रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

मलयालम नाट्य साहित्य और रंगमंच

यद्यपि केरल में अनेक नाट्य कलारूप प्रचलित रहे हैं तथापि मलयालम में नाटक साहित्य का विकास 19 वीं शताब्दी के अंत में ही हुआ था। मलयालम की पहली नाट्यकृति मौलिक न होकर अनुवाद थी। केरल वर्मा वलियकोयित्तंपुरान का ‘अभिज्ञानशाकुन्तळम’ अनुवाद (1882) था। ‘मणिप्रवाळशाकुंतळम’ नाम से अभिहित इस अनुवाद के कारण आगे जाकर मौलिक नाटकों तथा अनूदित नाटकों की रचना में वृद्धि हुई। 

1884 में सी. वी. रामन पिळ्ळै ने ‘चन्द्रमुखी विलासम’ नामक प्रहसन (हास्य नाटक) की रचना की। तदनन्तर अनेक नाटक लिखे गए। यथा - कोडुंगल्लूर कोच्चुण्णि तंपुरान का ‘कल्याणी नाटकम’ (1889), ‘उमा विवाहम्’ (1893), कुञ्ञिक्कुट्टन तंपुरान का ‘लक्षणासंगम’ (1891), ‘गंगावतरणम्’ (1892), ‘चन्द्रिका’ (1892), चंगनाश्शेरी रवि वर्मा का ‘कविसभारंजनम्’ (1892), वयस्करा मूस का ‘मनोरमा विजयम’ (1893), के. सी. केशव पिळ्ळै का ‘लक्ष्मीकल्याणम्’ (1893), ‘राधामाधवम्’ (1893), नडुवत्त् अच्छन नंपूतिरि का ‘भगवद्दूत’ (1892), कण्डत्तिल वरगीस माप्पिळा का ‘इब्रायक्कुट्टि’, तोट्टक्काट्टु इक्कावम्मा का ‘सुभद्रार्ज्जुनम’ (1891), पोळच्चिरक्कल कोच्चीप्पन माप्पिळा का ‘मरियाम्मा’ (1903) आदि। उन दिनों मंच पर तमिल संगीत नाटक धूम मचा रहे थे। नाटक लिखने के आग्रह के कारण कई लोगों ने कलात्मक मूल्य रहित नाटकों का सृजन किया, तो उनकी हँसी बनाने नाटक भी लिखे गए। इस प्रकार लिखे गए हास्य नाटक हैं - मुंशी रामक्कुरुप्प का ‘चक्की चंकरम’ (1893), शीवोळ्ळि नारायणन नंपूतिरि का ‘दुस्पर्शा नाटकम्’ (1900), के. सी. नारायणन नंपियार का ‘चक्की चंकरम’ (1893) आदि। सी. वी. रामन पिळ्ळै ने ‘पण्डत्ते पाच्चन’ (1917), ‘कुरुप्पिल्लाकळरि’ (1909), ‘पापिचेल्लेण्डम पाताळम्’ (1918), ‘डाक्टर्कु किट्टिया मिच्चम्’ (1918) आदि प्रहसन लिखे।


ई. वी. कृष्णपिळ्ळै की देन

पत्रकार एवं कहानीकार के रूप में ख्यात ई. वी. कृष्णपिळ्ळै ने प्रारंभ में नाटक को एक साहित्य विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया था। उनके नाटक हैं - ‘सीतालक्ष्मी’ (1926), ‘राजा केशवदास’ (1929), ‘प्रणयक्कम्मिशन’ (1932), ‘बी. ए. मायावी’ (1933), ‘विस्मृति’ (1932), ‘माया मनुषन’ (1934), ‘विवाहक्कम्मट्टम’ (1935), ‘इरविक्कुट्टिप्पिळ्ळै’ (1934), श्पेण्णरशुनाडु’ आदि। ई. वी. के साथ 1940 तक की कालावधि में अनेक नाटककार हुए। इन्होंने अधिकतर ऐतिहासिक तथा सामाजिक नाटक लिखे।

