता और असफलता को, उसके लिए बौद्धिकता, साफ दृष्टि और उस हिम्मत की दरकार होती है जो तीसरी क़सम बनाते हुए शैलेंद्र के भीतर थी। इसका साक्षात उदाहरण आप गुलज़ार की फिल्म परिचय और हॉलीवुड की फिल्म sound of music देखकर पा सकते हैं, लेकिन समस्या यह है कि भारत में इतना चिंतन करके कलाकारी करनेवाले बहुत ही कम लोग है और उसे देखने, पसंद करने वाले भी कम ही है, इसलिए सबकुछ ज़रूरत से ज़्यादा ग़ैरबौद्धिक कवायत होकर रह गया है। यहां हम केवल कलेक्शन (आर्थिक सफलता) को केंद्र में रखते हैं और सार्थकता को तेल लेने भेज देते हैं। बहुत सारे कथ्य ऐसे होते हैं जो बहुत रिसर्च की मांग करते हैं और थोड़ा केयर की मांग करते हैं और आपसे सफलता असफलता के बने-बनाए आदर्श से हटकर सोचने को भी कहते हैं और अगर आप ऐसा नहीं करते तो दरअसल आप उस कथ्य के साथ न्याय नहीं कर पाएगें। सबकुछ केवल मनोरंजन की दृष्टि से गढ़ा और देखा नहीं जाता, नहीं तो वेटिंग फॉर गोडो का कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा!
इसमें कोई संदेह नहीं कि बतौर अभिनेता सुशांत में बहुत संभावना थी और समय-समय पर उसने इसे साबित भी किया है और आगे वो और प्रखर ही होते लेकिन यह एक पीड़ा का विषय है कि बहुत सारी संभवनाएं समय से पहले समाप्त कर दी जातीं है और उसका निष्कर्ष कुछ ख़ास नहीं निकलता है या निकलने दिया जाता है। अब उसके पीछे कारण चाहे जो भी हो, वो चाहे मीना कुमारी का केस हो, प्रवीण बॉबी का केस हो, दिव्या भारती का केस हो या फिर श्रीदेवी का केस हो, या कोई और केस हो, सब धीरे-धीरे ठंडे बस्ते में चला जाता है और हम भी तत्काल में किसी को नायक-खलनायक या विदूषक बनाकर भूल जाते हैं और अगले शिकार की तलाश में निकल पड़ते हैं - ठहराव एक अवस्था है, जिसके आसपास फटकने तक से हम पता नहीं क्यों बचते ही रहते हैं।
बात केवल उतनी ही नहीं होती जितने की चर्चा होती है बल्कि बात यह है कि यह दुनियां ऊपरी तौर पर जितना चमकदार लगे लेकिन अंदर से उतनी ही सड़ांध है, जहां हर दूसरे के पास पहले के लिए नफ़रत है, साजिश है, अंधेर है। इसमें हम सब शामिल हैं, हम सब भी कोई बहुत दूध के धुले नहीं हैं। हम इसी दुनियां के हिस्से हैं, हमारे ही भीतर यह दुनिया है और हमने ही इसे बनाया या बिगाड़ा है। गुरुदत्त और साहिर ने तो कब का कह दिया कि "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है", हमने कभी इत्मीनान से बैठकर सोचा कि यह किसी दुनिया की बात की जा रही है और क्यों, हमने आजतक इसे माना? बल्कि इसे विभिन्न-विभिन्न तर्कों-कुतर्कों से और और और विकृत ही करते जा रहे हैं - लगातार। बहरहाल, क्या है, क्यों है, कैसा है - हम सब जानते हैं और बहुत अच्छे से जानते हैं, अब इस जानने को कितना मानते हैं यह बात और है और अगर मानते हैं तो बदलाव का कोई सार्थक प्रयास करते भी हैं या कोई हांकता है और हम बस भीड़ बनाकर निकल पड़ते है और इसे ही त्याग और तपस्या मानते हैं या फिर खोखले पेड़ से लिपटकर सोचते हैं कि आंधियां अब हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं? चलिए अब जो है वो तो है ही लेकिन अगर बेहतरीन सिनेमा की बात है तो Fault in Our Stars के साथ जाना ही अच्छा है बाक़ी अगर भावना की बात है तो वो तो सुशांत के साथ रहनी ही चाहिए।
जहां तक सवाल कलाकारी और राजनीति का है तो उसमें किसी का पंखा (फैन) होना, अच्छी बात नहीं है क्योंकि जब आप किसी के पंखे हो जाते हो तो आपके भीतर उसे सही से परखने का हुनर और अंतर्दृष्टि चला जाता है और आप पंखा बनाकर लटका दिए जाते हैं, जिसे करंट के झटके से बस गोलगोल घूमना होता है और हवा छोड़ना होता है और चलानेवाले कोई उसके नीचे बैठकर आनंद लेता है। मैं ख़ुद व्यक्तिगत रूप से एआर रहमान को पसंद करता हूं लेकिन इधर उनको सुनकर लगता ही नहीं कि ये वही बॉम्बे, रोज़ा, ताल, हमसे है मुक़ाबला, स्लमडॉग आदि वाले रहमान हैं, इस फिल्म में भी मुझे उनसे निराशा ही हाथ लगी। वैसे यह भी सत्य है कि रहमान का संगीत धीरे-धीरे असर करता है, तो क्या पता आगे इसका असर हो जाए। अंत में हरिशंकर परसाई की एक पंक्ति याद आ रही है, वो कहते हैं - इस दुनिया में सबसे ज़्यादा ज़िंदगियां शुभचिन्तकों ने तबाह की हैं!
- पुंज प्रकाश
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