रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.
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रविवार, 6 जनवरी 2013

जन कलाकार बलराज साहनी : ख्वाजा अहमद अब्बास


बलराज साहनी पर आधारित ख्वाजा अहमद अब्बास का एक महत्वपूर्ण आलेख हस्तक्षेप.com से साभार.

दुर्भाग्य से हमारे देश में जाने माने चित्रकारों, अभिनेताओं तथा गायकों को ‘‘जन कलाकार’’ का खिताब देने का चलन ही नहीं है। उन्हें भी इंजीनियरों, डाक्टरों, ठेकेदारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहां तक कि बिल्कुल अनजाने लोगों के भी साथ खड़ाकर पद्मश्री तथा पद्मभूषण के खिताब दे दिए जाते हैं, जो सर्जनात्मक कलात्मक गतिविधियों के क्षेत्र में उनके अनोखे योगदान की अलग से कोई पहचान ही नहीं करते हैं।
बहरहालअगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है जो ‘‘जन कलाकार’’ के खिताब का हकदार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे।
बहुत से लोग इस पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी प्रकटत: कितनी सहजता व आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर गए हैं, चाहे वह धरती के लाल का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या हम लोग का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह दो बीघा जमीन का हाथ रिक्शा खींचने वाला हो या काबुलीवाला का पठान मेवा बेचनेवाला या फिर चाहे इप्टा के नाटक आखिरी शमा में मिर्जा गालिब का बौद्धिक रूपांतरण ही क्यों न हो। लेकिन, इसका अंदाजा कम लोगों को ही होगा कि इन पात्रों को साकार करने के पीछे जन व जीवन का कितना सघन अध्ययन था और वर्षों की तैयारियों, शोध तथा उन परिस्थितियों में वास्तव में रहकर देखने के बल पर, इन पात्रों को गढ़ा गया था। बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों को सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था।
इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके पहले कार्यकर्ताओं में से थे। एक अभिनेता की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। फिर भी मैं तो अब भी उन्हें इप्टा के एक समर्पित तथा निस्वार्थ जमीनी कार्यकर्ता के रूप में ही याद करता हूं। बाकी सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था, चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठभूमि में हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे नीग्री व अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध, बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे।
दंगों के दौर में तो वह ऐसे काम करते रहे थे जैसे सिर पर कोई भूत सवार होनाटक लिखते थे और दूसरों से (जैसे मुझ से) लिखाते थे, उनका रिहर्सल करते थे और चालों में, बस्तियों में, सड़क़ों पर, चौपाटी की रेत में और कभी-कभी तो प्रेक्षागृहों में भी यानी जगह-जगह पर और हर जगह, इन नाटकों की प्रस्तुति किया करते थे। (मेरे नाटक जुबैदा के अपने निर्देशन के दौरान तो बलराज ने, विशाल कावासजी जहांगीर हॉल में उपस्थित श्रोताओं के बीच बिजली सी ही दौड़ा दी थी, जब नाटक के दौरान उन्होंने हॉल के बीचो-बीच के रास्ते से होते हुए मंच पर, पूरी की पूरी बारात ही बारात ही उतार दी थी, जिसमें आगे-आगे बैंड बाजे से लेकर,सफेद घोड़े पर सवार दूल्हा तक,सब कुछ था।)
बहरहाल,उनकी सबसे लोकप्रिय ऐतिहासिक कामयाबियां फिल्मों में उनके काम के दौर में ही आयी थीं। लेकिन,इन भूमिकाओं में भी जनता के जीवन के साथ उनकी तदाकारता मुकम्मल तथा प्रश्नोपरि थी। उन्होंने जो भी भूमिका अदा की,उसे बड़ी उदारता से यथार्थवाद से संपन्न बनाया।