1930 से 1950 तक की कालावधि में अनेक नाटककारों ने नाट्य साहित्य क्षेत्र में पदार्पण किया। यथा - एन. पी. चेल्लप्पन नायर (मिन्नल प्रणयम्, लेडी डॉक्टर, वनराज कुमारी, प्रणयजांबवान, एटमबोम्ब, लेफ्टनेन्ट नाणी), टी. एन. गोपी नाथन नायर (पिन्तिरिप्पन प्रस्थानम), चेलनाट्टु अच्युत मेनन, एम. पी. शिवदास मेनन, तिक्कोडियन, जगति एन. के. आचारी, कैनिक्करा पद्मनाभ पिळ्ळै (वेलुत्तंपि दळवा, काल्वरियिले कल्पादपम), अप्पन तंपुरान, कप्पना कृष्ण मेनन, वैलोप्पिळ्ळि श्रीधर मेनन, कैनिक्करा कुमार पिळ्ळै, मूर्काेत्तु कुमारन, एन. वी. कृष्ण वारियर, ई. एम. कोवूर, के. पद्मनाभन नायर, वी. कृष्णन तंपी आदि।

नाटक का वसंत

1940 - 1950 दशकों में नाटक लोकप्रिय साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित हो गए और कई नाटक लिखे गए। इस काल में नाटक के क्षेत्र में अनेक प्रयोग हुए और नाट्य लेखन गंभीर साहित्यिक कर्म बन गया। इसी युग में मलयालम के श्रेष्ठ नाटककार साहित्य क्षेत्र में उतरे, जिनकी संख्या काफी है - एन. कृष्ण पिळ्ळै (भग्नभवनम्), कन्यका, बलाबलम्, अनुरंञ्जनम्, मुडक्कुमुतल, अष़िमुखत्तेक्कु), जी. शंकर पिळ्ळै (स्नेहदूतन), सी. एन. श्रीकंठन नायर (नष्टक्कच्चवडम्), के. सुरेन्द्गन (बलि), पुलिमाना परमेश्वरन पिळ्ळै (समत्ववादी), कैनिक्करा कुमार पिळ्ळै (प्रेम परिणामम्, अग्निपरीक्षा), कैनिक्करा पद्मनाभ पिळ्ळै (यवनिका, विधिमंडपम्, अग्निपंजरम्), सी. जे. थॉमस (1128 में क्रैम 27, अवन् वीण्डुम वरुन्नु), टी. एन. गोपी नाथन नायर (पूक्कारि, प्रतिध्वनि, अकवुम पुरवुम, परिवर्त्तनम, मृगम, निलावुम निष़लुम, निष़ल्कूत्तु), इडश्शेरी गोविन्दन नायर (कूट्टुकृषि), एम. गोविन्दन (नी मनुष्यने कोल्लरुत्), एरूर वासुदेव (जीवितम् अवसानिक्कुन्निल्ला), एस. एल. पुरम सदानन्दन (ओरालकूडि कळ्ळनायि), के. टी. मुहम्मद (इत् भूमियाण्, वेळिच्चम विळक्कन्वेषिक्कुन्नु, चुवन्न घटिकारम्, करवट्टा पशु), तिक्कोडियन (जीवितम्, प्रसविक्कात्ता अम्मा), चेरुकाडु (तरवाडित्तम, स्नेहबंधंगल), ओंचेरी (ई वेळिच्चम निंगल्कुल्लताण्), तोप्पिल भासी (निंगलेन्ने कम्यूनिस्टाक्कि, सर्वेक्कल्लु, मुडियनाय पुत्रन), पी. केशवदेव (ञानिप्पा कम्यूनिष्टावुम, मन्त्रियाक्कोल्ले, तस्करासंघम, नी. मरिच्चु, नाटककृत्तु, मुन्नोट्टु, कोल्लनुम कोल्लत्तीं ओन्नु, ओणब्लाउज़, मष़यंगुम कुडयिगुंम), पोन्कुन्नम वर्की (पूजा, प्रेमविप्लवम्, जेताक्कल, स्वर्गम नाणिक्कुन्नु, वषी तुरन्नु, विशरिक्कु काट्टुवेण्डा, ञानोरधिकप्पट्टाण्), तकषी़ शिवशंकर पिळ्ळै (तोट्टिल्ला), वैक्कम मुहम्मद बषीर (कथाबीजम्), एस. के. पोट्टेक्काड (अच्छन), कारूर नीलकंठ पिळ्ळै (मण्णुम पेण्णुम, ती कोण्डु कळिक्करुत), नागवळ्ळि आर. एस. कुरुप (मेवार माणिक्यम्, आभिजात्यम्, पोलिञ्ञ दीपम्, समत्वम्) आदि।

