रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 28 मार्च 2012

एक्टीविस्ट संस्कृतिकर्मी अनिल ओझा- अनीस अंकुर का संस्मरण


अनिल ओझा 

14 वर्ष पहले 5 फरवरी 1998 को अनिल ओझा कदमकुआं स्थित  वामपंथी पुस्तकों की दुकान ‘समकालीन प्रकाशन’ से कुछ पुस्तकें खरीद कर निकले। उस वक्त दुकान में वयोवृद्ध वामपंथी कार्यकर्ता जगदीश जी किताब की दुकान पर बैठा करते थे। अनिल ने वहां से डी.डी केशाम्बी की Exasperating essays सहित कई और किताबें खरीदीं। किताबें खरीद कर वे ‘प्रेरणा’ कार्यालय के लिए चल पड़े जहां आलोकधन्वा ‘कविता और संगीत’ विषय पर अपना व्याख्यान देने वाले थे। लेकिन अनिल ओझा ‘प्रेरणा’ कार्यालय नहीं पहंचे सके। बीच रास्ते में क्या हुआ- किसी केा आज तक ठीक से नहीं मालूम। सात दिनों के बाद 12 फरवरी,1998 को वे पी.एम.सी.एच में मृत पाए गए। अनुमानतः बीच रास्ते में गाधी मैदान के आस -पास उनका कहीं एक्सीडेंट हुआ होगा और किसी ने पी.एम.सी.एच. पहॅचा दिया होगा। अनिल की उम्र उस समय मात्र 28 वर्ष थी।
उस वक्त देश में लोकसभा के लिए आम चुनाव की घोषणा हो चुकी  थी। ‘अबकी बारी, अटल बिहारी’ का नारा लगातार हवा में गूंज रहा था। मैं ‘प्रेरणा’ की टीम के पाच साथियों के साथ नवादा पार्टी (सी.पी.एम) के पक्ष में, अपनी नुक्कड़ नाटक की टीम लेकर चुनाव प्रचार करने गया हुआ था। वहीं 13 फरवरी की सुबह सी.पी.एम. के युवा कार्यकर्ता गोपाल शर्मा ने ‘आज’ अखबार के पहले पन्ने की एक खबर को जोर से पढ़ते हुए कहा-‘रंगकर्मी अनिल ओझा की मौत’। हम सभी अवाक् रह गए। हमने गोपाल से अखबार लेकर इस स्तब्ध कर देने वाले समाचार को पढ़ा। कमलेश (जो उस वक्त दैनिक ‘आज’ में काम किया करते थे) के कारण यह खबर तब प्रथम पृष्ठ पर जगह पा सकी थी। कमलेश अनिल के मित्र थे।
अनिल ओझा से मेरी पहली मुलाकात  27 नवंबर,1996 (विद्याभूषण द्विवेदी की मौत के दिन) स्टेशन पर हुई थी। मैं स्टेशन सांध्य दैनिक ‘अमृत वर्षा’ खरीदने गया था। उसमें विद्याभूषण की मृत्यु की खबर छपी थी। अनिल उस वक्त मुनचुन (संप्रति रानावि के रंगमंडल) के साथ थे। मुनचुन से उसके कुछ ही महीनों पूर्व, आर्ट कालेज के आंदोलन के दौरान जान पहचान हुई थी। मुनचुन ने अनिल से परिचय कराया। मैंने  दोनों को विद्याभूषण के बारे में बताया। अनिल ने कहा कि वो शायद विद्याभूषण के बारे में जानता है। उससे पहले अमिताभ हमें अनिल के बारे में थोड़ा-बहुत बता चुके थे कि कैसे हमारा एक साथी जेल में है साथ ही वे उनकी मशहूर कविता ‘धारा 120 बी’ का भी हमारे सामने पाठ कर  चुके थे। अनिल की एक और कविता ‘टार्चरमैन’ का एकल मंचन करते मैंने संभवतः मुनचुन को पटना विश्वविद्यालय प्रांगण में आर्ट कालेज आंदोलन के दौरान देखा था। इस कविता में एक