रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

फिल्म On My Skin : क्रूरतम यथार्थवादी सच

एक सिनेमा नेताजी के वादे की तरह होता है या फिर नेता जी ही सिनेमाई चरित्र होते हैं। चुनाव के दौरान जब उनके वादे गूंजते हैं तो ऐसा लगता है कि बस यही है तारणहार गोडो, जिसका इंतज़ार सदियों से ज़माना कर रहा था, और जिसके सत्ता में आते ही इंसानी समाज के सारे कष्ट दूर हो जाने वाले हैं। हम सब उनको विजयी बनाने में व्यस्त हो जाते हैं लेकिन जैसे ही नेताजी जीत जाते हैं, मामला वही फिर ढाक के तीन पात वाला ही हो जाता है अर्थात पूर्णमुशिको भवः। हमें पहले तो यक़ीन ही नहीं होता कि हम एक बार फिर ठगे गए हैं, और जब तक हमें सत्य का अंदाज़ा होता है, तब तक हमारी हालत पहले से ज़्यादा पतली हो चुकी होती है और हम किसी और गोडो का इंतज़ार करने लगते हैं। वैसे बताना ज़रूरी नहीं है फिर भी बता देता हूं कि वेटिंग फॉर गोडो सैमुअल बैकेट द्वारा लिखा हुआ एक नाटक है, जिसे 20वीं शताब्दी का सबसे महत्वपूर्ण नाटक माना गया है हालांकि उस नाटक के संदर्भ में कई लोगों का विचार है कि समझ में ही नहीं आता है। वैसे समझ में तो बहुत कुछ नहीं आता है लेकिन फिर भी बातें तो हैं ही। फिर मामला समझदानी का भी है और यह भी कि क्या सच में समझ में नहीं आता है या हम समझना ही नहीं चाहते हैं! बहरहाल, हमारा नायक विजयी हो जाता है और हम पराजित। ऐसे चमत्कारी नायकों से पूरा विश्व इतिहास भरा पड़ा है और जब समाज ही ऐसे चमत्कारी नायकों से अछूता नहीं है तो हमारा सिनेमा भी ऐसे महानायकों से कैसे अछूता रह सकता है जो एक मुक्का मारके पहाड़ से पानी निकाल देता है, अपने एक फूंक से अनगिनत रंगा-बिल्ला का सफ़ाया कर देता है, एक लॉकेट पहन लेने से उसे गोली नहीं लगती और हाथ में सिक्कड़ बांधे रिश्ते में सबका बाप लगने लगता है। यह सिनेमा उस नुक्कड़ नाटक की तरह ज़्यादा है जिसके पास 30 मिनट के जादुई वक्त में दुनियां की हर समस्या का त्वरित समाधान होता है। हमारा नायक अकेले ही पूरी व्यवस्था से टकरा जाता है, बड़े-बड़े गिरोह से भिड़ जाता है, अनगिनत लोगों के हाथ पैर तोड़ता है, अनगिनत हत्या को गाज़र मूली की तरह काटते हुए दनादन अंजाम देता है, हीरोइन के खलनायक बाप को भी अंत में ठिकाने लगा देता है और बेचारी हीरोइन अपने बाप की मौत पर (कैसा भी था आख़िरकार था तो बाप ही) दो मिनट का मौन रखने के बजाए भागकर अपने बाप के हत्यारे अर्थात हीरो से चिपक जाती है। ऐसा लगता है जैसे हम किसी लोकतांत्रिक समाज में नहीं बल्कि आज भी वैसे बर्बर कबीलाई समाज में रह रहे हैं जिनके पास ना कोई नियम है और ना ही कोई क़ानून। हमारा नायक ख़ूब सारी हिंसा और पशुवत व्यवहार को अंजाम देकर महानायक बन जाता है और हम उसे अच्छाई पर बुराई की जीत मानते हुए ताली बजाते अपने-अपने घर को प्रस्थान करते हैं और उसी सड़ियल व्यवस्था में पुर्नवापसी करते हैं, जिससे मुंह मोड़कर सिनेमाहॉल में घुसे थे। इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि बशीर बद्र साहब लिखते हैं - 
तुम तन्हा दुनिया से लड़ोगे 
बच्चों सी बातें करते हो 