विश्व के अन्य भागों में लिखे गए नाटकों से परिचय ने केरलीय नाट्य रचना पर भी प्रभाव डाला। यदि देखा जाए तो स्वीडिश नाट्यकार हेन्ट्रिक इब्सन् का प्रभाव एन. कृष्ण पिळ्ळै के नाटकों पर पड़ा है। कृष्ण पिळ्ळै के नाटकों ने इस गलत धारणा को निर्मूल साबित किया कि नाटक केवल निरर्थक हसी मज़ाक सुनाकर ठहाका मारने के लिए है। बाद में मलयालम नाटकों पर इब्सन का प्रत्यक्ष - परोक्ष प्रभाव पड़ने लगा। पुळिमाना परमेश्वरन पिळ्ळै ने यूरोपीय एक्स्प्रेशनिज़्म (अभिव्यंजनावाद) और सी. जे. थॉमस ने एपिक नाट्य मंच की परिकल्पनाएँ प्रस्तुत कीं। कम्यूनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक प्रचार के लिए कायंकुळम में स्थापित के. पी. ए. सी. नाट्यसंघ तथा उसके द्वारा मंचन के लिए तोप्पिल भासी द्वारा लिखित नाटकों ने लोकप्रियता के क्षेत्र में नया इतिहास रचा। 1940 - 1960 का कालखण्ड रंगवेदी का वसंतकाल था। इस कालखण्ड में नाट्यसंघ और ग्रामीण नाट्य प्रवर्त्तन ने संयुक्त रुप से नाटक को जनप्रिय बनाया।

आधुनिक रंगमंच

1970 से व्यावसायिक नाटकों के साथ आधुनिक प्रयोगवादी नाटक का भी प्रस्तुतीकरण आरंभ हुआ। नाटक की इस नवीन विधा के उदाहरण हैं -‘तनतु नाटकवेदी’ यानि ‘निजी नाट्यमंच’। कहानी, कविता, उपन्यास और चित्रकला में प्रस्तुत हुई नव धारा के तत्त्वों ने नाटक में भी परिवर्त्तन प्रस्तुत किए। 1970 में प्रचलित नवनाट्यों के प्रमुख प्रयोक्ता थे सी. एन. श्रीकंठन नायर, जी. शंकर पिळ्ळै, एवं कावालम नारायण पणिक्कर आदि। ‘नाटकक्कळरि’ (नाट्य शिक्षणालय) ने भी आधुनिक नाटकों को समृद्ध किया। अगस्त 1967 में जी. शंकर पिळ्ळै के प्रयास से शास्तामकोट्टा में पहला ‘नाट्यकळरि’ की स्थापना हुई। सी. एन. श्रीकंठन नायर कळरि (शिक्षणालय) के निर्देशक थे। इस कलरि को सफल बनाने वाले दूसरे नाटककार थे एस. रामानुजम, पी. के. वेणुक्कुट्टन नायर, जी. अरविन्दन, अय्यप्प पणिक्कर, एम. वी. देवन आदि।