क्रांतिकारी अपने टार्चर करने वाले सिपाही से संवाद करता है। बहुत बाद में शायद अनिल के गुजरने के बाद किसी ने पटना स्टेशन पर एक सांवले रंग के लंबे कद के एक मुस्लिम व्यक्ति से मेरा परिचय इस रूप में कराया कि अनिल ने अपनी कविता ‘टार्चरमैन’ इनके ही अनुभवों के आधार पर लिखा है। बाद में मालूम हुआ कि कुछ दिनों के बाद उनकी भी संभवतः किसी बीमारी से मौत हो गयी।
अनिल बिहार के छपरा जिले के रहने वाले थे। मां-पिता द्वारा यू.पी.एस.सी. की तैयारी करने के लिए दिल्ली भेजे गए थे। उसी दौरान उनका संपर्क पार्टी यूनिटी के लोगों से हुआ परिणामस्वरूप वे चले आए बिहार में काम करने। अनिल से दूसरी बार पटना आर्ट कालेज में भेंट हुई। यह 1996 के दिसंबर की बात है। प्रिंसिपल के चंेबर में मेरी उस वक्त के विवादास्पद प्राचार्य वारिस हादी से  काफी कहा-सुनी हो गयी। उसके वक्त वहां बुद्धा कालोनी का थाना प्रभारी, जो कोई आदिवासी था, भी मौजूद था। प्राचार्य से बहस के दौरान मैं उस थाना प्रभारी से भी उलझ पड़ा और फिर परिस्थितियां ऐसी उलझी कि मुझे और साथ के दो-तीन साथियो को पकड़कर बुद्धा कालोनी ले जाया गया। मेरे साथ उस समय अनिल, एस.एफ.आई. के साथी मनोज और गोपाल शर्मा  भी थे। ये दोनों थाना प्रभारी से मेरे उलझ पड़ने से पैदा हुए परिणाम से क्षुब्ध थे और ये कहे जा रहे थे कि तुमने पुलिस दमन देखा नहीं है। खैर थाने में कुछ देर पश्चात हमें छोड़ दिया गया। बाद में अनिल ने कहा ‘‘मुझे तो ऐसा लगा कि कहीं चालान काटकर जेल न भेज दे। मैं तो वैसे भी हाल में ही जेल से छूटकर आया हंू’ खैर थाने से छूटने के प्श्चात हमने राहत की सांस ली। हमलोग बुद्धा कालोनी के मोड़ पर चाय पीने गए। वहां देर तक अनिल से बातें होती रही। वहीं उसके मुंह से मैंने अफ्रीकी लेखक न्गूगी वा थ्योंगो का नाम पहली बार सुना।
इस घटना के बाद अनिल हमारे गांधी मैदान स्थित ‘प्रेरणा’ कार्यालय में अक्सर आने-जाने लगे। बाकी साथियों से भी उनकी मित्रता हो गयी थी। मुझे उनका आना बेहद पसंद था क्योंकि वे जब भी आते दुनिया-जहान की राजनीति और संस्कृति की बातें होती। अनिल एक तो काफी पढ़े-लिखे थे हम सबों में सबसे ज्यादा शिक्षित साथ ही बेहद सहज एवं विनम्र। वहीं प्रेरणा में उन्होंने अपनी एक और चर्चित कविता ‘एक इकबालिया बयान’ का बेहद प्रभावशाली पाठ किया था। प्रेरणा में उस वक्त काफी साथी हुआ करते थे। इसके अलावा दूसरे रंग संगठनों-छात्र संगठनों के लोगों का काफी आना-जाना लगा रहता। मैं भी तब वहीं था। अनिल के आने का फायदा ये होता कि बाकी लड़कों के सामने वे अक्सर राजनीति संबंधी बातें छेड़ते जिसमें बाकी साथियों को भी बहस में हिस्सा लेना पड़ता । मुझे इस बात से संतोष था कि चलो इसी बहाने साथियो का राजनीतिकरण हो रहा है। वैसे भी रंगकर्मियों में व्यापक सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों के प्रति एक उदासीनता की प्रवृत्ति रहती है। प्रेरणा में सचेत रूप से इन सरोकारों पर बातें करने की कोशिश की जाती।