1945 में इप्टा ने जब फिल्म धरती के लाल बनायी, जिसमें सारे के सारे गैर-पेशेवर अभिनेता-अभिनेत्री थे, उसके लिए लंबे-तड़ंगे तथा नफीस बलराज साहनी ने, जो बीबीसी में दो बरस काम करने के बाद कुछ ही अर्सा हुए लंदन से वापस लौटे थे,खुद को ऐसे आधे-पेट खाकर गुजर करते बंगाली किसान में बदला,जैसे वह अकाल के मारे लाखों किसानों में से ही एक हों।
वह महीनों तक सिर्फ एक वक्त खाकर गुजारा करते रहे थे ताकि कैमरे के सामने उनकी अधनंगी देह,अपने भूख के मारे होने की गवाही दे। और हर रोज कैमरे के सामने जाने से पहले वह अपनी धोती,समूचे शरीर और चेहरे पर भी,कीचड़ मिले पानी का छिडक़ाव कराते थे ताकि हर तरह से अकिंचनता प्रकट हो।
दो बीघा जमीन बिमल राय की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करने वाली गाथा थी। यह गाथा थी एक गरीब किसान के जीवट की, जो कलकत्ता में हाथ-रिक्शा चलाकर इतना पैसा इकट्ठा कर लेना चाहता है, जिससे साहूकार के शिकंजे से अपनी दो बीघा जमीन छुड़ा सके। इस भूमिका को अभिनीत करने के लिए बलराज कई हफ्ते तक कलकत्ता में रिक्शा खींचने वालों की बस्ती में रहे थे। यहां उन्होंने रिक्शा खींचने के लिए खुद को प्रशिक्षित ही नहीं किया था बल्कि रिक्शा खींचने वालों के तौर-तरीके भी सीखे थे और सबसे बढक़र उनके जैसा नजर आना सीखा था।
इस फिल्म के सबसे प्रसिद्ध दृश्य में बेचारा रिक्शावाला दस रुपए के एक नोट की खातिर,एक मोटी सवारी को रिक्शे पर बैठाकर,जिसके हास्यभाव में परपीड़न का तत्व शामिल था, एक बग्घी से होड़ करता है जिसे एक घोड़ा खींच रहा होता है और जीत भी जाता है। बिमल राय ने मुझे बताया था कि वह तो दूरी के शॉटों में बलराज के डबलके तौर पर किसी पेशेवर रिक्शा खींचने वाले को रखना चाहते थे, लेकिन बलराज को यह बात सुनना भी मंजूर नहीं था। उन्होंने बिना डबलका सहारा लिए यथार्थवादी तरीके से इस दृश्य को अभिनीत किया, हालांकि इस दौड़ में करीब-करीब उनके प्राण ही निकल गए होते। इस तरह उन्होंने एक ऐसा शॉट दिया,जिसे यथार्थवादी अभिनय की शानदार विजय के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। वास्तव में यह इससे भी बढक़र था। यह तो शोषितों व वंचितों की जिंदगी के सामाजिक यथार्थ का एक मानवीय दस्तावेज है।
वास्तव में यही भूमिका थी जिसने एक महान अभिनेता के रूप में उनकी सर्वोच्चता भी स्थापित की और उन्हें इस देश के करोड़ों मेहनतकशों की आंखों का तारा भी बनाया था। उसके बाद से हमेशा ही उन्हें जनता के अपने अभिनेता के रूप में पहचान हासिल रही थी और सम्मान तथा प्यार मिलता आया था।
काबुलीवाला में,रवींद्रनाथ टैगोर के रचे बहुत ही भोले पठान के प्यारे से पात्र को साकार करने के लिए,उन्होंने रावलपिंडी में गुजरे अपने बचपन की स्मृतियों को फिर से जगाया था,जहां सीमांत क्षेत्र से आने वाले पठान सहज ही और रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा होते थे। इसके अलावा उन्होंने स्थानीय पठानों से संपर्क कर उनसे उनकी बोल-चाल सीखी थी,उनका प्रिय साज़ रबाब बजाना सीखा था और पश्तो के गीत गाना सीखा था। उन्होंने पठानों की हिंदुस्तानी की बोल-चाल की ध्वनि और उसके लालित्य को सीखा था। नाटक के मंच और सिनेमा के पर्दे, दोनों पर ही उन्होंने पठान की यह भूमिका अदा की थी और यह कहना मुश्किल है कि दोनों में किस रूप में प्रस्तुति को, चरित्रांकन की दूसरे से बढक़र विजय माना जाना चाहिए। वर्षों तक वह जहां भी जाते थे, उनके चाहने वाले उनका स्वागत काबुलीबाला के बोलने के तरीके की उनकी प्रस्तुति की नकल कर के किया करते थे।