आधुनिक नाट्य साहित्य की उत्कृष्ट रचनाओं का अवलोकन कीजिए - सी. एन. श्रीकंठन नायर का ‘साकेतम्’, ‘लंकालक्ष्मी’, ‘कलि’, जी. शंकर पिळ्ळै का ‘भरत वाक्यं’, ‘बन्दी’, ‘करुत्तदैवत्ते तेडि’, ‘किरातं’, कावालम नारायण पणिक्कर का ‘अवनवन कडम्बा’, ‘दैवत्तार’, ‘साक्षी’, ‘तिरुवाष़ित्तान’, आर. नरेन्द्र प्रसाद का ‘सौपर्णिका’, ‘इरा’, ‘वेळ्ळियाष़्च’, ‘पडिप्पुरा’, वयला वासुदेवन पिळ्ळै का ‘अग्नि’, ‘कुचेलगाथा’, ‘वरवेल्प’, टी. पी. सुकुमारन का ‘दक्षिणायनं’, एन. प्रभाकरन का ‘पुलिजन्मम्’, पी. बालचन्द्रन का ‘पावं उस्मान’, पी. एम. ताज का ‘कडुक्का’, ‘चूळा’, मधुमास्टर का ‘कलिगुला’ आदि।

1980 - 1990 के दशकों में युवा पीढ़ी नाट्यक्षेत्र में सक्रिय हुई। उन्होंने आधुनिक नाटक को समृद्ध बनाने का प्रयास किया। इस श्रेणी में पी. बालचन्द्रन, रामचन्द्रन मोकेरी, डॉ. एस. जनार्दनन, एन. शशिधरन, जयप्रकाश कुळूरु, सतीश के. सतीश, सुधीर परमेश्वरन, सिविक चन्द्रन, के. वी. श्रीजा, एम. सजिता आदि नाम उल्लेखनीय हैं। वर्तमान काल में प्रकाशन क्षेत्र से यह ज्ञात होता है कि साहित्य विधा के रूप में नाटक के पाठकों की संख्या काफी कम है। आज रंगमंच के क्षेत्र में पूर्ववर्ती काल की भाँति व्यावसायिक नाट्यसंघ, क्षेत्रीय कला समितियाँ, ललित कला सहकारी समितियाँ, अमेच्युअर नाट्यसंघ, कैम्पस थियेटर आदि सक्रिय नहीं हैं।

विचार प्रचार का रंगमंच 

जिन नाटककारों ने सामाजिक सुधार के लिए नाटक को हथियार बनाया उनमें प्रमुख हैं - वी. टी. भट्टतिरिप्पाडु, एम. पी. भट्टतिरिप्पाडु, के. दामोदरन, वी. कृष्णन तंपी आदि। नंपूतिरि समाज में प्रचलित कुरीतियों का पर्दाफाश करते हुए वी. टी. भट्टतिरिप्पाडु ने ‘अडुक्कलयिल निन्नु अरंगत्तेक्कु’ (1930) नाम से जो नाटक लिखा वह मलयालम नाटक साहित्य में सुवर्ण अक्षरों में अंकित है। एम. पी. भट्टतिरिप्पाडु का ‘ऋतुमति’ (1939), के. दामोदरन का ‘पाट्टबाक्कि’ (1938) आदि नाटक भी वैचारिक अवधारणा को लिए हुए थे।

1960 - 1970 का काल

1960 - 1970 कालखण्ड की विशेषता यह है कि इस कालखण्ड में व्यावसायिक रंगमंच का विकास हुआ तथा इसी दृष्टि से नाटक रचे गए। इसी काल में सी. एन. श्रीकंठन नायर के प्रसिद्ध ‘रामायण नाटकत्रय’ का प्रथम नाटक ‘कांचनसीता’ (1965) मंचित हुआ। इसी समय जी. शंकर पिळ्ळै के कुछ नाटक मंचित हुए जो आधुनिक रंगमंच में नवीन प्रयोग माने जाते हैं।