धीरे-धीरे अनिल ने मुझसे भी वामपंथ के भीतर के वैचारिक सवालों पर बहस करना प्रारंभ किया। मुझे याद है एक दिन अनिल ने कहा ‘‘हम लोग तो मानते हैं कि भारत एक अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक देश है आप लोग क्या मानते हैं?’ अनिल का जुड़ाव उस वक्त नक्सलवाद की गैरसंसदीय धारा के एक प्रमुख धड़ा (सी.पी.आइ.एम.एल.-पार्टी यूनिटी) से था। बाद में इसी धड़े के प्रयासों के कारण सी.पी.आई. (माओवादी) के रूप में नये संगठन का आर्विभाव हुआ। मेरी उस वक्त तक देश के शासक वर्ग के चरित्र के सवालों पर उतनी कुछ खास समझदारी नहीं थी लेकिन अनिल के इस सवाल से मैं थोड़ा उलझन में था। ये बातें संभवतः 1998 के जनवरी महीने की रही होगी क्योंकि मुझे याद है कि मैं नवादा चुनाव के दौरान अपने कई साथियो से इस सवाल पर खूब बातें किया करता। वहीं सी.पी.एम. के इस सूत्रीकरण से परिचय हुआ कि भारत के शासक वर्ग का वर्गीय चरित्र बुर्जआ-सामंती है या इजारेदार-सामंती है। सी.पी.एम. के जिस राजनैतिक कार्यकर्ता ने इस विषय में मेरी उस समय सबसे ज्यादा समझ बढ़ायी वे थे कामरेड सियाराम ठाकुर। वे मेरे ही इलाके बिक्रम के रहने वाले थे। कई सालों बाद बिक्रम में ही सियाराम ठाकुर की सामंतों द्वारा हत्या कर दी गयी।
इसी दौरान मेरी अनिल से एक दिन ‘प्रेरणा’ से निकलने के बाद गांधी मैदान के भीतर काफी तीखी बहस हो गयी थी। लेकिन कुछ दिनों के बाद ही सब कुछ सामान्य हो गया। पहली बार अपनी संस्था से इतर शिक्षा संबंधी एक सेमिनार में अनिल ने बतौर वक्ता भी आमंत्रित किया था जिसमें मेरे अलावा विनय कंठ भी उसमें मौजूद थे। पटना कालेज सेमिनार हाल में हुए इस सेमिनार के अंत में अनिल ने बेहद प्रभावी ढ़ंग से कुछ गहरी बातें की जो उस वक्त के काफी कम लोग सोच भी पाते थे। अनिल रंगमंच के साथ-साथ छात्रों के संगठन डी.एस.यू. में भी सक्रिय थे। उनकी बातों का छात्र-नौजवानों पर खासा प्रभाव पड़ता। एक बार पटना कालेजिएट के बाहर कुछ नौजवानों केा हिंसा के पेचीदे सवाल को जिस तार्किक ढ़ंग से अनिल ने समझाया उससे हम सभी उनकी गहरी समझ के कायल हो गए।
1997 के दौरान अनिल से दोस्ती काफी बढ़ गयी। वो  भारत की आजादी का पचासवां साल था। जे.एन.यू. छात्र संघ के दो बार अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर की उसी वर्ष सीवान में मार्च में हत्या हो चुकी थी। गदर को भी उसी दौरान गोली लगी थी। वो काफी हलचलों भरा साल था। ‘प्रेरणा’ और अनिल की संस्था ‘अभिव्यक्ति’ ने मिलकर आजादी की 50वीं सालगिरह सरकारी उत्सवों के समांतर ‘जनोत्सव’ तय किया। ‘अभिव्यक्ति’ से हमारा परिचय अमिताभ के माध्यम से पहले ही हो चुका था। अनिल अमिताभ का बहुत सम्मान करते थे। लेकिन ये भी कहते कि ‘‘अभिव्यक्ति में पार्टी लाइन को उन्होंने इतना कड़ाई से लागू कर दिया कि सारे लड़के इधर-एधर हो गए।’’