   उनकी अगली महान कामयाबी थी, इप्टा के नाटक आखिरी शमा में मंच पर मिर्जा गालिब के चरित्र तथा व्यक्तित्व की उनकी पुनर्रचना। यह खेद की बात है कि इस पात्र को सिनेमा के पर्दे पर पेश करने की योजना सिरे नहीं चढ़ सकी और इस देश के करोड़ों लोग उनकी इस प्रस्तुति को देखने से वंचित रह गए। फिर भी हजारों लोगों ने तो नाटक के मंच उनकी प्रस्तुति को तो देखा ही।
इस पात्र की प्रस्तुति को पूर्णतम बनाने में बलराज साहनी को, जो एक पंजाबी थे तथा इस पर गर्व करते थे, एक सहूलियत तो यह हुई कि उनका उच्चारण उर्दू का करीब-करीब बेदाग था और उन्होंने अपने दोस्तों से देहली की उर्दू इस तरह सीखी थी,वह इस जुबान में वैसे ही बोल सकते थे, जैसे गालिब बोलते रहे होंगे। उन्होंने मुशाइरा शैली में शाइरी पढ़ने की नफीस कला भी घोंटकर पी ली थी। गालिब के पात्र की उनकी प्रस्तुति इतनी विश्वसनीय तथा जीवंत थी कि गालिब के एक महान पारखी तथा गालिब साहित्य के विद्वान ने कहा था: ‘‘जाहिर है कि महान शायर को मैंने कभी देखा तो नहीं था, पर मैं इतना जरूर जानता हूं कि गालिब ऐसे ही नजर आते,ऐसे ही शायरी पढ़ते और नाटक में चित्रित विभिन्न हालात में उनकी ऐसी ही प्रतिक्रिया रही होती।’’
लेकिन,एक अभिनेता कोई किसानों,कवियों,पठानों आदि की भूमिकाएं ही नहीं करता है। उसका पेशा उससे कहीं और ज्यादा भांति-भांति के पात्रों को अभिनीत करने की मांग करता है। बलराज द्वारा प्रस्तुत अन्य पत्रों में मुझे उनकी एक अंग्लो-इंडियन डाक्टर (राही),जेलर (हलचल),घूम-घूमकर तमाशा दिखाने वाले (परदेशी),फरार कैदी (पिंजरे के पंछी),एक ईमानदारी आदमी जो नाजायज शराबफरोश बन जाता है (दामन और आग),करोड़पति व्यापारी (प्यार का रिश्ता) और पुलिस इंस्पैक्टर (हंसते जख्म) की प्रस्तुतियां याद हैं। अपनी आखिरी फिल्म में,जो बहुत ही उद्देश्यपूर्ण व राजनीतिक रूप से सार्थक फिल्म,गर्म हवा थी,वह आगरा के एक जूता व्यापारी की भूमिका अदा करते हैं,जो विभाजन की विभीषिका का शिकार होता है और फिर भी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार नहीं होता है।
इन अलग-अलग भूमिकाओं में से हरेक में वह अपने अभिनय कौशल की छाप छोड़ते हैं। उनका यह कौशल मानव व्यवहार के सहानुभूतिपूर्ण पे्रक्षण और यथार्थवाद के लिए गहरे लगाव,ब्यौरों के प्रति तथा चरित्र व व्यक्तित्व एक एक-एक रग-रेशे के प्रति आश्यचर्यजनक ईमानदारी ने गढ़ा था।
बलराज साहनी ने किसी फिल्म संस्थान से प्रशिक्षण नहीं पाया था। वह अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी थे। फिर उन्होंने अभिनय का असाधारण कौशल पाया कहां से? जीवन के विद्यालय से ही उन्होंने इंसानों को, उनकी दुर्बलताओं को व मूर्खताओं को,उनकी कमजोरियों को व उनकी शक्तियों को,उनके तौर-तरीकों को तथा उनके बनाव-सजाव के तरीकों को दिलचस्पी से देखना सीखा था।
उनकी वामपंथी सहानुभूतियां तथा संबद्धताएं ही उन्हें इप्टा के हम लोगों के पास लायी थीं। इप्टा का तब गठन हुआ ही था और वह पूरे दिलो-जान से उसके काम में कूद पड़े। वह अभिनय करते और नाटकों का निर्देशन करते तथा मंचन करते और वह भी किन्हीं वातुनुकूलित प्रेक्षागृहों में नहीं बल्कि घूम-घूकर अपने गीत सुनाने वाले लोक गायकों की तरह चौपाटी की रेत पर या फिर मुंबई की झोंपड़-पट्टियों में,जहां चार मेजें जोडक़र अस्थायी स्टेज बना लिया जाता था और पीछे से सडक़ बंद कर,दर्शक सड़क पर ही बैठ जाते थे।
आखिरकार उन्हें और हमें,अपने समय की ज्वलंत समस्याओं पर केंद्रित अपने नाटकों का प्रेक्षागृहों में मंचन करने का भी मौका मिला, लेकिन हमने कभी अपने शुरू के दौर की सोद्देश्यता की खुशबू को और आम लोगों से अपने मूल संपर्कों को कटने नहीं दिया। जनता के प्रति तथा एक सोद्देश्य जन संस्कृति के प्रति यह प्रतिबद्धता ही, बलराज साहनी के लिए उनकी प्रेरणा भी थी और हार्दिक भावना भी।
