- महाश्वेता देवी
साहित्य, रंगमंच व कलाओं में शोध-कार्य के लिए जिस श्रम और अनुशीलन दृष्टि की दरकार होती है, उसका बहुधा अभाव दिखता है। ऐसे परिवेश में बांग्ला में प्रकाशित ‘अन्यधारार थियेटर उत्स थेके उजाने’ शीर्षक शोध प्रबंध नई उम्मीद की तरह है।
कभी सुशील कुमार दे ने ‘बांग्ला प्रवादेर अभिदान’ या विनय घोष ने ‘पश्चिम बंगेर संस्कृति’ जैसे गंभीर ग्रंथ रचकर शोधार्थियों के सम्मुख एक नजीर पेश की थी। उसी तरह की गंभीर कृति संप्रति संध्या दे ने दी है। संध्या का यह शोध प्रबंध ढाई दशकों के शोध का परिणाम है।
संध्या ने बांग्ला रंगमंच के 200 वर्षों के प्रामाणिक इतिहास को लिपिबद्घ करने के साथ ही अन्य धारा के ऐतिहासिक नाटकों का गंभीर विश्लेषण भी प्रस्तुत किया है। पेशेवर मंच से लेकर इप्टा के नाटकों, कोलकाता व उसके उपनगरों के थियेटर का समूचा रंग परिदृश्य 428 पृष्ठों की किताब ‘अन्यधारार थियेटर उत्स थेके उजाने’ में उभर आया है।
परिशिष्ट में मन्मथ राय, चिन्मोहन सेहानवीश, तृप्ति मित्र, शोभा सेन, खालेद चौधरी और कुमार रॉय के लंबे-लंबे साक्षात्कार भी दिए गए हैं। संध्या ने इन रंग शख्सियतों से इस तरह के प्रश्न किए हैं कि रंगमंच पर एक नया परिप्रेक्ष्य खुलता हुआ हम महसूस करते हैं।
शोध के दौरान संध्या ने प्रचुर रंग सामग्री -अनेक पुराने नाटकों के चित्र, पोस्टर, फोल्डर, कैसेट आदि संकलित किया, जिसका शोध प्रबंध में तो इस्तेमाल किया ही, संकलित रंग सामग्री की प्रदर्शनी भी कोलकाता में उन्होंने आयोजित की।
उस प्रदर्शनी में बंगाल का कौन थियेटर प्रेमी नहीं गया और प्रदर्शनी देखकर कौन विस्मित नहीं हुआ? इस तरह का संग्रह कोलकाता में प्रतिभा अग्रवाल के नाटय़ शोध संस्थान में भी शायद ही हो। अब संध्या अपने द्वारा एकत्र रंग सामग्री के रखरखाव व संरक्षण के लिए एक अकादमी बनाना चाहती हैं। उनके इस काम में हाथ बंटाने के लिए रंग प्रेमियों को आगे आना चाहिए।
इसी तरह ही एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘बांग्ला नाटय़कोश’ भी संध्या ने लिखा है। ये दोनों उनकी मौलिक किताबें हैं। ‘बांग्ला नाटय़कोश’ में 1948 से लेकर 2000 तक मंचित बांग्ला नाटकों का विस्तृत विवरण है। कौन नाटक कब किस सभागृह में किस समूह द्वारा खेला गया, कौन कलाकार थे, कौन निर्देशक, कौन मंच सज्जाकार, इसका विवरण देते हुए उन नाटकों का कथ्य भी संक्षेप में दिया गया है।
यह किताब जितनी बड़ी संदर्भ पुस्तक है, उतनी ही इस बात का सबूत भी कि बांग्ला रंगमंच के पास कितना विपुल भंडार है। बंगाली हमेशा से ही थियेटर से प्रेम करते रहे हैं। बांग्ला के थियेटर प्रेमियों के लिए संध्या की दोनों मौलिक किताबें अनुपम उपहार हैं। ‘बांग्ला नाटय़कोश’ से पता चलता है कि बांग्ला रंग यात्रा अविरम प्रवहमान है। एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी अभिनय, निर्देशन में आती है, नए-नए नाटक करती है और दर्शकों को उद्वेलित करने में भी सफल होती है।
