प्रवीर गुहा. उम्र 64 वर्ष. चेहरे पर, काम पर इस उम्र की छाप कहीं नहीं दिखती. ऊर्जा किसी युवा से भी ज्यादा. रंगकर्म में खास शैली, भाषायी प्रयोग और दैहिक भाषा के नये मुहावरे गढ़ने में इन्हें महारत हासिल है. मेनस्ट्रीम थियेटर को एक सिरे से खारिज करनेवाले और पीपुल्स थियेटर के बड़े पैराकर प्रवीर गुहा को ‘साइकोफिजिकल थियेटर’, ‘डायलॉग थियेटर’, ‘जर्नी थियेटर’ करना सबसे ज्यादा पसंद है. अमेरिका, यूरोप, जापान, हांगकांग, थाइलैंड, नेपाल, बांग्लादेश समेत भारत के कोने-कोने में इस शैली को लोकप्रिय बना चुके प्रवीर गुहा ने पीटर ब्रुक व ग्रोटोवस्की जेसे दुनिया के प्रसिद्ध रंगकर्मियों के साथ काम किया है. वे अपने अल्टरनेटिव मीडिया थियेटर के साथी कलाकारों के साथ गांव की गलियों से लेकर बड़े शहरों तक जाते हैं. साथी कलाकार भी खास. बांग्लादेश की सावित्राी, बंगाल के गांव के जाकरी, अफ्तार.. या सहायक निर्देशक तपन दास, जिन्हें अपने गांव से निकाल दिया गया था. प्रवीर गुहा को अब संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित भी किया जा चुका है.
- प्रवीर गुहा से निराला की बातचीत.
सबसे पहले यही बतायें के रंगकर्म और रंगमंच के सामने सबसे बड़ा संकट क्या है?
रंगकर्म के सामने तो कई-कई संकट है, कितनों की बात करें, हां, इसके भविष्य को लेकर कुछ खयाल मेरे जेहन में आते हैं तो वह यह कि आगे के दिनों में सभी थियेटर के खत्म हो जाने क बावजूद पीपुल्स थियेटर हमेशा बचा रहेगा, एग्जिस्ट करेगा, रूप चाहे कोई भी हो.
अच्छा आप यह बतायें कि जिस तरीके का थियेटर आप करते हैं, उसमें कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है?
प्रोफेशनलिज्म का अभाव. एटीट्यूड में प्रोफेशनलिज्म लाने को नये बच्चे तैयार ही नहीं होते. जो आते हैं, वह कड़ी मेहनत देख कर भाग जाते हैं. इसीलिए मेरा ज्यादा से ज्यादा जोर समाज से उपेक्षित या गरीबी की मार झेल रहे बच्चों को लाना होता है, जिनके पास कमिटमेंट होता है और स्वाभाविक कला भी. मेरी टीम में बंगाल की जहीर या अफ्तार जैसे कलाकार है, जो बंगाल के गांव से आते हैं. इन्होंने जब थियेटर ज्वाइन किया तो बोल तक नहीं पाते थे, आज बेहतरीन थियेटर आर्टिस्ट हैं. बांग्लादेश की सावित्राी है. और भी कई कलाकार हैं. मैंने तय कर लिया है कि हर साल 10 बच्चों को तैयार करूंगा. निर्देशक के तौर पर उनसे एक पेसा नहीं लूंगा. इस कोशिश में कमिटेड कलाकार और प्रोफेशनलिज्म का अभाव, यही दो चुनौतियों का सामना मुझे सबसे ज्यादा करना पड़ता है.
आखिर रंगकर्म या थियेटर आर्ट को क्यों ‘मास’ से जोड़कर देखा जाये, जबकि यह माध्यम अब ‘क्लास’ तक सिमट कर रह गया है?
हां, यह तो सही है. मास-मास कहने भर से कुछ तो नहीं होगा न. उसके लिए कुछ करना होगा. मैं इससे सहमत हूं कि थियेटर में जब प्ले होता है तो वह एक क्लास तक ही सिमटा रहता है. लेकिन विडंबना यह है कि यह जो मेनस्ट्रीम थियेटर है न, उसने कबाड़ा कर के रख दिया है सब. एक फॉमूर्ला बना दिया है कि या तो स्टेज प्ले या नुक्कड़ नाटक, बस यही है ढांचा. जबकि एक रंगकर्मी के लिए हर माहौल रंगकर्म का और हर जगह रंगमंच ही होता है. हम साधारण बातचीत में किसी को कम्युनिकेट कर रहे हैं तो वह भी थियेटर का एक फॉर्म क्योें नहीं हो सकता?