वह एक अभिनेता थे,लेकिन सिर्फ अभिनेता ही नहीं थे। उनकी असाधारण प्रतिभा की अभिव्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में हुई थी। वह एक वामपंथी रुझान के तथा प्रगतिशील वचनबद्धताओं के राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता थे और जब वह कम्युनिस्ट पार्टी के कार्डधारी सदस्य नहीं रहे थे, तब भी यह स्थिति बदली नहीं। वह एक विवेकवादी तथा अज्ञेयतावादी थे और उनमें विश्वास की इतनी दृढ़ता थी कि आखिरी समय तक अपने विश्वास पर अडिग रहे थे।
जब उनकी बेटी की मौत हुई वह चुनाव में इंदिरा कांग्रेस के प्रचार के लिए मध्य प्रदेश में थे। इसी तरह जब भिवंडी में दंगे हुए,वह भिवंडी गए थे और एक मुस्लिम मोहल्ले में,मुसलमानों के साथ दो हफ्ते रहे थे ताकि धर्मनिरपेक्ष भारत में उनका भरोसा बहाल कर सकें। अच्छे कामों के लिए प्रचार करने के लिए वह लगातार देश भर में दौरे करते रहते थे। इप्टा के लिए तथा जुहू आर्ट थिएटर के लिए वह नाटक लिखते थे,उनमें अभिनय करते थे,उनका निर्देशन करते थे और यहां तक कि इन नाटकों में पैसा खर्च भी करते थे। वह फिल्मों से पैसा कमाते थे लेकिन, इस पैसे को अपने लिए एशो-आराम पर खर्च करने की जगह, वह इसमें से ज्यादतर पैसा उन अनेक अच्छे कामों के लिए दे देते थे जिनमें वह यकीन करते थे और जिनके प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी। उनसे मेरी आखिरी मुलाकात,एक ऐसे होस्टल की स्थापना की योजना के सिलसिले में हुई थी, जिसमें अरब और भारतीय छात्र साथ-साथ रह सकते हों। जिस रोज उनका इंतकाल हुआ,उस रोज भी,उन्हें दिल का जानलेवा दौरा पड़ने से घंटे भर पहले ही मेरी टेलीफोन पर उनसे बात हुई थी और वह बड़े जोश के साथ हैदराबाद में बालिगा मैमोरियल अस्पताल के निर्माण के बारे में चर्चा कर रहे थे।
एक बेहतर जिंदगी के लिए जनता के संघर्षों में सक्रिय हिस्सेदारी के अनुभव से ही उनका तेजस्वी व्यक्तित्व भरा हुआ था और उसी से उन्होंने उन विविध पात्रों पर एक गहरी व सहानुभूतिपूर्ण पकड़ हासिल की थी, जिन्होंने उन्होंने इतने कौशल से तथा हार्दिक मानवीय भावना के साथ सजीव किया था।
उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का प्रस्फुअट सिर्फ अभिनय तक ही सीमित नहीं था। वह एक कहानी लेखक थे। पहले उन्होंने हिंदी में कहानियां लिखीं तथा आगे चलकर अपनी प्यारी पंजाबी जुबान में,जिसके विकास के लिए उन्होंने भावपूर्ण समर्पण से काम किया था। पाकिस्तान के दो हफ्ते के सफर की उनकी यात्रा डायरी,गुजरे जमाने के लिए लगाव की कशिश से भरा एक दस्तावेज है, जिसका रैडक्लिफ की खींची रेखा के दोनों तरफ गर्मजोशी भरा स्वागत हुआ था,जोकि एक भारतीय लेखक के लिए दुर्लभ उपलब्धि है। पंजाबी भाषा,पंजाबी साहित्य तथा पंजाबी संस्कृति पर उनका बड़ा भरोसा था और यह उन्हें पाकिस्तान के किसी भी पंजाबी के साथ तार जोड़ने में समर्थ बनाता था। उनके निधन से कुछ हफ्ते पहले की ही बात है,लाहौर से एक युवा संपादक दोनों देशों के बीच आदान-प्रदान के हिस्से के तौर पर आया था और बलराज ने उसे खाने पर बुलाया था। इस भोज में उन्होंने एक नारा दिया था: ‘‘दुनियाभर के पंजाबियो एक हो।’’ हालांकि वह पंजाबी भाषा के हितायती थे, फिर भी (जवाहरलाल नेहरू की तरह) वह इसकी वकालत करते थे कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनायी जाए, ताकि उनमें एकता तथा एकमेकता लायी जा सके। कभी-कभी वह रोमन लिपि में हिंदुस्तानी जुबान में अपने दोस्तों को लंबे-लंबे पत्र भी लिखा करते थे।