बंगाल में थियेटर के हर प्रेमी के लिए संध्या की दोनों मौलिक किताबें अनिवार्य पुस्तकें हैं। संध्या ये मौलिक और महत्वपूर्ण किताबें कदाचित इसलिए रच पाईं क्योंकि वे खुद रंगकर्मी हैं। रंगकर्म उनके रक्त में है। तीन दशकों से उन्होंने अपना जीवन रंगकर्म को पूरी तरह समर्पित कर दिया है।
रंगकर्म के लिए ही तीन दशक पहले वे बंगाल के अपने सुदूर गांव को छोड़कर कलकत्ता आ गई थीं और ‘नांदीकार’ नाटय़ संस्था के नाटकों में अभिनय शुरू किया था। 1957 में जन्मी संध्या ने किशोर वय में ‘पाप-पुण्य’ नाटक में एक असाधारण चरित्र का किरदार निभाकर बांग्ला रंगमंच में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया।
रंगकर्म के कारण वैसे पढ़ाई बाधित नहीं हुई, बल्कि अभिनय के साथ ही वह भी चलती रही। संध्या ने कोलकाता विश्वविद्यालय से बांग्ला साहित्य में एमए करने के बाद बांग्ला रंगमंच पर पीएचडी की।
संध्या दे ने ‘पाप-पुण्य’ के अलावा ‘फुलबाल’, ‘शोयाइक गेलो युद्घ’, ‘बलिदान गाजी’, ‘साहेबेर किस्सा’, ‘लज्जातीर्थ’, ‘शोधबोध’, ‘सूर्यपोड़ा छाई’ जैसे नाटकों में यादगार अभिनय किए। संध्या सिर्फ कुशल अभिनेत्री ही नहीं हैं, कला के साथ ही वे गले का कमाल भी दिखाती रही हैं। उनके मधुर कंठ से गीत सुनकर मंत्रमुग्ध होनेवाले लोग इसका साक्ष्य देंगे। संध्या दे को न जाने कितने नाटकों के गीत याद हैं।
साहित्य, रंगमंच व कलाओं में शोध-कार्य के लिए जिस श्रम और अनुशीलन दृष्टि की दरकार होती है, उसका बहुधा अभाव दिखता है। ऐसे परिवेश में बांग्ला में प्रकाशित ‘अन्यधारार थियेटर उत्स थेके उजाने’ शीर्षक शोध प्रबंध नई उम्मीद की तरह है।
कभी सुशील कुमार दे ने ‘बांग्ला प्रवादेर अभिदान’ या विनय घोष ने ‘पश्चिम बंगेर संस्कृति’ जैसे गंभीर ग्रंथ रचकर शोधार्थियों के सम्मुख एक नजीर पेश की थी। उसी तरह की गंभीर कृति संप्रति संध्या दे ने दी है। संध्या का यह शोध प्रबंध ढाई दशकों के शोध का परिणाम है।
संध्या ने बांग्ला रंगमंच के 200 वर्षों के प्रामाणिक इतिहास को लिपिबद्घ करने के साथ ही अन्य धारा के ऐतिहासिक नाटकों का गंभीर विश्लेषण भी प्रस्तुत किया है। पेशेवर मंच से लेकर इप्टा के नाटकों, कोलकाता व उसके उपनगरों के थियेटर का समूचा रंग परिदृश्य 428 पृष्ठों की किताब ‘अन्यधारार थियेटर उत्स थेके उजाने’ में उभर आया है।
परिशिष्ट में मन्मथ राय, चिन्मोहन सेहानवीश, तृप्ति मित्र, शोभा सेन, खालेद चौधरी और कुमार रॉय के लंबे-लंबे साक्षात्कार भी दिए गए हैं। संध्या ने इन रंग शख्सियतों से इस तरह के प्रश्न किए हैं कि रंगमंच पर एक नया परिप्रेक्ष्य खुलता हुआ हम महसूस करते हैं।
शोध के दौरान संध्या ने प्रचुर रंग सामग्री -अनेक पुराने नाटकों के चित्र, पोस्टर, फोल्डर, कैसेट आदि संकलित किया, जिसका शोध प्रबंध में तो इस्तेमाल किया ही, संकलित रंग सामग्री की प्रदर्शनी भी कोलकाता में उन्होंने आयोजित की।