अब किसे कौन समझाए कि मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं होती है, बल्कि मुक्ति एक सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया है इसलिए कुरुसाव जैसा निर्देशक भी थे दुनिया में जो नायक को जन से जोड़ता हैं और फिर उनके सिनेमा में नायकत्व का काम जनता करती है, अकेले नायक नहीं। उनको इस बात का भरपूर एहसास था कि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ता। वो बात अलग है कि हम उनका सम्मान करने के लिए कह देते हैं कि आपकी ही वजह से यह सब हुआ है, जबकि जो कुछ भी हुआ है उसमें बहुत कुछ और बहुत लोगों का परोक्ष या प्रत्यक्ष योगदान होता है। वैसे नायक की परिकल्पना ही गैरलोकतांत्रिक है क्योंकि किसी भी नायक का प्रतिनायक में बदल जाने का भी अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है। ब्रेख़्त के नाटक गैलेलियो का एक संवाद याद आता है, जब उनका शिष्य आंद्रेय उससे कहता है - "अभागा है वो देश जहां नायक पैदा नहीं होते।" उसके इस बात के जवाब में कारागार में बंद गैलेलियो कहता है - "हां, सचमुच अभागा है वो देश जिसे नायकों की ज़रूरत पड़ती है।" ऊपरी तौर पर यह दोनों बातें एक जैसी लगती हैं लेकिन दरअसल यह दोनों बातें एक नहीं बल्कि एकदम अलग हैं। काश; हम इसके मर्म को समझ पाते लेकिन चमत्कार को नमस्कार करनेवाला प्रचंड आलसी और सामंती-पूंजीवादी विचार से नाक तक डूबा समाज यह सत्य आसानी से स्वीकार नहीं करता। उसे लगता है कि कोई गोडो का आना ही एकमात्र सत्य है; वो आएगा और उसका जीवन सफल बनाएगा, लेकिन गोडो आजतक न आया है और न आएगा, उसका न आना ही उसे ईश्वरीय बनाता है, आ गया तो चमत्कार समाप्त हो जाएगा। गोडो कहके जो आए उन्होंने दरअसल अपना-अपना एजेंडा ही सेट किया है। 

एक सिनेमा वह होता है जो चमत्कार के बजाए आपको जीवन के क्रूरतम सत्य से रूबरु कराता है ताकि यह समझ में आए कि जीवन में चमत्कारों की प्राथमिकता है लेकिन जीवन चमत्कारों से नहीं बल्कि कठोर यथार्थ के धरातल पर ही सजीव किया जाता है, ऐसी ही एक फिल्म है - On My Skin. यह एक इटालिन फिल्म है जिसे Alessio Cremonini ने निर्देशित किया है। कथा स्टेफानो सूची नामक एक मामूली से 31 वर्षीय इंसान की है, जो एक मामूली अपराध में गिरफ्तार किया जाता है और पुलिस की प्रिविण्टिव कस्टारडी में एक सप्ताह के भीतर ही उसकी मौत हो जाती है। यह एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है, जिसमें रिसर्च करने पर पता चलता है कि इटली जैसे छोटे से देश में उस साल (2009) में ऐसे कुल 172 मामले घटित होते हैं। वैसे यह मामला केवल इटली तक ही सीमित नहीं है बल्कि दुनिया का हर देश इस रोग से ग्रसित है। कोई इंसान किसी वजह से गिरफ्तार होता है, और अगर वो रसूखदार नहीं है तो फौरन उसे अपराधी मान लिया जाता है, फिर उसे टॉर्चर किया जाता है और फिर कुछ ही दिनों में उसकी मौत हो जाती है या उसे सलाखों के पीछे धकेल दिया जाता है जहां वो सालों साल सड़ता रहता है और सब इस बात पर लगभग मौन रहते हैं। ऐसे ही घटनाक्रम पर नोबल पुरस्कार से सम्मानित इतालवी अभिनेता, निर्देशक, नाटककार दारियो फो Accidental Death of an Anarchist नामक नाटक की रचना करते हैं, और उनकी यह रचना विश्व के अनगिनत भाषाओं में न केवल अनुदित होता है बल्कि बड़े ही सम्मान के साथ आज भी खेला और पढ़ा भी जाता है। उनका यह नाटक1969 में घटित Piazza Fontana bombing नामक घटना से प्रेरित था। वैसे वर्ष कोई भी हो पूरी दुनिया में इस प्रकार की घटनाएं बढ़ ही रही हैं, अब तो सीधे-सीधे हत्या का भी सीधा प्रसारण हो जाता है और हम सब ताली बजाकर उसका स्वागत भी करते हैं और ऐसा करते हुए हम यह मान लेते हैं कि त्वरित न्याय हो गया और यही सही प्रक्रिया है! ऐसा सोचते, बोलते या लिखते हुए हम यह भूल जाते हैं कि किसी भी देश ने बड़ी मेहनत और बड़ा त्याग व संघर्ष करके लोकतंत्र नामक व्यवस्था/व्यवस्था बनाई है, उसमें सज़ा देने का भी एक मानवीय प्रावधान की परिकल्पना की है, जिसका पालन करना अनिवार्य होता है किसी भी परिस्थिति में लेकिन जब हम सड़कों पर हुए कुकृत्य को इंसाफ का नाम देने लगते हैं तब हम न केवल अपने बड़े बुजुर्गों के त्याग, तपस्या, पढ़ाई-लिखाई और मेहनत का अपमान कर रहे होते हैं बल्कि हम एक ऐसे बर्बर समाज की ओर क़दम भी बढ़ा रहे होते हैं जिसको त्यागकर मानव समाज ने लोकतंत्र नामक व्यवस्था को स्वीकार किया था। जब हम किसी भी कारण से हिंसा, बलप्रयोग आदि को बढ़ावा देने वाले सिद्धांत को प्रचारित, प्रसारित या मान्यता दे रहे होते हैं तो हमें यह अच्छी तरह ज्ञात हुआ चाहिए कि दरअसल हम न केवल पूरे समाज को पीछे की ओर धकेल रहे हैं बल्कि अपने लिए भी पशुवत मौत का फंदा तैयार कर रहे होते हैं। हत्या का उत्सव माननेवाला कोई भी समाज, इंसान, विचार मानवता का सच्चा प्रतिनिधि हो ही नहीं सकता, बाक़ी उसे जितना भ्रम पालना है - पाल ले! हत्या, हिंसा और ज़बरदस्ती पर आधारित विचार कभी भी सत्य, सौंदर्य, कोमलता का उपासक हो ही नहीं सकता।

नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध On My Skin नामक यह फिल्म देखना एक जलते हुए अंगारे को हाथ में लेने के जैसा है, जो न केवल क्रूरतम सत्य से हमारा साक्षत्कार कराती है बल्कि सोचने पर विवश भी करती है कि इंसान से अपने जीवन स्तर को सही और सुचारू रूप से चलाने के लिए जिन कुछ लोकतांत्रिक विधानों और व्यवस्थाओं का निर्माण किया है/था और उसे कुछ शक्तियां प्रदान की हैं, अगर उनका दुरूपयोग होने लगे तो वो कितना ज़्यादा अमानवीय और ख़तरनाक हो सकती है। फिल्म On My Skin का मुख्य पात्र बस एक मामूली से अपराध के लिए पुलिस द्वारा गिरफ़्तार होता है और उसे बड़ी बुरी तरह टॉर्चर किया जाता, और चंद ही दिनों में वो धीरे-धीरे मौत के आगोश में चला जाता है। उसका परिवार एक साधारण सा परिवार है, जो मुल्क के नियम-कानून का बाख़ूबी सम्मान करता है; उनके पास अपनी मजबूरी को प्रदर्शित करने, बेचैन होने और अपने जवान बेटे की लाश पर दहाड़ मारने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। 

यह फिल्म क्रूरता के बारे में है लेकिन क्रूरता का कोई भी दृश्य इस फिल्म में नहीं है। आप यहां हिंसा और क्रूरता का जादुई एहसास नहीं करते बल्कि यहां आप उसके प्रभाव को बड़े ही गहरे कहीं ग्रहण करते हैं। अभिनेता Alessandro Borghi का अभिनय कोई हीरोपंथी नहीं रचता बल्कि एक गठीले तन को धीरे-धीरे लाश में बदलते हुए इस सफाई, स्थिरता और सात्विकता से प्रदर्शित करता है कि आपकी आत्मा चीत्कार कर उठती है। सच्चा अभिनय वो है जो अभिनय जैसा कुछ न लगे, यहां उसकी झलक साफ-साफ देखी जा सकती है। यह फिल्म उन चंद फिल्मों में से एक है जो शानदार और जीवंत चरित्र को बड़ी सरलता और कुशलतापूर्वक अभिनीति करने के लिए भी देखा जाना चाहिए। एक एथलीट जैसे शरीर वाले सामान्य से आदमी को धीरे-धीरे मौत के आगोश में जाते देखने का एक ऐसा अनुभव प्रदान करता है कि आप चीत्कार उठते हैं, शर्त बस इतनी है कि आपके भीतर का इंसान अभी हिंसा का पोषक न बना हो। यह फिल्म बढ़िया रिसर्च, बेहतरीन लेखन, सम्पादन और इत्मीनान से किया हुआ अर्थवान निर्देशन और सम्पादन के लिए भी देखा जाना चाहिए।

