पुंज प्रकाश
अपवादों को छोड़ दिया जाय तो हिंदी समाज में रंगमंच आर्थिक मामलों में कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया और ना हीं कभी आवाम की ज़रूरतों में ही शामिल हो पाया है। इसीलिए टिकट खरीदकर नाटक देखने की प्रथा का विकास होना संभव ही नहीं हुआ। इसके केन्द्र में रंगमंच का अव्यावसायिक चरित्र के साथ ही साथ रंगकर्मियों के अंदर स्वयंतसूखाय विशिष्टताबोध है। वहीं कला और संस्कृति के प्रति समाज और सरकार का क्या नज़रिया है यह बात भी किसी से छुपी नहीं है।
कभी पारसी रंगमंच और नौटंकी अपने पैरों पर खड़े थे लेकिन सभ्य और आधुनिकता का चोला धारण किए रंगकर्मियों ने अमूमन इसे हेय दृष्टी से ही देखा और पश्चिम की हास्यास्पद नक़ल करने में ही अपनी महानता समझी। हालांकि यह भी सच है कि व्यावसायिक कला की अपनी शर्तें, ज़रूरतें, जोड़-तोड़ और खूबियां-खामियां हैं जिसे स्वीकार करना सबके वश की बात नहीं। किन्तु समय-समय पर ऐसी नाट्य मंडलियां विकसित हुईं जिसने अपनी शर्तों पर रंगमंच किया और व्यावसायिक सफलता भी अर्जित किया। बिहार के लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के रंगमंच को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। किन्तु समस्या यह है कि हमने रंगमंच की इस परम्परा को विकसित करना तो दूर, ओपनिवेशिक मानसिकता से सराबोर हो ‘नचनियां-बजनियां’ जैसी घटिया उपाधियों से ज़्यादा भाव नहीं दिया।
जिस प्रकार भारतीय समाज में कई वर्ग हैं ठीक उसी प्रकार भारतीय रंगमंच के अंदर ही अघोषित रूप से वर्गों का निर्धारण हो रखा है। यहाँ रंगमंच की कई धाराएं प्रवाहित होतीं हैं - कोई ब्रह्मण है, कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य तो कोई शुद्र। इन सबमें एक बात कॉमन है कि जितनी भी नाट्य संस्थाएं कार्यरत है उनका मूल चरित्र अमूमन व्यक्ति केंद्रित है। एक खास व्यक्ति उस संस्था पर मालिकाना हक रखता है और बाकि या तो वहां सहयोगी की भूमिका में होते हैं या फिर मज़दूर की भूमिका में। किसी ज़माने में उस व्यक्ति को मलिकजी की उपाधि प्राप्त थी और आज निर्देशक की। इनकी इच्छा ही संस्थाओं का संविधान है। जो इसका सम्मान करता है वह साथ है नहीं तो बाहर।
संस्कृत नाटकों के काल में कला और संस्कृति ‘राज’ के संरक्षण में पोषित था वहीं कुछ को धार्मिक स्थलों का संरक्षण भी मिला। बाकि जो पारंपरिक कलाएं थी उनके संरक्षण और विकास पर कभी ढंग से बात ही नहीं होती। अंग्रेज़ी राज में भारतीय कला-संस्कृति कलाकारों के जुनून के सहारे ज़िंदा रही और यही जूनून आज भी कायम है। किन्तु जहाँ तक अर्थ का सवाल है वहां स्थिति दैनीय ही है। फिर कई सारी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं अस्तित्व में आईं और कला-संस्कृति के विकास और प्रश्रय देने के लिए विभिन्न प्रकार के अनुदान देने की घोषणा की। खैरात की तरह यह अनुदान बांटे जाने लगे और कमिशनखोरी नामक सांस्कृतिक भ्रष्टाचार बड़े ही शान से पनपने लगे। लोग बड़े गर्व के साथ अपने शिष्यों या शिष्य के शिष्यों को अनुदान से अनुग्रहित करने लगे और शिष्य इसे भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करने