रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 21 जनवरी 2013

अभिव्यक्ति पर परदा


जनसत्ता 21 जनवरी, 2013: राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तत्त्वावधान में जारी भारतीय रंग महोत्सव में दो पाकिस्तानी नाटकों का मंचन हो पाना एक बेहद दुखद घटना है। इससे उन लोगों को तो सदमा लगा ही है जो भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर होते देखना चाहते हैं, हमारे जनतांत्रिक मूल्यों को भी ठेस पहुंची है। हर साल होने वाला यह महोत्सव एशिया का सबसे बड़ा नाट्य समारोह माना जाता है और इसमें सिर्फ देश की विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों की बल्कि दूसरे देशों की भी नाट्य मंडलियां शिरकत करती रही हैं। इसी क्रम में आयोजकों ने पाकिस्तान की जानी-मानी रंग मंडली अजोका और वहां की राष्ट्रीय मंचकला अकादमी को भी आमंत्रित किया था। दोनों संस्थाओं के नाटक उर्दू के मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो के जीवन और उनकी कहानियों पर आधारित थे। मंटो भारत में जनमे, पर विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। उन्होंने विभाजन और सांप्रदायिक हिंसा की त्रासदी पर और मनुष्य के मूलभूत लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में काफी प्रभावी साहित्य रचा। दोनों देशों में वे खूब पढ़े भी जाते रहे हैं। उनकी जन्मशती के उपलक्ष्य में पाकिस्तान में जितने आयोजन हुए, भारत में उससे कम नहीं हुए होंगे। कई साझा कार्यक्रम भी हुए। यहां अनेक अखबारों ने उन पर परिशिष्ट और कई पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले। अपने साहसी लेखन के कारण मंटो को पाकिस्तान में कई दफा अभिव्यक्ति की बाधाओं का सामना करना पड़ा था। क्या दिवंगत मंटो भी बंदिशों से मुक्त नहीं हैं! 
अजोका और एनएपीए के नाटक मंचित होने देने के पीछे सुरक्षा संबंधी दलील दी गई। इसी तर्क पर दिल्ली से पहले जयपुर में भी उन नाटकों का प्रदर्शन ऐन वक्त पर रोक दिया गया था। नियंत्रण रेखा पर हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से उपजे तनाव के माहौल के मद््देनजर पाकिस्तानी नाट्य मंडलियों की प्रस्तुतियों के दौरान सरकार को उपद्रव का अंदेशा था। लेकिन सरकार ने सुरक्षा बंदोबस्त पर ध्यान देने के बजाय संभावित या अनुमानित उपद्रवियों के आगे घुटने क्यों टेक दिए? शिवसेना ने इंडिया हॉकी लीग में खेलने आए पाकिस्तानी खिलाड़ियों को वापस भेजने की मांग करते हुए मुंबई में प्रदर्शन किया था। फिर सरकार ने उन खिलाड़ियों को लौटने को कह दिया। क्या वहां के नाट्यकर्मियों के साथ हुए सलूक के पीछे भी ऐसे ही तत्त्वों का दबाव या डर काम कर रहा था? जब सरकार राष्ट्रमंडल खेल जैसे विशाल आयोजन के समय सुरक्षा का जिम्मा उठा सकती है, तो एक नाट्य समारोह निर्विघ्न संपन्न हो यह क्यों नहीं सुनिश्चित कर सकती? यह गौरतलब है कि कुछ प्रगतिशील छात्र समूहों की पहल पर ये नाटक दूसरी जगहों पर बिना सरकारी सुरक्षा-इंतजाम के मंचित किए गए।
लाहौर के नाट्य-समूह अजोका ने पहले भी कई बार दिल्ली समेत भारत के अनेक शहरों में अपने नाटक मंचित किए हैं, यहां तक कि मुंबई हमले के थोड़े समय बाद भी। ऐसा लगता है कि शिवसेना समेत संघ परिवार के पाकिस्तान के खिलाफ बेहद आक्रामक तेवर से केंद्र सरकार सकते में गई। उसे लगा होगा कि अगर पाकिस्तान को सख्त संदेश नहीं दिया गया तो राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। पर कड़े संदेश का मतलब यह नहीं कि कटु संदेश दिया जाए। चाहे पैंसठ साल से ऊपर के नागरिकों के लिए आगमन-वीजा पर रोक लगाने का फैसला हो या पाकिस्तान के हॉकी खिलाड़ियों को खेलने देने और वहां के रंगकर्मियों के प्रदर्शन रोकने का, सरकारने कूटनीतिक परिपक्वता दिखाने के बजाय उन्मादी तत्त्वों के आगे झुक जाने की कमजोरी दिखाई है।                                                               जनसत्ता से साभार.

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