क्रूरता पर कला बनाते हुए भी शालीनता पूर्वक व्यवहार, यह एक संवेदनशील रचनाकार ही कर सकता है वरना तो ऐसी-ऐसी फिल्मों की कभी कोई कमी नहीं रही जो बलात्कार को भी ग्लैमराइज करके फिल्माते हैं और हिंसा को अतिहिंसा से समाप्त करने का भ्रम फैलाकर कर समाज में अंततः हिंसा को नायकत्व का चोला पहनाकर और उसी का ही बीजारोपण करके समाज को और ज़्यादा बीमार करने का काम करते हैं। लेकिन अब सवाल यह भी है कि जब पूरे कुएं में ही भांग घोल दी गई हो तो कौन किसको काहे कि तुम्हें होश नहीं है! यहां तो आलम अब यह है कि एक नसेड़ी दूसरे नसेड़ी को कह रहा है कि होश में रह, नहीं तो - - - -

कलाकारी में कल्पनाओं और स्वप्नलोक का अपना एक सम्मानित स्थान है लेकिन कला जब सपनों का सौदागर का रूप धारण करके जेब और दिमाग का लुटेरा बन जाए तो वो दरअसल समाज को दूषित करने का काम ज़्यादा करता है। कलाकारी के क्षेत्र में भी आज मौक़ापरस्ती की कोई कमी नहीं है। कला कोमलता, सौंदर्य, मानवता और इंसानियत का चितेर होता है ना कि आंख के बदले आंख के कुकृत्य का उपासक। वैसे भी आंख के बदले आंख की मनोवृत्ति एक दिन पूरे विश्व को अंधा बनाने का काम करेगी। इस विचार मुक्त होना आवश्यक है ताकि इंसान के भीतर इंसानियत का बीज पनापता रहे न कि बर्बरता का। 

पुंज प्रकाश

सोमवार, 3 अगस्त 2020

फिल्म शकुंलता देवी के मार्फ़त

"अपने सपने का पीछा करो, आगे बढ़ो, और पीछे मुड़कर न देखो." - शकुंतला देवी

प्रदर्शनकारी कलाओं में सबसे प्राथमिक स्थान नाटक का है, (अब नहीं भी हो तो भी ऐसा कहने का रिवाज है) जिस पर विमर्श करते हुए अमूमन दृश्य-श्रव्य काव्य की बात तो होती है, साथ ही मनोविनोद कहीं न कहीं से आ ही जाता है लेकिन जो एक शब्द हम बड़ी ही चालाकी से गोल कर जाते हैं वो है ज्ञानवर्धक। नाट्यशास्त्र में नाटक की उत्पत्ति के कारणों में यह चारों शब्द आते हैं - "हमें मनोविनोद का एक ऐसा माध्यम चाहिए जो देखने-सुनने योग्य और ज्ञानवर्धक हो। जब हम देखने, सुनने में ज्ञान को जानबूझकर, अज्ञानतापूर्वक या बड़ी ही चालाकी से हटा देते हैं, या वो हट जाता है तब वो केवल और केवल समय, ऊर्जा और धन की बेकार खपत होकर रह जाता है और जब हम सिद्धार्थ की तरह ज्ञान की तलाश में भटकते हैं तब कहीं न कहीं जाकर बुद्धि-विवेक का आगमन होता है और तब कहीं जाकर बुद्धत्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं। रंगमंच समाज बदलता हो या न बदलता हो लेकिन कहीं न कहीं वो हमें कहीं बहुत गहरे से बदल रहा होता है, अगर हम उसे सही रूप में ग्रहण करने को तैयार होते हैं तो; वरना यह भी सत्य है कि चिकने घड़े पर कुछ नहीं टिकता, और जहां छल-कपट हो वहां तो कला भी नहीं टिकती। हाँ, वहां काई जम सकती है, जमती ही है और जम ही रही है। वैसे जिस चीज़ का प्रयोग हम अच्छाई के लिए कर रहे हैं ठीक उसी चीज़ का प्रयोग दूषित करने के लिए भी हो ही सकता है बल्कि हो ही रहा है। 