जब वह शूटिंग के लिए जाते थे, तब भी बराबर गुरुमुखी का टाइपराइटर उनके साथ रहता था। इसी पर वह दोपहर के ब्रेक के दौरान अपने लेख, कहानियां, निबंध, नाटक और यहां तक कि उपन्यास के अंश भी लिखते थे, सभी कुछ पंजाबी में। मिसाल के तौर पर जब वह आगरा में शूटिंग कर रहे थे, वह अपना खाली वक्त मुस्लिम जूता बनाने वालों की जिंदगी के बारे में जानने में लगाते थे क्योंकि वह जिस पात्र का अभिनय कर रहे थे, इसी समाज से आता था। अगर वह पंजाब के किसी गांव में होते थे, वह अपनी शामें गांववालों के बीच, उनकी बोल-ठोली तथा गीतों की टेप पर रिकार्ड करते हुए गुजारते थे,ताकि जनता की भाषा की अपनी शब्दावली को और विस्तृत व समृद्ध बना सकें।
उन्हें साहित्य से प्यार था। उन्हें रंगमंच से प्यार था। उन्हें सिनेमा से प्यार था। उन्हें राजनीति में सभी प्रगतिशील रुझानों से प्यार था। वह सोवियत संघ से प्यार करते थे और वह चीन, वियतनाम, क्यूबा और अरब देशों व उनके जनगण से भी प्यार करते थे। लेकिन, सबसे बढ़कर वह भारतीय जनता से प्यार करते थे और उसके जीवन,उसके संघर्षों, उसकी समस्याओं,उसकी कमजोरियों तथा शक्ति के साथ,खुद को जोड़कर देखते थे। अचरज की बात नहीं है कि उनके आखिरी शब्द थे–‘‘मेरे लोगों को मेरा प्यार देना।’’ 

बुधवार, 28 मार्च 2012

एक्टीविस्ट संस्कृतिकर्मी अनिल ओझा- अनीस अंकुर का संस्मरण


अनिल ओझा 

14 वर्ष पहले 5 फरवरी 1998 को अनिल ओझा कदमकुआं स्थित  वामपंथी पुस्तकों की दुकान ‘समकालीन प्रकाशन’ से कुछ पुस्तकें खरीद कर निकले। उस वक्त दुकान में वयोवृद्ध वामपंथी कार्यकर्ता जगदीश जी किताब की दुकान पर बैठा करते थे। अनिल ने वहां से डी.डी केशाम्बी की Exasperating essays सहित कई और किताबें खरीदीं। किताबें खरीद कर वे ‘प्रेरणा’ कार्यालय के लिए चल पड़े जहां आलोकधन्वा ‘कविता और संगीत’ विषय पर अपना व्याख्यान देने वाले थे। लेकिन अनिल ओझा ‘प्रेरणा’ कार्यालय नहीं पहंचे सके। बीच रास्ते में क्या हुआ- किसी केा आज तक ठीक से नहीं मालूम। सात दिनों के बाद 12 फरवरी,1998 को वे पी.एम.सी.एच में मृत पाए गए। अनुमानतः बीच रास्ते में गाधी मैदान के आस -पास उनका कहीं एक्सीडेंट हुआ होगा और किसी ने पी.एम.सी.एच. पहॅचा दिया होगा। अनिल की उम्र उस समय मात्र 28 वर्ष थी।
उस वक्त देश में लोकसभा के लिए आम चुनाव की घोषणा हो चुकी  थी। ‘अबकी बारी, अटल बिहारी’ का नारा लगातार हवा में गूंज रहा था। मैं ‘प्रेरणा’ की टीम के पाच साथियों के साथ नवादा पार्टी (सी.पी.एम) के पक्ष में, अपनी नुक्कड़ नाटक की टीम लेकर चुनाव प्रचार करने गया हुआ था। वहीं 13 फरवरी की सुबह सी.पी.एम. के युवा कार्यकर्ता गोपाल शर्मा ने ‘आज’ अखबार के पहले पन्ने की एक खबर को जोर से पढ़ते हुए कहा-‘रंगकर्मी अनिल ओझा की मौत’। हम सभी अवाक् रह गए। हमने गोपाल से अखबार लेकर इस स्तब्ध कर देने वाले समाचार को पढ़ा। कमलेश (जो उस वक्त दैनिक ‘आज’ में काम किया करते थे) के कारण यह खबर तब प्रथम पृष्ठ पर जगह पा सकी थी। कमलेश अनिल के मित्र थे।
अनिल ओझा से मेरी पहली मुलाकात  27 नवंबर,1996 (विद्याभूषण द्विवेदी की मौत के दिन) स्टेशन पर हुई थी। मैं स्टेशन सांध्य दैनिक ‘अमृत वर्षा’ खरीदने गया था। उसमें विद्याभूषण की मृत्यु की खबर छपी थी। अनिल उस वक्त मुनचुन (संप्रति रानावि के रंगमंडल) के साथ थे। मुनचुन से उसके कुछ ही महीनों पूर्व, आर्ट कालेज के आंदोलन के दौरान जान पहचान हुई थी। मुनचुन ने अनिल से परिचय कराया। मैंने  दोनों को विद्याभूषण के बारे में बताया। अनिल ने कहा कि वो शायद विद्याभूषण के बारे में जानता है। उससे पहले अमिताभ हमें अनिल के बारे में थोड़ा-बहुत बता चुके थे कि कैसे हमारा एक साथी जेल में है साथ ही वे उनकी मशहूर कविता ‘धारा 120 बी’ का भी हमारे सामने पाठ कर  चुके थे। अनिल की एक और कविता ‘टार्चरमैन’ का एकल मंचन करते मैंने संभवतः मुनचुन को पटना विश्वविद्यालय प्रांगण में आर्ट कालेज आंदोलन के दौरान देखा था। इस कविता में एक क्रांतिकारी अपने टार्चर करने वाले सिपाही से संवाद करता है। बहुत बाद में शायद अनिल के गुजरने के बाद किसी ने पटना स्टेशन पर एक सांवले रंग के लंबे कद के एक मुस्लिम व्यक्ति से मेरा परिचय इस रूप में कराया कि अनिल ने अपनी कविता ‘टार्चरमैन’ इनके ही अनुभवों के आधार पर लिखा है। बाद में मालूम हुआ कि कुछ दिनों के बाद उनकी भी संभवतः किसी बीमारी से मौत हो गयी।