लगे। भगवान को प्रसाद चढ़ाने की महान भारतीय परम्परा का विकास यहाँ भी ज़ोर-शोर से होने लगा। जिन्हें प्रसाद मिला वो जय-जयकार में और जिन्हें नहीं मिला वो ‘मुर्दाबाद’ में व्यस्त हो गए। इस बात से भी कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ लोग और संस्थाएं आज भी है जो अनुदान के पैसे का समुचित इस्तेमाल करतीं है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि एक अर्ध-सामंती, अर्ध-ओपनिवेशिक और पूंजीवादी समाज में पूँजी की भूमिका निर्णायक होती है। इस प्रभाव से हमारे व्यक्तिगत सम्बन्ध भी अछूते नहीं रहते। संस्थाएं चुकी व्यक्तिगत इच्छा से संचालित हैं इसलिए इनको मिला अनुदान पर भी किसी एक व्यक्ति का मालिकाना हक हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। अब यह उस व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर होने लगा है कि वह ग्रांट रूपी प्रसाद का अकेले सेवन करे या सामूहिक। नैतिकता के पतन, सामूहिकता का गर्वपात और भ्रष्टाचार की सामूहिक स्वीकृति वाले वर्तमान समय में नाट्य संस्थानों का एक एनजीओ के रूप में परिवर्तित हो जाना दुखद तो है किन्तु आश्चर्यजनक नहीं।
ज्ञातव्य है कि भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर दिए जा रहे यह सरकारी अनुदान जनता की गाढ़ी कमाई का हिस्सा हैं जिन्हें चंद मौकापरस्त लोगों ने बंदरबांट का खेल बना रखा है। अनुदान किसे दिया जा रहा है और सही जगह पर खर्च हो रहें हैं या नहीं इसकी चिंता किसी को नहीं। जैसे-तैसे नाटक करके अनुदान ग्रहण करनेवाली संस्था कुछ प्रमाणों के साथ खर्चे का व्योरा भेज देतीं हैं और अगले अनुदान की चिंता में व्यस्त हो जातीं हैं। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार का बोलबाला नहीं तो और क्या होगा? आखिर यह किसकी ज़िम्मेदारी है कि वो यह देखे कि जिस व्यक्ति या संस्था ने अनुदान के लिए आग्रह किया है वह उसके योग्य भी है या नहीं। वैसे रंगकर्मियों के नैतिक पतन के उदाहरणों की भी आज कोई कमी नहीं है। जिस चीज़ के लिए अनुदान दिया गया है उसकी उस व्यक्ति या संस्था के पास कोई समझ हो न हो, जैसे तैसे नाटक करके, अखबार की कतरन, चंद फोटो, ब्रोशर आदि प्रमाणपत्र के रूप में संलग्न कर दिया जाता है, बस बन गया काम। कहने का अर्थ यह कि सारा काम कागज़ी और यथार्थ हवा-हवाई व कमाई करने का साधन बन गया है।
रंगमंडल अनुदान की हालत तो और भी खराब हैं। इसके तहत किसी समूह को रंगमंडल चलाने के लिए अनुदान दिया जाता है। जिसमें एक निर्देशक समेत कई कलाकारों को आर्थिक सहायता प्रदान किया जाता है। किन्तु कई समूहों में इस अनुदान की हालत यह कि निर्देशक छोड़ किसी भी अभिनेता या अन्य को उतने राशि का भुगतान नहीं किया जाता जीतने पर कि वह हस्ताक्षर करता है। निर्देशक इतनी भी राशि इस गर्व के साथ अभिनेताओं को प्रदान करता है जैसे वो अपनी ज़मीन बेचकर दे रहा हो और यह एक एहसान है जिसे इन तुच्छ अभिनेताओं को जीवनभर याद रखना चाहिए। किसी ने मुंह खोला तो बाहर का दरवाज़ा खुला हुआ है। निर्देशक चंद पैसों पर किसी भी अभिनेता को नचा सकता है और अपनी मर्ज़ी सब पर लाद सकता है, ऐसी अघोषित संविधान है। वहीं ऐसे अभिनेताओं की भी कमी नहीं जो पैसे के लिए किसी के पास भी नाच सकते हैं। दुखद सच तो यह है कि इस खेल में राष्ट्रीय स्तर के कई दिग्गज और सम्मानित रंगकर्मी बड़े गर्व से शामिल हैं और नाट्यचिन्तक मौन। ऐसे समय में नैतिकता का सारा भार नई पौध पर नहीं थोपा जा सकता।