तो क्या इसीलिए प्रवीर गुहा मेनस्ट्रीम थियेटर से काफी दूरी बनाकर रखते हैं?
हां, ऐसा ही कहिए. दरअसल थियेटर में प्रोफेशनलिज्म यानी पैसन, कमिटमेंट, डिजायर आदि तो जरूरी है लेकिन उसे एक व्यवसाय बना देना मुझे कभी मंजूर नहीं रहा. और फिर देखिए विडंबना आज थियेटर में घिसे-पिटे कहानी, प्लॉट को उठाकर, अनुवाद दर अनुवाद कर उसे मंचित किया जा रहा है. क्या है ये! क्या थियेटर का उद्देश्य किसी तरह सिर्फ मनोरंजन भर करना है. यही कर रहा है तथाकथित मेनस्ट्रीम थियेटर, इसीलिए मेरी उसमें कोई रुचि नहीं.
थियेटर मुश्किल के दौर में है. क्लास वर्सेस मास का द्वंद्व है. ऐसे में मास में अपील करने का सबसे सशक्त माध्यम तो सिनेमा ही हुआ?
ना! ऐसा कभी नहीं कहिए. भारत में ऐसी स्थितियां कभी नहीं रहीं. ऐसा हेाता तो वर्षों में हम जमिंदारों, शीर्षकों के खिलाफ सिनेमा में नायक को खड़ा होते देख रहे हैं. जातीय बंधन टूटते हुए देख रहे हैं. शिक्षाप्रद व प्रेरणाप्रद उपदेश सिनेमा के माध्यम से देखते रहे. नेताओं, अधिकारियों की असलीयत, उनकी नंगई देखते रहे. लेकिन इतने वर्षों बाद भी हकीकत में कहां वह संभव हो सका. सिनेमा में बदलाव की कूवत होती तो आज अपने देश में आम जनता की ऐसी हालत ही नहीं होती. सिनेमा लोकप्रिय माध्यम हो सकता है, कम्यूनिकेटर तो थियेटर ही रहा है, रहेगा. हां, यह बात तो जरूर हे कि हमारे थियेटर के सामने कई मुश्किले हैं. जैसे नये प्रतिभावान युवाओं को सिनेमा के आकर्षण से दूर रख यह समझाना कि यह जो तुम कर रहे हो, वही कला की सार्थकता है. फिर उन्हें इसके लिए मानसिक तौर पर तैयार करना कि तुम्हें कम पैसे में रहने की आदत डालनी होगी. नयी पीढ़ी में इतना कमिटमेंट पैदा करना सबसे मुश्किल भरा काम है, फिर भी अब स्थितियों में काफी बदलाव आ रहा है. मुझ जैसे अलग राह पर चलनेवाले को भी इतने साथी मिले हैं, इसी से हौसला बना रहता है.
तो क्या यह मान लिया जाये कि प्रवीर गुहा जिस तरह मेनस्ट्रीम थियेटर से दूरी बनाकर रखते हैं वैसे ही हमेशा सिनेमा से भी ..?
नहीं, ऐसा नहीं. निर्देशक के तौर पर तो सिनेमा बनाने की इच्छा है ही लेकिन जिस दिन सिनेमा बनाउंगा, उस दिन कोई स्टारकास्ट या भव्यता का मोह नहीं होगा. यही अपने बीच के कलाकार होंगे और प्लॉट भी आम आदमी के बीच का होगा. ‘डाउन टू अर्थ’ जाकर सिनेमा बनाने का ख्वाब है.
‘तृतीय युद्ध’ हो या ‘अहुल्ली’, ‘अम्मा’... आपके हर नाटक के कथानक में प्रतिरोध की संस्कृति हेाती है जो राजनीतिक फ्रंट पर मोर्चा लेते दिखती है!
मैं तो ऐलानिया कहता हूं कि मैं पोलिटिकल थियेटर ही करता हूं. कोई चीज राजनीति से परे है भी तो नहीं इस दुनिया में. और फिर मैं तो रहा भी हूं राजनीति का आदमी. मार्क्सवादी हूं लेकिन उनकी तरह नहीं जो सिर्फ मार्क्सवाद का चस्पां लगाकर अपने को वामपंथ का रहनुमा मानने लगते हैं.