उस प्रदर्शनी में बंगाल का कौन थियेटर प्रेमी नहीं गया और प्रदर्शनी देखकर कौन विस्मित नहीं हुआ? इस तरह का संग्रह कोलकाता में प्रतिभा अग्रवाल के नाटय़ शोध संस्थान में भी शायद ही हो। अब संध्या अपने द्वारा एकत्र रंग सामग्री के रखरखाव व संरक्षण के लिए एक अकादमी बनाना चाहती हैं। उनके इस काम में हाथ बंटाने के लिए रंग प्रेमियों को आगे आना चाहिए।
इसी तरह ही एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘बांग्ला नाटय़कोश’ भी संध्या ने लिखा है। ये दोनों उनकी मौलिक किताबें हैं। ‘बांग्ला नाटय़कोश’ में 1948 से लेकर 2000 तक मंचित बांग्ला नाटकों का विस्तृत विवरण है। कौन नाटक कब किस सभागृह में किस समूह द्वारा खेला गया, कौन कलाकार थे, कौन निर्देशक, कौन मंच सज्जाकार, इसका विवरण देते हुए उन नाटकों का कथ्य भी संक्षेप में दिया गया है।
यह किताब जितनी बड़ी संदर्भ पुस्तक है, उतनी ही इस बात का सबूत भी कि बांग्ला रंगमंच के पास कितना विपुल भंडार है। बंगाली हमेशा से ही थियेटर से प्रेम करते रहे हैं। बांग्ला के थियेटर प्रेमियों के लिए संध्या की दोनों मौलिक किताबें अनुपम उपहार हैं। ‘बांग्ला नाटय़कोश’ से पता चलता है कि बांग्ला रंग यात्रा अविरम प्रवहमान है। एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी अभिनय, निर्देशन में आती है, नए-नए नाटक करती है और दर्शकों को उद्वेलित करने में भी सफल होती है।
बंगाल में थियेटर के हर प्रेमी के लिए संध्या की दोनों मौलिक किताबें अनिवार्य पुस्तकें हैं। संध्या ये मौलिक और महत्वपूर्ण किताबें कदाचित इसलिए रच पाईं क्योंकि वे खुद रंगकर्मी हैं। रंगकर्म उनके रक्त में है। तीन दशकों से उन्होंने अपना जीवन रंगकर्म को पूरी तरह समर्पित कर दिया है।
रंगकर्म के लिए ही तीन दशक पहले वे बंगाल के अपने सुदूर गांव को छोड़कर कलकत्ता आ गई थीं और ‘नांदीकार’ नाटय़ संस्था के नाटकों में अभिनय शुरू किया था। 1957 में जन्मी संध्या ने किशोर वय में ‘पाप-पुण्य’ नाटक में एक असाधारण चरित्र का किरदार निभाकर बांग्ला रंगमंच में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया।
रंगकर्म के कारण वैसे पढ़ाई बाधित नहीं हुई, बल्कि अभिनय के साथ ही वह भी चलती रही। संध्या ने कोलकाता विश्वविद्यालय से बांग्ला साहित्य में एमए करने के बाद बांग्ला रंगमंच पर पीएचडी की।
संध्या दे ने ‘पाप-पुण्य’ के अलावा ‘फुलबाल’, ‘शोयाइक गेलो युद्घ’, ‘बलिदान गाजी’, ‘साहेबेर किस्सा’, ‘लज्जातीर्थ’, ‘शोधबोध’, ‘सूर्यपोड़ा छाई’ जैसे नाटकों में यादगार अभिनय किए। संध्या सिर्फ कुशल अभिनेत्री ही नहीं हैं, कला के साथ ही वे गले का कमाल भी दिखाती रही हैं। उनके मधुर कंठ से गीत सुनकर मंत्रमुग्ध होनेवाले लोग इसका साक्ष्य देंगे। संध्या दे को न जाने कितने नाटकों के गीत याद हैं।
रंगवार्ता से साभार
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