राजेश चन्द्र
रविन्द्रनाथ टैगोर यह स्वीकार करते थे कि भारतीय समाज में धर्म व्याप्त है और यह मिथकों में जीता है। आत्मिक मुद्राओं वाले इस समाज के पास देशकाल की अपनी एक अलग ही अवधारणा है। उन्होंने देशज तौर तरीकों द्वारा भारतीय संस्कृति की अनूठी वास्तविकताओं को चित्रित करने का प्रयास किया। ‘चांडालिका (1938) और चित्रांगदा जैसे अपने नृत्य नाटकों में उन्होंने नृत्य और स्त्री अस्मिता के निर्माण की प्रक्रिया के बीच की अंतरंग कड़ियों का उदघाटन किया है। टैगोर ने अपने नृत्य नाटकों के माध्यम से स्त्री प्रतिनिधित्व के विकल्प उपलब्ध कराए। उनकी नायिकाएं विद्रोहिणी के रूप में उपस्थित होती हैं क्योंकि वे अपने समाज के स्थापित रिवाजों को अस्वीकार करती हैं और अपने ढंग का जीवन जीना चाहती हैं। नर्तक की देह का वे एक राजनीतिक प्रतिरोध के स्थल के रूप में उपयोग करते हैं जो संस्कृति के रिवाजों में निरंतर शामिल होती और उनका उच्छेद करती हुई नए अर्थों का संधान करती है। टैगोर अपने स्त्री केंद्रित नृत्य नाटकों के लिए योद्धाओं, अस्पृश्यों और वेश्याओं जैसे हाशिए पर जीने वाले समुदायों में से चरित्र ढूंढ़ते हैं ताकि उनकी प्रदर्शनकारी देह के माध्यम से स्त्री की लैंगिकता, यौनिकता एवं उनकी सामाजिक स्थिति से जुड़ी रूढि़वादी धारणाओं पर चोट की जा सके। चौदहवें भारत रंग महोत्सव के अंतर्गत विगत 13 जनवरी को बंगाल की प्रख्यात निर्देशक और रंगकर्मी उषा गांगुली के निर्देशन में रंगकर्मी, कोलकाता द्वारा कमानी सभागार में मंचित नाटक ‘चांडालिका’ ने एक बार फिर अपने परिवर्तनकामी सांस्कृतिक पाठ के माध्यम से प्रभावशाली तरीके से पवित्रता-अपवित्रता, प्रगति-अवनति की स्थापित व्याख्याओं की पुनर्यात्रा तथा पुनर्मंथन की प्रक्रिया में कला की भूमिका का उद्घाटन किया। यह प्रस्तुति समाज में स्त्री की बदलती भूमिका तथा अस्मिता के लिए उसके संघर्ष को सशक्त रूप से अभिव्यक्ति देने के अपने सामर्थ्य की वजह से निश्चित रूप से अलग से रेखांकित किए जाने की पात्रता रखती है।
रविन्द्रनाथ टैगोर यह स्वीकार करते थे कि भारतीय समाज में धर्म व्याप्त है और यह मिथकों में जीता है। आत्मिक मुद्राओं वाले इस समाज के पास देशकाल की अपनी एक अलग ही अवधारणा है। उन्होंने देशज तौर तरीकों द्वारा भारतीय संस्कृति की अनूठी वास्तविकताओं को चित्रित करने का प्रयास किया। ‘चांडालिका (1938) और चित्रांगदा जैसे अपने नृत्य नाटकों में उन्होंने नृत्य और स्त्री अस्मिता के निर्माण की प्रक्रिया के बीच की अंतरंग कड़ियों का उदघाटन किया है। टैगोर ने अपने नृत्य नाटकों के माध्यम से स्त्री प्रतिनिधित्व के विकल्प उपलब्ध कराए। उनकी नायिकाएं विद्रोहिणी के रूप में उपस्थित होती हैं क्योंकि वे अपने समाज के स्थापित रिवाजों को अस्वीकार करती हैं और अपने