वामपंथी दिशा भटक चुके हैं. आप थियेटर में उसी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं. बदलाव की उम्मीद कहां है?
नहीं, बदलाव की कूवत और संभावना तो वामपंथ की दिशा में ही है. वामपंथी आंदोलन ही बदलेगा धारा. हां, लेकिन इसके लिए फिर शून्य से शुरुआत करनी होगी वामपंथी आंदोलन की. जनता के साथ आना होगा. ऐसा होगा जरूर. क्योंकि इतिहास करवट लेता है. जनांदोलनों की तेज होती धार में दिख रही है यह उम्मीद.
आप जो ‘डायलॉग थियेटर’, ‘रोविंग थियेटर’,‘साइकोफिजिकल थियेटर’ करते हैं, उसका उद्देश्य क्या है?
आप इसे अलग-अलग नाम न देकर सिर्फ एक नाम दे सकते हैं- ‘थियेटर फॉर ऑप्रेस्ड’. मेरे रंगकर्मीय जीवन में सबसे ज्यादा प्रभाव ऑगस्टो बोल का रहा है. उनकी किताबें पढ़कर ही मैं इसमें रम सका. इन सभी विधाओं से मैं ऑगस्टो को श्रद्धांजलि देता हूं.
और आखिरी सवाल यह कि एनएसडी से इतनी दूरी क्यों रखते हैं?
पहली बात तो यह कि मैं नयी पीढ़ी को उस पारंपरिक ढर्रे की बात बता ही नहीं सकता, जिसे तथाकथित मेनस्ट्रीम के रहनुमा बता गये हैं. मैं वहीं जाना चाहता हूं, जाता हूं, जहां अपनी बात कहने की स्वतंत्राता हो. जैसे लखनऊ, चंडीगढ़, खैरागढ़ आदि विश्विद्यालयों में जाता हूं लेकिन एनएडी नहीं जाता. अव्वल तो यह कि एनएसडी नाम से ही मुझे चिढ़ है. कई बार प्रस्ताव आया वहां से लेकिन मैंने ठुकरा दिया. आखिर ड्रामा नेशनल सबजेक्ट कैसे हो सकता है? पूरे देश में एकरूपता कैसे होगी थियेटर में? सबकी अपनी भाषा है, अपने अंदाज होते हैं और अपनी शैली भी. जिनके बीच नाटक होना है, जिनसे संवाद स्थापित करना है, उनके मानस भी अलग-अलग होते हैं. ऐसे में नाटकों को भी एक फॉर्मूला में बांध देना फासीवाद है. एनएसडी शुरू से ही फासीवादी रवैया अपनाते रहा है थियेटर, रंगकर्म को लेकर, इसलिए मैं वहां कभी नहीं जाना चाहता. मैं दुनिया के कोने-कोने में जाता हूं ग्रोटोवस्की, पीटर ब्रूक जैसे दुनिया के वरिष्ठतम रंगकिर्मियों के साथ काम करता हूं, भारत में सरदार गुरुशरण सिंह पंसद हैं लेकिन एनएसडी! कभी नहीं!
- प्रवीर गुहा से निराला की बातचीत.
सबसे पहले यही बतायें के रंगकर्म और रंगमंच के सामने सबसे बड़ा संकट क्या है?
रंगकर्म के सामने तो कई-कई संकट है, कितनों की बात करें, हां, इसके भविष्य को लेकर कुछ खयाल मेरे जेहन में आते हैं तो वह यह कि आगे के दिनों में सभी थियेटर के खत्म हो जाने क बावजूद पीपुल्स थियेटर हमेशा बचा रहेगा, एग्जिस्ट करेगा, रूप चाहे कोई भी हो.
अच्छा आप यह बतायें कि जिस तरीके का थियेटर आप करते हैं, उसमें कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है?
प्रोफेशनलिज्म का अभाव. एटीट्यूड में प्रोफेशनलिज्म लाने को नये बच्चे तैयार ही नहीं होते. जो आते हैं, वह कड़ी मेहनत देख कर भाग जाते हैं. इसीलिए मेरा ज्यादा से ज्यादा जोर समाज से उपेक्षित या गरीबी की मार झेल रहे बच्चों को लाना होता है, जिनके पास कमिटमेंट होता है और स्वाभाविक कला भी. मेरी टीम में बंगाल की जहीर या अफ्तार जैसे कलाकार है, जो बंगाल के गांव से आते हैं. इन्होंने जब थियेटर ज्वाइन किया तो बोल तक नहीं पाते थे, आज बेहतरीन थियेटर आर्टिस्ट हैं. बांग्लादेश की सावित्राी है. और भी कई कलाकार हैं. मैंने तय कर लिया है कि हर साल 10 बच्चों को तैयार करूंगा. निर्देशक के तौर पर उनसे एक पेसा नहीं लूंगा. इस कोशिश में कमिटेड कलाकार और प्रोफेशनलिज्म का अभाव, यही दो चुनौतियों का सामना मुझे सबसे ज्यादा करना पड़ता है.
