पाकिस्तान
के लाहौर से आई अजोका थियेटर के दल को उस प्रेक्षागृह के बाहर ही रोक दिया गया और
उन्हें वापस होटल भेज दिया गया जहां उनके नाटक 'कौन है ये
गुस्ताख' का मंचन होने वाला था. भारंगम के जयपुर संस्करण में
इस प्रस्तुति को 'कट्टरपंथियों' के
दबाव में रद्द किये जाने के बाद बारी दिल्ली की थी. दिल्ली में भी अंतत: प्रशासनिक
दबाव में रानावि ने पाकिस्तान से आई दोनों प्रस्तुतियों 'मंटोरामा'
(नापा, कराची) और 'कौन
है ये गुस्ताख' का मंचन रद्द कर दिया. कारण यह बताया गया कि
दोनों देश के बीच मौजुदा विवाद को देखते हुए
पाकिस्तानी कलाकारों की सुरक्षा एक संवेदनशील मसला है. एक अन्य प्रकरण में इसी तरह
हाकी लीग खेलने आए पाकिस्तानी खिलाड़ियों को भी वापस भेज दिया गया. आखिर क्यों?
क्या यह जनाकांक्षा है कि पाकिस्तानी नाटय दल भारत में प्रस्तुति ना
करे, कतई नहीं। क्योंकि भारंगम में इन नाटकों की बुकिंग जब
शुरु हुई विवाद जारी था लेकिन फिर भी इन दोनों नाटकों के टिकट बिकने में देर नहीं
लगी. कुछ सज्जन ऐसे भी थे जो इस उत्सव में सिर्फ पाकिस्तानी नाटक को देखने के लिये
ही टिकट कटाया था. पाकिस्तानी नाटकों के प्रति दर्शकीय उत्सुकता हमेशा रहती है।
कुछ वर्ष पहले उच्च स्तरीय सुरक्षा के बीच और देर रात का शो होने के बावजूद तब
मेट्रो की सुविधा नहीं थी, भारंगम में 'जिस लाहौर नई देख्या' का मंचन देखने के लिए लोग
इकठ्ठा हुए थे। हर वर्ष पाकिस्तानी रंग दल भारंगम में आता है और अपनी कच्ची पक्की
प्रस्तुतियों के बावजुद खुले हाथ से प्रशंसा बटोर कर ले जाता है। वह चाहे
सुरुचिपुर्ण ढंग से किया गया नाटक 'शकुंतला' हो या राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व नाटक 'दारा',
होटल मोहनजोदड़ों जैसी साधारण प्रस्तुति हो या 'इंशा का इंतजार' जैसी स्तरीय प्रस्तुति सभी की
दर्शकों ने सराहाना की। अजोका थियेटर की ही पिछले
भारंगम में की गई प्रस्तुति 'रंग दे बसंती चोला' जो भगत सिंह पर आधारित थी पर दर्शकों ने कमानी के अंदर ‘इंकलाब जिन्दाबाद’
के नारे लगाए और प्रस्तुति की समाप्ति के बाद माहौल ऐसा बना कि ढोल की धुन पर
दर्शक और अभिनेता वहीं नाचने लगे। अब आप अनुमान लगाइए कि वह कौन सा तार है जो
दर्शकों की इन प्रस्तुतियों से जोड़ता है। निश्चय ही साझेपन का भाव, पाकिस्तानी नाटकों में अक्सर विभाजन की कसक और अभिव्यक्ति के दमघोंटु
माहौल का संदर्भ मिलता है। यह संदर्भ यहां के दर्शकों की भी कसक है, इसलिए जब वहां आते है तो खुले माहौल मिलता है और दर्शकों से उनका
तादात्म्य होता है। इसलिए यह जनाकांक्षा तो नहीं थी, जनकांक्षा
यह है कि भारत सरकार चाक चौबंद व्यवस्था में यह प्रस्तुति संपन्न करवाती ताकि
कट्टरपंथियों को एक सबक मिलती और पड़ोसी मुल्क को एक संदेश भी। आखिर कोई ना कोई तार
तो जोड़े रखना चाहिए दोनों देश की आवाम के बीच, लेकिन सरकार
और रानावि ने इन प्रस्तुतियों को रद्द करके एक ऐतिहासिक मौके को गंवा कर अपनी
कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति को जताया है।
उन कलाकारों की तरफ से सोचिए, जो होटलों में बंद है और प्रेस के सवालों का सामना कर रहें हैं। जिन्हें पता है कि उनके लिये दर्शक है यहां और उन्हें मंच ही नहीं मिला, यह अपराध है कि कलाकार को अभिव्यक्ति करने का आप मौक ही नहीं दे रहे। इससे उपजी हताशा को दूर करने के लिये ही पाकिस्तानी अभिनेता स्कूल में बच्चों को कहानियां सुना रहा है. रानावि ने सरकार से अतिरिक्त सुरक्षा बहाल करने के बजाए सरकर की नीति पर ही चलना अमल किया। जबकि एक स्वायत्त संस्थान होने के नाते उसे चाहिए कि सरकार को