‘जनोत्सव’ बेहद सफल सांस्कृतिक आयोजन रहा। हमने उसमें एक सप्ताह तक प्रतिदिन नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, सेमिनार और डाक्यूमेंट्री फिल्मों का आयोजन किया। आनंद पटवर्द्धन की की चर्चित डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘राम के नाम’ और ‘बंबई आवर सिटी’ का प्रदर्शन किया गया था। हमसबों का आनंद पटवर्द्धन के काम से परिचित होने का संभवतः पहला मौका था। इन दोनों फिल्मों के कैसेट का जुगाड़ अनिल ने ही किया था। इन फिल्मों केा हम लोगों ने वी.डी.ओ. पर देखा तब सी.डी. का चलन न था। ‘बंबई आवर सिटी’ फिल्म में हमने मराठी गायक विलास घोघरे को गाते सुना था। उसी दौरान उनके आत्महत्या की खबर आयी थी जो उन्होंने मुंबई में आंबेडकर की मूर्ति को जूतों की माला पहनाए जाने के विरोध में कर लिया था। अनिल धीरे-धीरे अभिव्यक्ति की थोड़ी निष्क्रिय पड़ी टीम को लगातार सक्रिय कर रहे थे। उसी ‘जनोत्सव’ के साप्ताहिक आयोजन में अनिल से कृश्न चंदर की कहानी पर आधारित चर्चित नाटक ‘गड्ढा’ का बेहद सफल मंचन किया था। उस नाटक में संभवतः अरविंद झा भी और वासदेव भी। बहुत बाद में वासदेव ने अरविंद की अपने एक और साथी के साथ मिलकर पैसों की खातिर बड़े नृशंस तरीके से हत्या कर दी थी। अरविंद अपने मां-बाप का इकलौता लड़का था। अरविंद के अपहरण से प्राप्त फिरौती से वे लोग कोई फिल्म बनाना चाहते थे।
अनिल ने आर्ट कालेज के आंदोलन में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। वहीं उसकी भेंट संन्यासी रेड से हुई और दोनों में नजदीकियां काफी बढ़ गयी थी।  अनिल के कारण ही संन्यासी में थोड़ी राजनैतिक चेतना आयी। अनिल के मरने पर संन्यासी बहुत ज्यादा दुःखी थे। एक्जीविशन रोड पर वे एक रिक्शे पर निढाल से दिखे। मैंने उन्हें उतना दुःखी होते फिर कभी नहीं देखा।
अनिल की मौत के बाद हुए शोकसभा में हिस्सा लेने मैं चुनाव प्रचार के बीच में चला आया था इस बात को लेकर हमारे अपने साथियो से काफी तीव्र मतभेद उभर आए। एकाध लोगों का मानना था कि चुनाव प्रचार को छोड़ कर जाना कतई जरूरी नहीं है वैसे भी वो लड़का अपनी पार्टी ;ब्च्डद्ध का नहंी नक्सल था। ऐसे तमाम लोग बाद में पार्टी के साथ-साथ प्रेरणा की गतिविधियों से भी काफी दूर चले गए। पटना स्टेशन पर पूरी प्रेरणा की टीम खड़ी थी कि नवादा से लौटने के बाद हमें समस्तीपुर चलना चाहिए मैंने कहा कि मैं अब शोकसभा के बाद ही आउंगा। इस बात को लेकर उभरा मतभेद काफी तीखा एवं कड़वाहट से भर गया।