ढंग का जीवन जीना चाहती हैं। नर्तक की देह का वे एक राजनीतिक प्रतिरोध के स्थल के रूप में उपयोग करते हैं जो संस्कृति के रिवाजों में निरंतर शामिल होती और उनका उच्छेद करती हुई नए अर्थों का संधान करती है। टैगोर अपने स्त्री केंद्रित नृत्य नाटकों के लिए योद्धाओं, अस्पृश्यों और वेश्याओं जैसे हाशिए पर जीने वाले समुदायों में से चरित्र ढूंढ़ते हैं ताकि उनकी प्रदर्शनकारी देह के माध्यम से स्त्री की लैंगिकता, यौनिकता एवं उनकी सामाजिक स्थिति से जुड़ी रूढि़वादी धारणाओं पर चोट की जा सके। चौदहवें भारत रंग महोत्सव के अंतर्गत विगत 13 जनवरी को बंगाल की प्रख्यात निर्देशक और रंगकर्मी उषा गांगुली के निर्देशन में रंगकर्मी, कोलकाता द्वारा कमानी सभागार में मंचित नाटक ‘चांडालिका’ ने एक बार फिर अपने परिवर्तनकामी सांस्कृतिक पाठ के माध्यम से प्रभावशाली तरीके से पवित्रता-अपवित्रता, प्रगति-अवनति की स्थापित व्याख्याओं की पुनर्यात्रा तथा पुनर्मंथन की प्रक्रिया में कला की भूमिका का उद्घाटन किया। यह प्रस्तुति समाज में स्त्री की बदलती भूमिका तथा अस्मिता के लिए उसके संघर्ष को सशक्त रूप से अभिव्यक्ति देने के अपने सामर्थ्य की वजह से निश्चित रूप से अलग से रेखांकित किए जाने की पात्रता रखती है।
टैगोर के नृत्य नाटक अपने अनूठे
समय और वातावरण में स्त्री के प्रति उनकी परिवर्तनकारी संकल्पनाओं को अभिव्यक्त
करते हैं। इन नृत्य नाटकों का उपयोग नारीवादी विमर्श के प्रस्थान बिंदु के रूप में
भी किया जा सकता है। ‘चांडालिका‘ में प्रकृति की आत्माभिव्यक्ति के लिए
टैगोर ने नृत्य का विलक्षण और अर्थभेदी उपयोग किया है। नृत्य के बिना प्रकृति की
अस्मिता की आकांक्षा अव्यक्त ही रह जाती। नृत्य इस चरित्र के अन्तस्तल की एक मुखर
भाषा के रूप में सामने आती है। अपनी इसी भाषा के माध्यम से वह पवित्र-अपवित्र, देह-आत्मा, नैतिक-अनैतिक तथा स्व और पर जैसी
सभी संकुचित बेड़ियों से मुक्ति पाती हैं। नृत्य यहां एक ऐसे माध्यम के रूप में
सामने आता है जो उसकी अस्मिता, आत्मसम्मान तथा स्त्री आकांक्षाओं का निषेध करने वाली दमनकारी
संस्कृति से उसकी देह और आत्मा को मुक्त करता है। प्रकृति, जो आत्म अभिव्यक्ति का एक विस्फोट
है, नृत्य में अपने उल्लास को साकार करती है। वह
अपने स्वत्व का उदघाटन करती है और मुक्ति की यह अनुभूति उसे एक भाव-समाधि की दशा तक
ले जाती है। उसकी मां माया अपनी पुत्री की वाणी में आए संपूर्ण बदलाव से अचंभित हो
जाती है और उस पर चीखती चिल्लाती है।
‘चांडालिका‘ में टैगोर आधुनिक स्त्री की उस
अवधारणा को मूर्त रूप देने का प्रयास करते हैं जिसका उत्स बंगाल के नवजागरण में
निहित है। अपने नाटक में प्रकृति नाम के जिस चरित्र की वे उपस्थापना करते हैं वह कोई
आदर्श नहीं बल्कि हाड़ मांस की बनी एक स्त्री है जो मुखर होने के साथ-साथ