जिस समाज और व्यवस्था के कण-कण में भ्रष्टाचार का प्रवेश हो चुका है वहां कोई एक अंग दूध का धुला होगा ऐसा, यह संभव नहीं। इस व्यवस्था के कण-कण में दीमक लग चुका है जिसे केवल पूंजी और ताकत की भाषा सुनाई पड़ती है, बिना इसे बदले किसी भी प्रकार के बदलाव की आशा दिवास्वप्न होगा। जिनलोगों ने विकास का फरेब करके पुरे देश को विदेशी ताकतों के हाथों में गिरवी रख-रखा है उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है। इतिहास गवाह है कि इस व्यस्था में चीज़ें ऐसी ही चली हैं और ऐसे ही चलेगीं। सरकारें या सरकारी पदों पर कुछ लोग बदल जाने ने व्यवस्था नहीं बदलती। मूल प्रश्न यह है कि क्या हमें इसी व्यवस्था में जोड़ तोड़ करके जीवनयापन और रंगकर्म करना है या इसे बदलने के लिए अपनी यथासंभव उर्जा लगानी हैं। भ्रष्टाचार का जिन्न ऊपर से नीचे की यात्रा करता है इसलिए जबतक कोई सामाजिक बदलाव नहीं होता तबतक कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए मठ और गढ़ तोड़ने होगें वरना जो कुछ चल रहा है उसे रोकना असंभव है। हां, छोटे-मोटे सुधार हो सकते हैं लेकिन सुधार का अर्थ फटे-सड़े कपड़े पर चिप्पी साटने से ज़्यादा कुछ नहीं होगा।
अपवादों को छोड़ दिया जाय तो हिंदी समाज में रंगमंच आर्थिक मामलों में कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया और ना हीं कभी आवाम की ज़रूरतों में ही शामिल हो पाया है। इसीलिए टिकट खरीदकर नाटक देखने की प्रथा का विकास होना संभव ही नहीं हुआ। इसके केन्द्र में रंगमंच का अव्यावसायिक चरित्र के साथ ही साथ रंगकर्मियों के अंदर स्वयंतसूखाय विशिष्टताबोध है। वहीं कला और संस्कृति के प्रति समाज और सरकार का क्या नज़रिया है यह बात भी किसी से छुपी नहीं है।
कभी पारसी रंगमंच और नौटंकी अपने पैरों पर खड़े थे लेकिन सभ्य और आधुनिकता का चोला धारण किए रंगकर्मियों ने अमूमन इसे हेय दृष्टी से ही देखा और पश्चिम की हास्यास्पद नक़ल करने में ही अपनी महानता समझी। हालांकि यह भी सच है कि व्यावसायिक कला की अपनी शर्तें, ज़रूरतें, जोड़-तोड़ और खूबियां-खामियां हैं जिसे स्वीकार करना सबके वश की बात नहीं। किन्तु समय-समय पर ऐसी नाट्य मंडलियां विकसित हुईं जिसने अपनी शर्तों पर रंगमंच किया और व्यावसायिक सफलता भी अर्जित किया। बिहार के लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के रंगमंच को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। किन्तु समस्या यह है कि हमने रंगमंच की इस परम्परा को विकसित करना तो दूर, ओपनिवेशिक मानसिकता से सराबोर हो ‘नचनियां-बजनियां’ जैसी घटिया उपाधियों से ज़्यादा भाव नहीं दिया।