खैर मैं पटना रूक गया। अनिल की शोकसभा ए.आई.पी.आर.एफ. के पोस्टल पार्क वाले कार्यालय में हुई। वो कार्यालय एक बेहद संकरी गली में था। वहां मैं पहली बार गया था। वहीं साधना, जो उस समय काफी सक्रिय थी, सहित बहुत सारे लोग मिले। अनिल की एक और शोकसभा माध्यमिक शिक्षक संध में हुई जिसमें पटना के काफी लोग मौजूद थे।
अनिल के साथ राजनैतिक मतभेदों के बावजूद हमारी बहुत सारी चीजों पर समझदारी, खासकर सांस्कृतिक एवं थियेटर संबंधी मसलों पर एक समान थी। कई आयोजन हम आगे मिलजुल कर करने की योजना बना ही रहे थे। अंतिम आयोजन भी हमने संयुक्त रूप से ही किया था। अमूमन शाम वे ‘प्रेरणा’ में बिताया करते। रंगमंच के कलाकारों का वैचारिक रूप से भी चेतनशील बनाए बिना हम रंगमंच के लिए स्पेस, बिहार जैसी पिछड़े इलाके में, नहीं बना सकते ये हमारी उस समय भी साफ समझ थी। रंगमंच में सृजनात्मक उंचाई हासिल करने के लिए ये बेहद आवश्यक है कि एक अनुकूल वैचारिक माहौल बनाया जा सके। रंगमंच के कलाकारों में दुनिया के सरोकारों से भी जोड़ने के सवाल को अनिल बेहद प्रमुखता से उठाया करते। रोजमर्रे की मामूली बातों को बड़े राजनैतिक सवालों को जोड़ने की उनकी क्षमता से हम सभी परिचित थे। राजनीति और विचार की दुनिया के पेचीदे मसलों को जिस बोधगम्य भाषा में अनिल अभिव्क्त करते वो दुर्लभ था। उन्होंने खुद दो नाटकों की रचना भी की जिसमें ‘शिक्षा का सर्कस’ और ‘सद्गति’ प्रमुख है। उनकी मौत के पश्चात एक पुस्तिका अभिव्यक्ति के साथियो ने छपवायी थी जिसमें उनकी कुछ कविताएं, नाटक, डायरी प्रकाशित किए गए थे। मेरे पास उनकी केई तस्वीर भी नहीं है।
अनिल ओझा से संस्कृति के सवालों पर जैसी समझदारी विकसित होती जा रही थी यदि वे जीवित रहते हमें आगे और बड़ी पहलकदमियों की ओर ले जाती। अनिल एक कवि थे, नाटककार थे, संगठक थे, राजनैतिक कार्यकर्ता और सबसे बढ़कर दृष्टिसंपन्न संस्कृतिकर्मी थे। उनके साथ मिलने पर लगभग प्रत्येक व्यक्ति  इतनी नजदीकी महसूस करता कि अपने दिल की बात भी उनसे बेधड़क कही जा सकती थी। कई महीने अनिल ने जेल में भी बिताए। पलामू में तेंदू पत्ता के मजदूरों के बीच काम करने का इरादा लेकर वे गए थे। उसी दौरान वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए थे।
मृत्यु के पूर्व जितनी किताबें उन्होंने खरीदी थीं वे किताबें बहुत बाद तक मेरे पास रहीं। डी.डी केशाम्बी की पहली किसी पुस्तक से मेरा परिचय Exasperating essays पुस्तक से हुआ। यह वही किताब थी जो अनिल के मरने के बाद उनके पास से बरामद हुई थी।
आलेख बिहार खोज खबर.कॉम से साभार .

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