अब आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि सिनेमा पर बात करते हुए यह रंगमंच पर बात क्यों हो रही है, तो इसका सीधा सा जवाब यह है कि यह रिश्ता कुछ-कुछ जीव की उत्पत्ति के विज्ञान जैसा है। धीरे-धीरे एक लंबे समय अंतराल में जीव अपना रूप स्वरूप बदलते गए और इस प्रकार एक कोशिका से मानव तक की यात्रा सम्पन्न हुई। जो लोग आस्तिक हैं उनकी मान्यताओं में विज्ञान नहीं बल्कि चमत्कार है, उनके तर्क में आस्था भी मिल जाती है और फिर एक मस्त खिचड़ी तैयार होता है। ठीक उसी प्रकार प्रदर्शनकारी कला कबीलों से शुरू होकर आज सिनेमा तक पहुंची है और आज यह कहा जा सकता है कि सिनेमा आज के समय में सबसे लोकप्रिय कला माध्यम है, वो बात और है कि यह दृश्य, श्रव्य, मनोविनोद और ज्ञान का कितना ज़्यादा कलात्मक अभिरुचि जागृत करने में आज अपनेआप को सक्षम पाती है; क्योंकि इसका काम केवल मनोरंजन करके किसी भी प्रकार नाम, यश और धन कमाना नहीं बल्कि अपने रसिकों के कलात्मक स्तर को ऊंचा करना भी होता है, होना ही चाहिए; इस प्रकार कहें तो ह्यूमन कम्प्यूटर नाम से विश्वप्रसिद्ध शकुंतला देवी के जीवन प्रसंगों पर आधारित यह फिल्म बहुत सारे स्तर पर बिल्कुल खरी उतरती है। बाक़ी बातों को छोड़ भी दिया जाए तो भी आपको शकुंतला देवी नामक व्यक्तित्व के जीवन से जुड़े कुछ प्रसंगों से ही परिचय प्राप्त कराती है, जिनके बारे में आज भी बहुत कम लोगों को ही कुछ ज्ञात है। 

वैसे किसी भी व्यक्ति पर एक कलाकृति, एक पुस्तक या कहीं कुछ पन्ने पढ़, देख, सुन भर लेने मात्र से यह भ्रम तो बिल्कुल ही नहीं पालना चाहिए कि हमको उनके बारे में ज्ञान प्राप्त हो गया है, क्योंकि जीवन बहुरूपिया होता है और हर इंसान बहुरूपा होता है और उनके बारे में जितना जानिए, उससे कहीं ज़्यादा जानने को हमेशा बचा रहता है। वैसे इस फिल्म को बॉयोपिक नाम से प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है, जो एक अंश तक सत्य भी है लेकिन याद रहे यह सत्य का एक अंश मात्र है, फिर सवाल यह भी बनता है कि सम्पूर्ण सत्य जैसा भी कुछ होता है क्या? ख़ासकर व्यक्ति और व्यक्तित्व के संदर्भ में, तो उसका जवाब शायद निदा फ़ाज़ली का यह शेर हो सकता है - 

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी 
जिसको भी देखना कई बार देखना 

यह देखना देखना होता है, परखना नहीं; देखने और परखने में फ़र्क है; अंग्रेज़ी में एक शब्द है - observation (निरीक्षण)। यह कला विधा से जुड़े किसी भी व्यक्ति और उसका अवलोकन करने वाले के लिए बहुत शानदार शब्द है, बिना इसे समझे, जाने और आत्मसात किए, कलाकारी और ख़ासकर अभिनय अमूमन असंभव ही है और जहां तक सवाल परखने का है तो उसे भी बशीर बद्र के एक शेर से समझने की कोशिश किया जा सकता है - 

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

इसी ग़ज़ल में अगला शेर भी बड़े कमाल का है वो भी अर्ज़ कर देता हूं, क्योंकि आजकल वरिष्ठ-कनिष्ठ के बीच का द्वंद थोड़ा ज़्यादा ही देखने को मिल रहा है, शायद इसे समझ लिया जाए तो मामला थोड़ा आसान हो जाए; शेर कुछ यूं है - 