जिस प्रकार भारतीय समाज में कई वर्ग हैं ठीक उसी प्रकार भारतीय रंगमंच के अंदर ही अघोषित रूप से वर्गों का निर्धारण हो रखा है। यहाँ रंगमंच की कई धाराएं प्रवाहित होतीं हैं - कोई ब्रह्मण है, कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य तो कोई शुद्र। इन सबमें एक बात कॉमन है कि जितनी भी नाट्य संस्थाएं कार्यरत है उनका मूल चरित्र अमूमन व्यक्ति केंद्रित है। एक खास व्यक्ति उस संस्था पर मालिकाना हक रखता है और बाकि या तो वहां सहयोगी की भूमिका में होते हैं या फिर मज़दूर की भूमिका में। किसी ज़माने में उस व्यक्ति को मलिकजी की उपाधि प्राप्त थी और आज निर्देशक की। इनकी इच्छा ही संस्थाओं का संविधान है। जो इसका सम्मान करता है वह साथ है नहीं तो बाहर।
संस्कृत नाटकों के काल में कला और संस्कृति ‘राज’ के संरक्षण में पोषित था वहीं कुछ को धार्मिक स्थलों का संरक्षण भी मिला। बाकि जो पारंपरिक कलाएं थी उनके संरक्षण और विकास पर कभी ढंग से बात ही नहीं होती। अंग्रेज़ी राज में भारतीय कला-संस्कृति कलाकारों के जुनून के सहारे ज़िंदा रही और यही जूनून आज भी कायम है। किन्तु जहाँ तक अर्थ का सवाल है वहां स्थिति दैनीय ही है। फिर कई सारी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं अस्तित्व में आईं और कला-संस्कृति के विकास और प्रश्रय देने के लिए विभिन्न प्रकार के अनुदान देने की घोषणा की। खैरात की तरह यह अनुदान बांटे जाने लगे और कमिशनखोरी नामक सांस्कृतिक भ्रष्टाचार बड़े ही शान से पनपने लगे। लोग बड़े गर्व के साथ अपने शिष्यों या शिष्य के शिष्यों को अनुदान से अनुग्रहित करने लगे और शिष्य इसे भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करने लगे। भगवान को प्रसाद चढ़ाने की महान भारतीय परम्परा का विकास यहाँ भी ज़ोर-शोर से होने लगा। जिन्हें प्रसाद मिला वो जय-जयकार में और जिन्हें नहीं मिला वो ‘मुर्दाबाद’ में व्यस्त हो गए। इस बात से भी कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ लोग और संस्थाएं आज भी है जो अनुदान के पैसे का समुचित इस्तेमाल करतीं है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि एक अर्ध-सामंती, अर्ध-ओपनिवेशिक और पूंजीवादी समाज में पूँजी की भूमिका निर्णायक होती है। इस प्रभाव से हमारे व्यक्तिगत सम्बन्ध भी अछूते नहीं रहते। संस्थाएं चुकी व्यक्तिगत इच्छा से संचालित हैं इसलिए इनको मिला अनुदान पर भी किसी एक व्यक्ति का मालिकाना हक हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। अब यह उस व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर होने लगा है कि वह ग्रांट रूपी प्रसाद का अकेले सेवन करे या सामूहिक। नैतिकता के पतन, सामूहिकता का गर्वपात और भ्रष्टाचार की सामूहिक स्वीकृति वाले वर्तमान समय में नाट्य संस्थानों का एक एनजीओ के रूप में परिवर्तित हो जाना दुखद तो है किन्तु आश्चर्यजनक नहीं।