अनिल बिहार के छपरा जिले के रहने वाले थे। मां-पिता द्वारा यू.पी.एस.सी. की तैयारी करने के लिए दिल्ली भेजे गए थे। उसी दौरान उनका संपर्क पार्टी यूनिटी के लोगों से हुआ परिणामस्वरूप वे चले आए बिहार में काम करने। अनिल से दूसरी बार पटना आर्ट कालेज में भेंट हुई। यह 1996 के दिसंबर की बात है। प्रिंसिपल के चंेबर में मेरी उस वक्त के विवादास्पद प्राचार्य वारिस हादी से  काफी कहा-सुनी हो गयी। उसके वक्त वहां बुद्धा कालोनी का थाना प्रभारी, जो कोई आदिवासी था, भी मौजूद था। प्राचार्य से बहस के दौरान मैं उस थाना प्रभारी से भी उलझ पड़ा और फिर परिस्थितियां ऐसी उलझी कि मुझे और साथ के दो-तीन साथियो को पकड़कर बुद्धा कालोनी ले जाया गया। मेरे साथ उस समय अनिल, एस.एफ.आई. के साथी मनोज और गोपाल शर्मा  भी थे। ये दोनों थाना प्रभारी से मेरे उलझ पड़ने से पैदा हुए परिणाम से क्षुब्ध थे और ये कहे जा रहे थे कि तुमने पुलिस दमन देखा नहीं है। खैर थाने में कुछ देर पश्चात हमें छोड़ दिया गया। बाद में अनिल ने कहा ‘‘मुझे तो ऐसा लगा कि कहीं चालान काटकर जेल न भेज दे। मैं तो वैसे भी हाल में ही जेल से छूटकर आया हंू’ खैर थाने से छूटने के प्श्चात हमने राहत की सांस ली। हमलोग बुद्धा कालोनी के मोड़ पर चाय पीने गए। वहां देर तक अनिल से बातें होती रही। वहीं उसके मुंह से मैंने अफ्रीकी लेखक न्गूगी वा थ्योंगो का नाम पहली बार सुना।
इस घटना के बाद अनिल हमारे गांधी मैदान स्थित ‘प्रेरणा’ कार्यालय में अक्सर आने-जाने लगे। बाकी साथियों से भी उनकी मित्रता हो गयी थी। मुझे उनका आना बेहद पसंद था क्योंकि वे जब भी आते दुनिया-जहान की राजनीति और संस्कृति की बातें होती। अनिल एक तो काफी पढ़े-लिखे थे हम सबों में सबसे ज्यादा शिक्षित साथ ही बेहद सहज एवं विनम्र। वहीं प्रेरणा में उन्होंने अपनी एक और चर्चित कविता ‘एक इकबालिया बयान’ का बेहद प्रभावशाली पाठ किया था। प्रेरणा में उस वक्त काफी साथी हुआ करते थे। इसके अलावा दूसरे रंग संगठनों-छात्र संगठनों के लोगों का काफी आना-जाना लगा रहता। मैं भी तब वहीं था। अनिल के आने का फायदा ये होता कि बाकी लड़कों के सामने वे अक्सर राजनीति संबंधी बातें छेड़ते जिसमें बाकी साथियों को भी बहस में हिस्सा लेना पड़ता । मुझे इस बात से संतोष था कि चलो इसी बहाने साथियो का राजनीतिकरण हो रहा है। वैसे भी रंगकर्मियों में व्यापक सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों के प्रति एक उदासीनता की प्रवृत्ति रहती है। प्रेरणा में सचेत रूप से इन सरोकारों पर बातें करने की कोशिश की जाती।
धीरे-धीरे अनिल ने मुझसे भी वामपंथ के भीतर के वैचारिक सवालों पर बहस करना प्रारंभ किया। मुझे याद है एक दिन अनिल ने कहा ‘‘हम लोग तो मानते हैं कि भारत एक अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक देश है आप लोग क्या मानते हैं?’ अनिल का जुड़ाव उस वक्त नक्सलवाद की गैरसंसदीय धारा के एक प्रमुख धड़ा (सी.पी.आइ.एम.एल.-पार्टी यूनिटी) से था। बाद में इसी धड़े के प्रयासों के कारण सी.पी.