रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

आज भी फिल्मों में पारसी नाटक के तत्व


फिल्मों की सफलता का पासपोर्ट ‘आइटम सॉन्ग’ है पारसी थियेटर

हिन्दी फिल्मों की सफलता के लिए पासपोर्ट बन चुके ‘आइटम सॉन्ग’ की जड़ें दरअसल पारसी थियेटर तक जाती है और आज भले ही सिनेमा और रंगमंच से इस प्राचीन शैली के अभिनय के तत्व गायब हो गये हों लेकिन इस नाट्य शैली के गाने गाकर अपनी भावनाओं से दर्शकों को उद्वेलित करने की अदा आज भी कायम है।

हिन्दी रंगमंच के शीर्ष नाट्यकार और फिल्म निदेर्शक रंजीत कपूर ने भाषा को बताया, ‘‘हमारी आधुनिक हिन्दी फिल्में पश्चिम के रिएलिज्म से प्रभावित दिखने लगी है लेकिन आज भी यह पारसी थियेटर की, गाना गाकर बात कहने की परंपरा को कायम रखे हुए है। पारसी थियेटर में गाना एक अहम तत्व था और इसमें अभिनेता अपनी गूढ़ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गाने का सहारा लेते थे।’’

वर्ष 2005 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाजे गये कपूर ने कहा कि आज भी हिन्दी सिनेमा में फिल्म निदेर्शक, अभिनेताओं की भावनाओं की अभिव्यक्ति देने के लिए गाने का इस्तेमाल करते हैं जिस परंपरा को पारसी थियेटर ने दर्शकों के मन में स्थापित किया था।

उनकी इस बात से सहमति व्यक्त करते हुए अभिनेता रघुवीर यादव ने बताया, ‘‘पारसी थियेटर में एक अभिनेता के लिए एक अच्छा गायक होना बेहतर माना जाता था क्योंकि आधी कहानी गानों में ही चलती थी। पारसी थियेटर का ही प्रभाव है कि आज हमारे हिन्दी फिल्मों में गाने का भरपूर प्रयोग किया जाता है। गानों के बगैर आज भारतीय दर्शक फिल्म को अधूरा मानते हैं।’’

अभिनेता अन्नू कपूर ने कहा, ‘‘औपनिवेशिक काल में भारत के हिन्दी क्षेत्र के विशेष लोकप्रिय कला माध्यमों में आज के आधुनिक रंगमंच और फिल्मों की जगह आल्हा, कव्वाली मुख्य थे। लेकिन पारसी थियेटर आने के बाद दर्शकों में गाने के माध्यम से बहुत सी बातें कहने की परंपरा चल पड़ी जो दर्शकों में लोकप्रिय होती चली गयी। बाद में 1930 के दशक में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा शुरू हुई और फिल्मों में भी इस विरासत को नये तरह से अपना लिया गया।’’

रंजीत कपूर ने कहा कि वर्ष 1853 में अपनी शुरुआत के बाद से पारसी थियेटर धीरे धीरे एक मोबाइल थियेटर का रूप लेता चला गया और लोग घूम घूम कर नाटक देश के हर कोने में ले जाने लगे। पारसी थियेटर के अभिनय में ‘‘मेलोड्रामा’’ अहम तत्व था और संवाद अदायगी बड़े नाटकीय तरीके से होती थी। उन्होंने कहा कि आज भी फिल्मों के अभिनय में पारसी नाटक के तत्व दिखाई देते हैं।

रघुवीर यादव ने कहा कि एक समय में सम्पन्न पारसियों ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की और धीरे धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया। इसकी जड़ें इतनी गहरी थीं कि आधुनिक सिनेमा आज भी इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है।

रंजीत कपूर ने कहा कि पारसी थियेटर की अभिनय कला को लोग शायद सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर ‘‘मुगले आजम’’ के रूप में याद करते हों लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि मेरे छोटे भाई अन्नू कपूर और रघुवीर यादव भी मेरे पिता के ‘‘भोपाल थियेटर कंपनी’’ नामक पारसी नाटक करने वाले समूह में सक्रिय थे। उन्होंने कहा कि यही वजह है कि दोनों ही बहुत अच्छे गायक हैं।

उल्लेखनीय है कि रघुवीर यादव ने हाल में आई फिल्म ‘‘पीपली लाइव’’ में ‘‘महंगाई डायन ...’’ का गाना भी गाया है। वर्ष 1948 में रंजीत कपूर का जन्म भोपाल में हुआ था जहां उनके पिता का नाट्य दल प्रदर्शन करने गया हुआ था। उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत अपने पिता, मदनलाल कपूर की नाटक कंपनी से ही की थी। यह थियेटर कंपनी उनके जन्म से दो वर्ष पहले बनी थी।

उन्होंने अपने आरंभिक दिनों में इस दल के साथ घूम घूम कर म.प्र., राजस्थान जैसे राज्यों में नाटक किये। बाद में उन्होंने जबलपुर में अपनी नौकरी छोड़कर 1970 में लखनउु के एक अखबार ‘‘तरुण भारत’’ में काम किया। बाद में उनका चयन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हुआ जहां वर्ष 1973-76 बैच में उन्होंने निदेर्शन के क्षेत्र में डिप्लोमा किया।

सौजन्यः भाषा

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