ज्ञातव्य है कि भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर दिए जा रहे यह सरकारी अनुदान जनता की गाढ़ी कमाई का हिस्सा हैं जिन्हें चंद मौकापरस्त लोगों ने बंदरबांट का खेल बना रखा है। अनुदान किसे दिया जा रहा है और सही जगह पर खर्च हो रहें हैं या नहीं इसकी चिंता किसी को नहीं। जैसे-तैसे नाटक करके अनुदान ग्रहण करनेवाली संस्था कुछ प्रमाणों के साथ खर्चे का व्योरा भेज देतीं हैं और अगले अनुदान की चिंता में व्यस्त हो जातीं हैं। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार का बोलबाला नहीं तो और क्या होगा? आखिर यह किसकी ज़िम्मेदारी है कि वो यह देखे कि जिस व्यक्ति या संस्था ने अनुदान के लिए आग्रह किया है वह उसके योग्य भी है या नहीं। वैसे रंगकर्मियों के नैतिक पतन के उदाहरणों की भी आज कोई कमी नहीं है। जिस चीज़ के लिए अनुदान दिया गया है उसकी उस व्यक्ति या संस्था के पास कोई समझ हो न हो, जैसे तैसे नाटक करके, अखबार की कतरन, चंद फोटो, ब्रोशर आदि प्रमाणपत्र के रूप में संलग्न कर दिया जाता है, बस बन गया काम। कहने का अर्थ यह कि सारा काम कागज़ी और यथार्थ हवा-हवाई व कमाई करने का साधन बन गया है।
रंगमंडल अनुदान की हालत तो और भी खराब हैं। इसके तहत किसी समूह को रंगमंडल चलाने के लिए अनुदान दिया जाता है। जिसमें एक निर्देशक समेत कई कलाकारों को आर्थिक सहायता प्रदान किया जाता है। किन्तु कई समूहों में इस अनुदान की हालत यह कि निर्देशक छोड़ किसी भी अभिनेता या अन्य को उतने राशि का भुगतान नहीं किया जाता जीतने पर कि वह हस्ताक्षर करता है। निर्देशक इतनी भी राशि इस गर्व के साथ अभिनेताओं को प्रदान करता है जैसे वो अपनी ज़मीन बेचकर दे रहा हो और यह एक एहसान है जिसे इन तुच्छ अभिनेताओं को जीवनभर याद रखना चाहिए। किसी ने मुंह खोला तो बाहर का दरवाज़ा खुला हुआ है। निर्देशक चंद पैसों पर किसी भी अभिनेता को नचा सकता है और अपनी मर्ज़ी सब पर लाद सकता है, ऐसी अघोषित संविधान है। वहीं ऐसे अभिनेताओं की भी कमी नहीं जो पैसे के लिए किसी के पास भी नाच सकते हैं। दुखद सच तो यह है कि इस खेल में राष्ट्रीय स्तर के कई दिग्गज और सम्मानित रंगकर्मी बड़े गर्व से शामिल हैं और नाट्यचिन्तक मौन। ऐसे समय में नैतिकता का सारा भार नई पौध पर नहीं थोपा जा सकता।
जिस समाज और व्यवस्था के कण-कण में भ्रष्टाचार का प्रवेश हो चुका है वहां कोई एक अंग दूध का धुला होगा ऐसा, यह संभव नहीं। इस व्यवस्था के कण-कण में दीमक लग चुका है जिसे केवल पूंजी और ताकत की भाषा सुनाई पड़ती है, बिना इसे बदले किसी भी प्रकार के बदलाव की आशा दिवास्वप्न होगा। जिनलोगों ने विकास का फरेब करके पुरे देश को विदेशी ताकतों के हाथों में गिरवी रख-रखा है उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है। इतिहास गवाह है कि इस व्यस्था में चीज़ें ऐसी ही चली हैं और ऐसे ही चलेगीं। सरकारें या सरकारी पदों पर कुछ लोग बदल जाने ने व्यवस्था नहीं बदलती। मूल प्रश्न यह है कि क्या हमें इसी व्यवस्था में जोड़ तोड़ करके जीवनयापन और रंगकर्म करना है या इसे बदलने के लिए अपनी यथासंभव उर्जा लगानी हैं। भ्रष्टाचार का जिन्न ऊपर से नीचे की यात्रा करता है इसलिए जबतक कोई सामाजिक बदलाव नहीं होता तबतक कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए मठ और गढ़ तोड़ने होगें वरना जो कुछ चल रहा है उसे रोकना असंभव है। हां, छोटे-मोटे सुधार हो सकते हैं लेकिन सुधार का अर्थ फटे-सड़े कपड़े पर चिप्पी साटने से ज़्यादा कुछ नहीं होगा।
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