उत्पीडि़त भी है। वह दृढ़ निश्चयी और संघर्षशील है और अपना द्विभाजित स्वत्व लिए
वह आनंद के प्रति अपनी गहन लालसा तथा अपनी मां माया के नागपाश मंत्र की सहायता से
उसे वशीभूत करने के पश्चात्ताप के बीच झूलती रहती है। वह एक अस्पृश्य लड़की है जो
जाति, वर्ग और
लिंग के चैराहों पर अपनी अस्मिता की तलाश करती फिरती है। अपनी इस तलाश में वह
सामाजिक अधोगति के अंधकार से निकल कर एक स्त्री के रूप में अपनी अस्मिता का अभिप्राय ढूँढ़ती
है और इस प्रक्रिया में उसे जीवन की तीन स्थितियों से गुजरना पड़ता है-ऊंच-नीच के उस
विभेद से जिसे वह अपने सांसारिक जीवन में भोगती है, स्मृति की उस दुनिया से जिसमें
आनंद ने एक मानवी के रूप में उसका सम्मान किया था तथा आनंद को पाने की निर्दोष
किंतु दुखती आकांक्षा से जो एक स्त्री के तौर पर उसका अधिकार भी है। वह हिंदू समाज
की जाति आधारित संरचना के निम्नतम तल में एक अस्पृश्य होने के कारण पिस रही है।
अस्पृश्यता के विभेद के विरुद्ध प्रकृति का संघर्ष एक प्रभावी सामाजिक राजनीतिक
वक्तव्य के रूप में उभरता है।
उषा गांगुली और 1976 में उनके द्वारा स्थापित संस्था
रंगकर्मी की रंगयात्रा निरंतर उपलब्धियों से भरी रही है। संगीत नाटक आकादमी पु0 (1998) से सम्मानित उषा गांगुली ने
महाभोज, लोककथा, होली, कोर्ट मार्शल, रुदाली, हिम्मतमाई, मुक्ति, शोभायात्रा, काशीनामा और मंटो के जीवन पर
आधारित 'ट्राईलोंजी' जैसे नाटकों की प्रस्तुति कर
आधुनिक हिंदी रंगमंच में एक अलग पहचान स्थापित की है। यह पहचान एक गंभीर निर्देशक
के तौर पर ही नहीं बल्कि एक समर्थ अभिनेत्री के तौर पर भी उन्होंने अर्जित की है।
प्रस्तुत नाटक में भी इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने प्रकृति की मां
माया का चरित्र अभिनीत किया है। प्रस्तुति में उनके अलावा तुर्णा दास (प्रकृति) का
अभिनय भी दर्शकों को लंबे समय तक याद रहेगा। अन्य कलाकारों में मिश्का हलीम, संगीता घोष, कंचनमाला, सुनयना, पूजा रॉय आदि का अभिनय और नृत्य
भी प्रस्तुति को धार देने में महत्वपूर्ण रहा। प्रस्तुति की संगीत और नृत्य संरचना
स्वयं उषा गांगुली की थी और उन्होंने इस क्षेत्र में भी अपनी अनूठी सर्जनात्मकता
से दर्शकों को अभिभूत किया। गुरुदेव रविन्द्रनाथ को समर्पित इस बार के महोत्सव में
उनकी इस नाट्य-रचना की प्रस्तुति एक सार्थक और यादगार उपलब्धि कही जा सकती है।
राजेश चन्द्र - कवि, रंगकर्मी, अनुवादक एवं पत्रकार. विगत दो दशकों से रंगान्दोलनों, कविता, सम्पादन और पत्रकारिता में सक्रिय। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित। उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
दैनिक भास्कर में 13 जनवरी को प्रकाशित
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