आई. (माओवादी) के रूप में नये संगठन का आर्विभाव हुआ। मेरी उस वक्त तक देश के शासक वर्ग के चरित्र के सवालों पर उतनी कुछ खास समझदारी नहीं थी लेकिन अनिल के इस सवाल से मैं थोड़ा उलझन में था। ये बातें संभवतः 1998 के जनवरी महीने की रही होगी क्योंकि मुझे याद है कि मैं नवादा चुनाव के दौरान अपने कई साथियो से इस सवाल पर खूब बातें किया करता। वहीं सी.पी.एम. के इस सूत्रीकरण से परिचय हुआ कि भारत के शासक वर्ग का वर्गीय चरित्र बुर्जआ-सामंती है या इजारेदार-सामंती है। सी.पी.एम. के जिस राजनैतिक कार्यकर्ता ने इस विषय में मेरी उस समय सबसे ज्यादा समझ बढ़ायी वे थे कामरेड सियाराम ठाकुर। वे मेरे ही इलाके बिक्रम के रहने वाले थे। कई सालों बाद बिक्रम में ही सियाराम ठाकुर की सामंतों द्वारा हत्या कर दी गयी।
इसी दौरान मेरी अनिल से एक दिन ‘प्रेरणा’ से निकलने के बाद गांधी मैदान के भीतर काफी तीखी बहस हो गयी थी। लेकिन कुछ दिनों के बाद ही सब कुछ सामान्य हो गया। पहली बार अपनी संस्था से इतर शिक्षा संबंधी एक सेमिनार में अनिल ने बतौर वक्ता भी आमंत्रित किया था जिसमें मेरे अलावा विनय कंठ भी उसमें मौजूद थे। पटना कालेज सेमिनार हाल में हुए इस सेमिनार के अंत में अनिल ने बेहद प्रभावी ढ़ंग से कुछ गहरी बातें की जो उस वक्त के काफी कम लोग सोच भी पाते थे। अनिल रंगमंच के साथ-साथ छात्रों के संगठन डी.एस.यू. में भी सक्रिय थे। उनकी बातों का छात्र-नौजवानों पर खासा प्रभाव पड़ता। एक बार पटना कालेजिएट के बाहर कुछ नौजवानों केा हिंसा के पेचीदे सवाल को जिस तार्किक ढ़ंग से अनिल ने समझाया उससे हम सभी उनकी गहरी समझ के कायल हो गए।
1997 के दौरान अनिल से दोस्ती काफी बढ़ गयी। वो  भारत की आजादी का पचासवां साल था। जे.एन.यू. छात्र संघ के दो बार अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर की उसी वर्ष सीवान में मार्च में हत्या हो चुकी थी। गदर को भी उसी दौरान गोली लगी थी। वो काफी हलचलों भरा साल था। ‘प्रेरणा’ और अनिल की संस्था ‘अभिव्यक्ति’ ने मिलकर आजादी की 50वीं सालगिरह सरकारी उत्सवों के समांतर ‘जनोत्सव’ तय किया। ‘अभिव्यक्ति’ से हमारा परिचय अमिताभ के माध्यम से पहले ही हो चुका था। अनिल अमिताभ का बहुत सम्मान करते थे। लेकिन ये भी कहते कि ‘‘अभिव्यक्ति में पार्टी लाइन को उन्होंने इतना कड़ाई से लागू कर दिया कि सारे लड़के इधर-एधर हो गए।’’
‘जनोत्सव’ बेहद सफल सांस्कृतिक आयोजन रहा। हमने उसमें एक सप्ताह तक प्रतिदिन नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, सेमिनार और डाक्यूमेंट्री फिल्मों का आयोजन किया। आनंद पटवर्द्धन की की चर्चित डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘राम के नाम’ और ‘बंबई आवर सिटी’ का प्रदर्शन किया गया था। हमसबों का आनंद पटवर्द्धन के काम से परिचित होने का संभवतः पहला मौका था। इन दोनों फिल्मों के कैसेट का जुगाड़ अनिल ने ही किया था। इन फिल्मों केा हम लोगों ने वी.डी.ओ. पर देखा तब सी.डी. का चलन न था। ‘बंबई आवर सिटी’ फिल्म में हमने मराठी गायक विलास घोघरे को गाते सुना था। उसी दौरान उनके आत्महत्या की खबर आयी थी जो उन्होंने मुंबई में आंबेडकर की मूर्ति को जूतों की माला पहनाए जाने के विरोध में कर लिया था। अनिल धीरे-धीरे अभिव्यक्ति की थोड़ी निष्क्रिय पड़ी टीम को लगातार सक्रिय कर रहे थे। उसी ‘जनोत्सव’ के साप्ताहिक आयोजन में अनिल से कृश्न चंदर की कहानी पर आधारित चर्चित नाटक ‘गड्ढा’ का बेहद सफल मंचन किया था। उस नाटक में संभवतः अरविंद झा भी और वासदेव भी। बहुत बाद में वासदेव ने अरविंद की अपने एक और साथी के साथ मिलकर पैसों की खातिर बड़े नृशंस तरीके से हत्या कर दी थी। अरविंद अपने मां-बाप का इकलौता लड़का था। अरविंद के अपहरण से प्राप्त फिरौती से वे लोग कोई फिल्म बनाना चाहते थे।