1960 - 1970 काल में केरल में अनेक नाट्य संघ प्रचलित हुए। जैसे कि - के. पी. एसी., कोल्लम कालिदास कलाकेन्द्रम, पी. जे. एन्टेनी का नाट्यसंघ, तिरुवनन्तपुरम में कलानिलयम कृष्णन नायर का स्थायी रंगमंच, कोट्टयम में केरल थियेटर्स आदि। तोप्पिल भासी ने के. पी. ए. सी. के लिए अनेक नाटक लिखे (अश्वमेधम, शरशय्या, युद्धकाण्डम, कूट्टुकुडुम्बम और तुलाभारम) जिनमें प्रायः सभी का फिल्मीकरण हुआ। अन्य प्रसिद्ध नाटक हैं कलानिलयम नाटकवेदी के लिए जगति एन. के. आचारि द्वारा लिखित ‘कायंकुळम कोच्चुण्णि’, ‘इळयिडत्तु राणी’, ‘उम्मिणित्तंका’, ‘ताजमहल’ आदि। इसके अतिरिक्त वैक्कम चन्द्रशेखरन नायर का ‘डॉक्टर’, पी. जे. एन्टनी का ‘कडलिरंपुन्नु’, कालडी गोपी का ‘एष़ु रात्रिकळ’ आदि भी प्रसिद्ध हुए। व्यावसायिक रंगमंच के प्रमुख नाटककार माने जाते हैं वैक्कम चन्द्रशेखरन नायर, कालडी गोपी, ए. एन. गणेश, पोन्कुन्नम वर्की, सी. जी. गोपीनाथ, पोन्कुन्नम दामोदरन, के. टी. मुहम्मद, एस. एल. पुरम सदानंदन आदि।

इस काल के व्यावसायिक नाटक एवं नाट्य प्रस्तुति में विशिष्ट महत्व रखने वाले नाटककार और निर्देशक थे श्री. एन. एन. पिळ्ळै। उनके द्वारा मंचित नाटक अत्यन्त लोकप्रिय रहे थे। उनमें से कुछ हैं - ‘आत्मबलि’, ‘प्रेतलोकम्’, ‘क्रोसबेल्ट’, ‘मरणनृत्तम’, ‘वैन ग्लास’, ‘जन्मांतरम्’, ‘ञान स्वर्गत्तिल’, ‘मेहरबानी’, ‘विषमवृत्तम्’, ‘कापालिका’, ‘ईश्वरन अरस्टिल’ आदि। एन. एन. पिळ्ळै ने सामाजिक व्यवहार की मर्यादाओं पर सवाल किया और संवादों को प्रधानता दी तथा नाट्यभाषा में द्वि अर्थक शब्दों का समावेश किया। उन्होंने ‘नाटक दर्पणम्’ नामक नाट्य लक्षण ग्रंथ भी लिखा।

सी. एल. जोस के नाटक अमेच्युअर रंगमंच को पसंद आए। क्षेत्रीय कला समितियों द्वारा उनकी व्यापक स्तर पर प्रस्तुति हुई। इसके अतिरिक्त पी. वी. कुर्याक्कोस, कडवूर जी. चन्द्रन पिळ्ळै, परवूर जॉर्ज, पी. आर. चन्द्रन आदि के नाटकों को भी व्यापक प्रचार मिला।

बाद में जी. शंकरपिळ्ळै आधुनिक रंगवेदी के प्रमुख प्रयोक्ताओं में एक बने। उनके द्वारा लिखे नाटकों में प्रधान हैं - ‘पोय्मुखंगल’, ‘ओलप्पांपु’, ‘पे पिडिच्च लोकम’, ‘कष़ुकन्मार’, ‘रक्षा पुरुषन्मार’। इसके अतिरिक्त सी. एन. श्रीकंठन नायर के ‘मान्यतयुडे मरा’, ‘एट्टिले पशु’ आदि नाटक भी इसी काल में लिखे गए।

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