आखिर रंगकर्म या थियेटर आर्ट को क्यों ‘मास’ से जोड़कर देखा जाये, जबकि यह माध्यम अब ‘क्लास’ तक सिमट कर रह गया है?
हां, यह तो सही है. मास-मास कहने भर से कुछ तो नहीं होगा न. उसके लिए कुछ करना होगा. मैं इससे सहमत हूं कि थियेटर में जब प्ले होता है तो वह एक क्लास तक ही सिमटा रहता है. लेकिन विडंबना यह है कि यह जो मेनस्ट्रीम थियेटर है न, उसने कबाड़ा कर के रख दिया है सब. एक फॉमूर्ला बना दिया है कि या तो स्टेज प्ले या नुक्कड़ नाटक, बस यही है ढांचा. जबकि एक रंगकर्मी के लिए हर माहौल रंगकर्म का और हर जगह रंगमंच ही होता है. हम साधारण बातचीत में किसी को कम्युनिकेट कर रहे हैं तो वह भी थियेटर का एक फॉर्म क्योें नहीं हो सकता?
तो क्या इसीलिए प्रवीर गुहा मेनस्ट्रीम थियेटर से काफी दूरी बनाकर रखते हैं?
हां, ऐसा ही कहिए. दरअसल थियेटर में प्रोफेशनलिज्म यानी पैसन, कमिटमेंट, डिजायर आदि तो जरूरी है लेकिन उसे एक व्यवसाय बना देना मुझे कभी मंजूर नहीं रहा. और फिर देखिए विडंबना आज थियेटर में घिसे-पिटे कहानी, प्लॉट को उठाकर, अनुवाद दर अनुवाद कर उसे मंचित किया जा रहा है. क्या है ये! क्या थियेटर का उद्देश्य किसी तरह सिर्फ मनोरंजन भर करना है. यही कर रहा है तथाकथित मेनस्ट्रीम थियेटर, इसीलिए मेरी उसमें कोई रुचि नहीं.
थियेटर मुश्किल के दौर में है. क्लास वर्सेस मास का द्वंद्व है. ऐसे में मास में अपील करने का सबसे सशक्त माध्यम तो सिनेमा ही हुआ?
ना! ऐसा कभी नहीं कहिए. भारत में ऐसी स्थितियां कभी नहीं रहीं. ऐसा हेाता तो वर्षों में हम जमिंदारों, शीर्षकों के खिलाफ सिनेमा में नायक को खड़ा होते देख रहे हैं. जातीय बंधन टूटते हुए देख रहे हैं. शिक्षाप्रद व प्रेरणाप्रद उपदेश सिनेमा के माध्यम से देखते रहे. नेताओं, अधिकारियों की असलीयत, उनकी नंगई देखते रहे. लेकिन इतने वर्षों बाद भी हकीकत में कहां वह संभव हो सका. सिनेमा में बदलाव की कूवत होती तो आज अपने देश में आम जनता की ऐसी हालत ही नहीं होती. सिनेमा लोकप्रिय माध्यम हो सकता है, कम्यूनिकेटर तो थियेटर ही रहा है, रहेगा. हां, यह बात तो जरूर हे कि हमारे थियेटर के सामने कई मुश्किले हैं. जैसे नये प्रतिभावान युवाओं को सिनेमा के आकर्षण से दूर रख यह समझाना कि यह जो तुम कर रहे हो, वही कला की सार्थकता है. फिर उन्हें इसके लिए मानसिक तौर पर तैयार करना कि तुम्हें कम पैसे में रहने की आदत डालनी होगी. नयी पीढ़ी में इतना कमिटमेंट पैदा करना सबसे मुश्किल भरा काम है, फिर भी अब स्थितियों में काफी बदलाव आ रहा है. मुझ जैसे अलग राह पर चलनेवाले को भी इतने साथी मिले हैं, इसी से हौसला बना रहता है.