आगाह करते कि कला की यह पहल कितनी दूरगामी हो सकती है. रानावि ने आसान विकल्प चुना क्योंकि उसके मौजुदा निजाम के लिये यहीं विकल्प चुनना सार्थक है क्योंकि जिस प्रकार के रंगमंच को प्रोत्साहन यह दे रही है और जिस तरह से संसाधन और पैसे का बेजा इस्तेमाल हो रहा है इस हालत में रानावि के लिये सरकारी फैसले को मान लेना ही उचित है. इसका व्यवहार 'मेफिस्टो' फिल्म के उस नायक की याद दिलाता है जो राष्ट्रीय रंगमंच की स्थापना के लिये राय पर इतना निर्भर होता है कि वह उसके हाथ में खेलने लगता है और उसकी नीतियों को लागू करने का हथियार बन जता है।
रंगमंच जैसी कला के लिये यह फ़ैसला दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि उसका स्वर हमेशा जनता के समर्थन में और राय के विपक्ष में रहा है. एक समुदायिक कला होने के नाते यह नाटक ऐसे वक्त में समुदाय की साझी भावना को पुष्ट कर यह संदेश दे सकता था कि युध्द की जगह दोनों मुल्कों को करीब लाने के विकल्प को खोजा जाना चाहिये. दोनों देशों के हुक्मरानों की सियासती मंशा के लिये यह ठीक नहीं।
उन कलाकारों की तरफ से सोचिए, जो होटलों में बंद है और प्रेस के सवालों का सामना कर रहें हैं। जिन्हें पता है कि उनके लिये दर्शक है यहां और उन्हें मंच ही नहीं मिला, यह अपराध है कि कलाकार को अभिव्यक्ति करने का आप मौक ही नहीं दे रहे। इससे उपजी हताशा को दूर करने के लिये ही पाकिस्तानी अभिनेता स्कूल में बच्चों को कहानियां सुना रहा है. रानावि ने सरकार से अतिरिक्त सुरक्षा बहाल करने के बजाए सरकर की नीति पर ही चलना अमल किया। जबकि एक स्वायत्त संस्थान होने के नाते उसे चाहिए कि सरकार को आगाह करते कि कला की यह पहल कितनी दूरगामी हो सकती है. रानावि ने आसान विकल्प चुना क्योंकि उसके मौजुदा निजाम के लिये यहीं विकल्प चुनना सार्थक है क्योंकि जिस प्रकार के रंगमंच को प्रोत्साहन यह दे रही है और जिस तरह से संसाधन और पैसे का बेजा इस्तेमाल हो रहा है इस हालत में रानावि के लिये सरकारी फैसले को मान लेना ही उचित है. इसका व्यवहार 'मेफिस्टो' फिल्म के उस नायक की याद दिलाता है जो राष्ट्रीय रंगमंच की स्थापना के लिये राय पर इतना निर्भर होता है कि वह उसके हाथ में खेलने लगता है और उसकी नीतियों को लागू करने का हथियार बन जता है।
रंगमंच जैसी कला के लिये यह फ़ैसला दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि उसका स्वर हमेशा जनता के समर्थन में और राय के विपक्ष में रहा है. एक समुदायिक कला होने के नाते यह नाटक ऐसे वक्त में समुदाय की साझी भावना को पुष्ट कर यह संदेश दे सकता था कि युध्द की जगह दोनों मुल्कों को करीब लाने के विकल्प को खोजा जाना चाहिये. दोनों देशों के हुक्मरानों की सियासती मंशा के लिये यह ठीक नहीं।
उल्लेखनीय यह है कि यह दोनों दल 'मंटो' पर
केंद्रित प्रस्तुतियां ले कर आये थे। मंटो पर इस वर्ष के भारंगम में विशेष फोकस के
तहत रखा गया है। मंटो की यह जन्मशताब्दी का वर्ष है, अभी कुछ
महिनों पहले 'सहमत' ने मंटो की जन्मशताब्दी
पर संगोष्ठी आयोजित की थी। जिसमें दोनों मुल्कों के विशेषज्ञ आये थे जिनमें
पाकिस्तान के और उर्दु के मशहूर कथाकार इंतिजार हुसैन भी थे, रंगमंच पर दोनों मूल्क मिलकर मंटो की प्रस्तुति करते तो दोनों देश की
दृष्टि को उजागर करता, मंटो हमारी साझी विरासत हैं और इस
फैसले ने उन्हें एक बार फिर कांटो की उस बाड़ के बीच में फेंक दिया गया है जहां
टोबा टेक सिंह गिरा था।
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durbhagyapurna... !!!
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