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता 

कई बार जीवन का बड़े से बड़ा अर्थ शायरों की चंद पंक्तियों में बड़ी ही आसानी से दर्ज़ होता है, इन्हें पढ़ना, सुनना, समझना, गुनना और आत्मसात किसी महर्षि की साधना के फल से फलीभूत होने के जैसा हो सकता है; शायद इसीलिए कहते भी हैं कि जहां न जाए रवि, वहां जाए कवि। यह बात और है कि आजकल बुद्धिमान व्यक्तियों को बेइज़्ज़त करने का दौर चल पड़ा है। वैसे भी जब मूढ़ता चरम पर हो, तब विद्वता को तो यह दिन देखना ही है। वैसे भी परीक्षा हरिश्चंद्र को ही देना होता है और ज़हर का प्याला सुकरात को ही पीना होता है। बहरहाल, बात सिनेमा पर वापस लाते हैं। उससे पहले ज़रा बात पढ़ाई-लिखाई की कर लेते हैं। गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर ने इसके संदर्भ में कहीं लिखा था - "शिशु को शिक्षा देने के लिए स्कूल नामक यंत्र का अविष्कार हुआ है। उसके द्वारा मानव-शिशुओं की शिक्षा बिल्कुल भी पूरी नहीं हो सकती। सच्ची शिक्षा के लिए वैसे आश्रम की आवश्यकता पड़ती है। जहां समग्रता में जीवन की पृष्ठभूमि मौजूद हो।" अब शकुन्तला देवी किसी स्कूल में नहीं जातीं, कोई फॉर्मल शिक्षा नहीं है उनके पास, लेकिन वो अपनी प्रतिभा और उसे लगातार परिष्कृत करने की बदौलत न केवल विश्वविख्यात होती हैं बल्कि Astrology for You, Book of Numbers, Figuring: The Joy of Numbers,In the Wonderland of Numbers, Mathability: Awaken the Math Genius in Your Child, More Puzzles to Puzzle You, Perfect Murder, Puzzles to Puzzle You, Super Memory: It Can Be Yours, The World of Homosexuals जैसी प्रसिद्ध पुस्तकों की रचयिता भी बनती हैं। अब ज़रा सोच कर देखिए कि शंकुतला देवी सन 1976 में होमोसेक्सुअल पर पुस्तक लिखतीं हैं, उसको जस्टिफाई करने की कोशिश करती हैं। जिस विषय पर हम आज भी सहजता से बात नहीं कर सकते उस पर एक स्त्री आज से कई दशक पहले ही बड़े खुलके ख़बर, साक्षत्कार और विश्लेषण प्रस्तुत करने की हिम्मत करती है। यह किसी साधारण मनुष्य के वश की बात ही नहीं है, वैसे भी उन्हें साधारण होने से लगभग नफरत सी ही थी। वो हाज़िर जवाब हैं, निडर है, अराजक हैं, लड़ाका हैं, ज़िद्दी हैं, जुनूनी हैं, ड्रामेबाज हैं आदि आदि आदि हैं, कुल मिलाकर बात इतनी कि वो वो नहीं हैं जिससे अमूमन भारतीय नारी का "चरित्रवान" चरित्र की छवि को प्रदर्शित किया जाता है बल्कि उन्हें इस नॉर्मल लाइफ़ से चिढ़ सी ही है, वो न "मैं तुलसी तेरे आंगन की" हैं और ना ही "बेबी डॉल मैं सोने दी" ही हैं। अब जरा विद्या बालन की बात भी लगे हाथ कर ही लेते हैं। विद्या भी फिल्म की दुनिया के स्टार हीरोइन से बेहद अलहदा हैं और उसकी बनी बनाई हॉट, सेक्सी, मॉडल्स आदि आदि के छवि की भी कोई परवाह नहीं करतीं, सो न ज़ीरो फिगर हैं और ना हीरो के कंधे के पीछे से झांकती बेचारी हीरोइन। यह स्मिता पाटिल, मीना कुमारी, वहीदा रहमान, डिम्पल कपाड़िया, शबाना आज़मी सहित अनगिनत अभिनेत्रियों के संघर्ष और एक लंबी लड़ाई का ही परिणाम है कि आज कुछ अभिनेत्रियां हॉट, सेक्सी और गुड़िया वाली इमेज से अलग हटकर भी मार्केट में शान से टिकी हुई हैं और बेजोड़ काम कर रहीं हैं; बाक़ी व्यक्ति का अपना पसंद-नापसंद और संघर्षरत होने का जज़्बा तो मायने रखता है रहता है। वो एक प्रसिद्ध कथन है न कि हम जैसा सोचते हैं, हमारे भीतर वैसी ही क्षमताएं विकसित होती हैं और हम आख़िरकार वैसे बन जाते हैं और अगर हम वो नहीं बन पाते हैं तो कमी अधिकतर हमारे प्रयास और उसकी दिशा का ही होता है। शकुन्तला देवी ( (4 नवम्बर 1929 - 21 अप्रैल 2013) जो बनना चाहतीं थी, वही बनी और जो बनीं वही वो बनाना भी चाहती थीं, अब थोड़ा बहुत किंतु-परंतु तो चलता ही है। 