तो क्या यह मान लिया जाये कि प्रवीर गुहा जिस तरह मेनस्ट्रीम थियेटर से दूरी बनाकर रखते हैं वैसे ही हमेशा सिनेमा से भी ..?
नहीं, ऐसा नहीं. निर्देशक के तौर पर तो सिनेमा बनाने की इच्छा है ही लेकिन जिस दिन सिनेमा बनाउंगा, उस दिन कोई स्टारकास्ट या भव्यता का मोह नहीं होगा. यही अपने बीच के कलाकार होंगे और प्लॉट भी आम आदमी के बीच का होगा. ‘डाउन टू अर्थ’ जाकर सिनेमा बनाने का ख्वाब है.
‘तृतीय युद्ध’ हो या ‘अहुल्ली’, ‘अम्मा’... आपके हर नाटक के कथानक में प्रतिरोध की संस्कृति हेाती है जो राजनीतिक फ्रंट पर मोर्चा लेते दिखती है!
मैं तो ऐलानिया कहता हूं कि मैं पोलिटिकल थियेटर ही करता हूं. कोई चीज राजनीति से परे है भी तो नहीं इस दुनिया में. और फिर मैं तो रहा भी हूं राजनीति का आदमी. मार्क्सवादी हूं लेकिन उनकी तरह नहीं जो सिर्फ मार्क्सवाद का चस्पां लगाकर अपने को वामपंथ का रहनुमा मानने लगते हैं.
वामपंथी दिशा भटक चुके हैं. आप थियेटर में उसी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं. बदलाव की उम्मीद कहां है?
नहीं, बदलाव की कूवत और संभावना तो वामपंथ की दिशा में ही है. वामपंथी आंदोलन ही बदलेगा धारा. हां, लेकिन इसके लिए फिर शून्य से शुरुआत करनी होगी वामपंथी आंदोलन की. जनता के साथ आना होगा. ऐसा होगा जरूर. क्योंकि इतिहास करवट लेता है. जनांदोलनों की तेज होती धार में दिख रही है यह उम्मीद.
आप जो ‘डायलॉग थियेटर’, ‘रोविंग थियेटर’,‘साइकोफिजिकल थियेटर’ करते हैं, उसका उद्देश्य क्या है?
आप इसे अलग-अलग नाम न देकर सिर्फ एक नाम दे सकते हैं- ‘थियेटर फॉर ऑप्रेस्ड’. मेरे रंगकर्मीय जीवन में सबसे ज्यादा प्रभाव ऑगस्टो बोल का रहा है. उनकी किताबें पढ़कर ही मैं इसमें रम सका. इन सभी विधाओं से मैं ऑगस्टो को श्रद्धांजलि देता हूं.
और आखिरी सवाल यह कि एनएसडी से इतनी दूरी क्यों रखते हैं?
पहली बात तो यह कि मैं नयी पीढ़ी को उस पारंपरिक ढर्रे की बात बता ही नहीं सकता, जिसे तथाकथित मेनस्ट्रीम के रहनुमा बता गये हैं. मैं वहीं जाना चाहता हूं, जाता हूं, जहां अपनी बात कहने की स्वतंत्राता हो. जैसे लखनऊ, चंडीगढ़, खैरागढ़ आदि विश्विद्यालयों में जाता हूं लेकिन एनएडी नहीं जाता. अव्वल तो यह कि एनएसडी नाम से ही मुझे चिढ़ है. कई बार प्रस्ताव आया वहां से लेकिन मैंने ठुकरा दिया. आखिर ड्रामा नेशनल सबजेक्ट कैसे हो सकता है? पूरे देश में एकरूपता कैसे होगी थियेटर में? सबकी अपनी भाषा है, अपने अंदाज होते हैं और अपनी शैली भी. जिनके बीच नाटक होना है, जिनसे संवाद स्थापित करना है, उनके मानस भी अलग-अलग होते हैं. ऐसे में नाटकों को भी एक फॉर्मूला में बांध देना फासीवाद है. एनएसडी शुरू से ही फासीवादी रवैया अपनाते रहा है थियेटर, रंगकर्म को लेकर, इसलिए मैं वहां कभी नहीं जाना चाहता. मैं दुनिया के कोने-कोने में जाता हूं ग्रोटोवस्की, पीटर ब्रूक जैसे दुनिया के वरिष्ठतम रंगकिर्मियों के साथ काम करता हूं, भारत में सरदार गुरुशरण सिंह पंसद हैं लेकिन एनएसडी! कभी नहीं!
रंगवार्ता से साभार
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