अनिल ने आर्ट कालेज के आंदोलन में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। वहीं उसकी भेंट संन्यासी रेड से हुई और दोनों में नजदीकियां काफी बढ़ गयी थी।  अनिल के कारण ही संन्यासी में थोड़ी राजनैतिक चेतना आयी। अनिल के मरने पर संन्यासी बहुत ज्यादा दुःखी थे। एक्जीविशन रोड पर वे एक रिक्शे पर निढाल से दिखे। मैंने उन्हें उतना दुःखी होते फिर कभी नहीं देखा।
अनिल की मौत के बाद हुए शोकसभा में हिस्सा लेने मैं चुनाव प्रचार के बीच में चला आया था इस बात को लेकर हमारे अपने साथियो से काफी तीव्र मतभेद उभर आए। एकाध लोगों का मानना था कि चुनाव प्रचार को छोड़ कर जाना कतई जरूरी नहीं है वैसे भी वो लड़का अपनी पार्टी ;ब्च्डद्ध का नहंी नक्सल था। ऐसे तमाम लोग बाद में पार्टी के साथ-साथ प्रेरणा की गतिविधियों से भी काफी दूर चले गए। पटना स्टेशन पर पूरी प्रेरणा की टीम खड़ी थी कि नवादा से लौटने के बाद हमें समस्तीपुर चलना चाहिए मैंने कहा कि मैं अब शोकसभा के बाद ही आउंगा। इस बात को लेकर उभरा मतभेद काफी तीखा एवं कड़वाहट से भर गया।
खैर मैं पटना रूक गया। अनिल की शोकसभा ए.आई.पी.आर.एफ. के पोस्टल पार्क वाले कार्यालय में हुई। वो कार्यालय एक बेहद संकरी गली में था। वहां मैं पहली बार गया था। वहीं साधना, जो उस समय काफी सक्रिय थी, सहित बहुत सारे लोग मिले। अनिल की एक और शोकसभा माध्यमिक शिक्षक संध में हुई जिसमें पटना के काफी लोग मौजूद थे।
अनिल के साथ राजनैतिक मतभेदों के बावजूद हमारी बहुत सारी चीजों पर समझदारी, खासकर सांस्कृतिक एवं थियेटर संबंधी मसलों पर एक समान थी। कई आयोजन हम आगे मिलजुल कर करने की योजना बना ही रहे थे। अंतिम आयोजन भी हमने संयुक्त रूप से ही किया था। अमूमन शाम वे ‘प्रेरणा’ में बिताया करते। रंगमंच के कलाकारों का वैचारिक रूप से भी चेतनशील बनाए बिना हम रंगमंच के लिए स्पेस, बिहार जैसी पिछड़े इलाके में, नहीं बना सकते ये हमारी उस समय भी साफ समझ थी। रंगमंच में सृजनात्मक उंचाई हासिल करने के लिए ये बेहद आवश्यक है कि एक अनुकूल वैचारिक माहौल बनाया जा सके। रंगमंच के कलाकारों में दुनिया के सरोकारों से भी जोड़ने के सवाल को अनिल बेहद प्रमुखता से उठाया करते। रोजमर्रे की मामूली बातों को बड़े राजनैतिक सवालों को जोड़ने की उनकी क्षमता से हम सभी परिचित थे। राजनीति और विचार की दुनिया के पेचीदे मसलों को जिस बोधगम्य भाषा में अनिल अभिव्क्त करते वो दुर्लभ था। उन्होंने खुद दो नाटकों की रचना भी की जिसमें ‘शिक्षा का सर्कस’ और ‘सद्गति’ प्रमुख है। उनकी मौत के पश्चात एक पुस्तिका अभिव्यक्ति के साथियो ने छपवायी थी जिसमें उनकी कुछ कविताएं, नाटक, डायरी प्रकाशित किए गए थे। मेरे पास उनकी केई तस्वीर भी नहीं है।
अनिल ओझा से संस्कृति के सवालों पर जैसी समझदारी विकसित होती जा रही थी यदि वे जीवित रहते हमें आगे और बड़ी पहलकदमियों की ओर ले जाती। अनिल एक कवि थे, नाटककार थे, संगठक थे, राजनैतिक कार्यकर्ता और सबसे बढ़कर दृष्टिसंपन्न संस्कृतिकर्मी थे। उनके साथ मिलने पर लगभग प्रत्येक व्यक्ति  इतनी नजदीकी महसूस करता कि अपने दिल की बात भी उनसे बेधड़क कही जा सकती थी। कई महीने अनिल ने जेल में भी बिताए। पलामू में तेंदू पत्ता के मजदूरों के बीच काम करने का इरादा लेकर वे गए थे। उसी दौरान वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए थे।
मृत्यु के पूर्व जितनी किताबें उन्होंने खरीदी थीं वे किताबें बहुत बाद तक मेरे पास रहीं। डी.डी केशाम्बी की पहली किसी पुस्तक से मेरा परिचय Exasperating essays पुस्तक से हुआ। यह वही किताब थी जो अनिल के मरने के बाद उनके पास से बरामद हुई थी।
आलेख बिहार खोज खबर.कॉम से साभार .