हॉलिवुड में जीवनीपरक या ऐतिहासिक घटनाक्रम पर आधारित सिनेमा बनाने और देखने का अपना एक समृद्ध इतिहास है, अपने यहां भी चलन है लेकिन बहुत ज़्यादा कमज़ोर। इसके पीछे बहुत सी बातें हैं, एक तो प्रमुख कारण यह भी है कि हम या तो पूजने ही लगते हैं या फिर दुत्कारने ही लगते हैं। हम किसी भी प्रसिद्ध इंसान को अवतार और उसे अनुछुआ बना देने की अद्भुत कला से पीड़ित लोग हैं और एक बार हमने जिसे मान लिया तो फिर किसी की मज़ाल ही नहीं है कि उसके बारे में वाह वाह के अलावा भी कोई और शब्द कह दे, तो ऐसे में कोई जीवनीपरक बेहतर काम हो ही नहीं सकता। जब तक हम किसी भी इंसान को श्वेत और श्याम में देखते रहते तब तक केवल झूठ ही रच सकते हैं जबकि इंसान धूसड होता है, मतलब श्वेत और श्याम का मिला जुला रूप, अब पलड़ा किसी तरफ ज़्यादा झुका होगा, यह बात और है। फिर यथार्थ को भी मिर्च मसाला डालके उसे इतना जादुई बना देते हैं कि समझना मुश्किल हो जाता है कि इसमें सत्य क्या है और कल्पना क्या है। वैसे हम सत्य से ज़्यादा कल्पनालोक में ही विचरण करने में ज़्यादा सहज महसूस करते हैं या फिर यथार्थवाद के नाम पर ऐसा नीरस संसार रच डालते हैं कि वो मूलतः देखने, सुनने और समझने लायक ही नहीं बचता। 

यह फिल्म थोड़ी अपवाद है, जो शकुन्तला देवी को उनकी बेटी की नज़र से देखता है और उस नज़र से वो एक जीनियस के साथ ही साथ एक ज़िद्दी, घमंडी, अक्खड़, अपने धून की पक्की, ड्रामेबाज़, निडर और डरी हुई और भी पता नहीं क्या-क्या सब एक साथ नज़र आती हैं; कहने का अर्थ कि इस फिल्म वो एक स्टियोटाइप छवि मात्र नहीं बल्कि एक पूरे का पूरा इंसान नज़र आती हैं, जिसमें अच्छाई-बुराई सब है। केंद्रीय भूमिका को विद्या बालन ने निभाया भी बड़े सौम्यता के साथ है। फिल्म के गठन में हास्य-व्यंग्य और जीवंतता को मिलाकर पटकथा लेखक, निर्देशक और संपादक ने इसे बोझिल होने से बड़े ही बेहतरीन ढंग से बचाया भी है। बाकी सारे कलाकारों ने अपनी भूमिका का समुचित निर्वाह भी किया है। हां, एक चीज़ है जिससे भारतीय सिनेमा को अब मुक्त हो जाने के बारे में सोचना चाहिए कि जिस फिल्म में संगीत (गानों) की कोई ख़ास भूमिका (ज़्यादातर में ठूंसा ही होता है) न हो, उसमें उसका पूर्णतः परित्याग कर देना चाहिए। इस फिल्म में भी गाने न होते तो शायद कुछ मिनट बर्बाद होने से बचाया जा सकता था और इसे एक पीरियड सिनेमा बनाने के लिए इसके कलात्मक पक्ष पर थोड़ी और मेहनत की जा सकती थी।
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